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सम्पूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण को संन्यास लेने के बाद वापस राजनीति में क्यों आना पड़ा?

Loknayak Jai Prakash Narayan

लोकनायक जयप्रकाश नारायण का नाम जेहन में आते ही मन में एक ऐसे महान शख्स की छवि उभरती है जिन्होंने अपने विचारों, दर्शन, उच्च आदर्श और अनोखे व्यक्तित्व से न सिर्फ देश की दिशा तय की बल्कि आम आदमी की कल्पनाशीलता को भी जगाया। आजादी और देश में लोकतांत्रिक व्यवस्था की स्थापना के बाद महात्मा गांधी की परम्परा को आगे ले जाने में जिन नेताओं की भूमिका को सबसे ज्यादा याद किया जाता है... उनमें जयप्रकाश नारायण सबसे महत्वपूर्ण हैं। आजादी के बाद हुए पहले आम चुनाव के बाद से ही जयप्रकाश ये मानने लगे थे कि राजसत्ता चाहे जिस रूप में हो, वो कल्याणकारी नहीं हो सकती। उनका कहना था कि उसमें जनता की भागीदारी का प्रभाव नहीं होता है।  अपने इन्हीं विचारों का अनुसरण करते हुए जब उन्होंने देखा कि राजसत्ता आक्रामक तानाशाह की तरह काम करने लगी है जिसमें लोकतंत्र सिर्फ वोट भर है, तो वे उठ खड़े हुए और उसे उखाड़ कर फेंकने में सफल भी हुए।

5 जून 1974 को पटना के गांधी मैदान में बोलते हुए जयप्रकाश नारायण ने जब सम्पूर्ण क्रांति का नारा दिया तब उनका आशय उस पूरी व्यवस्था के खिलाफ था जिसने हर व्यक्ति को भ्रष्ट बनने के लिए मजबूर कर दिया था।उन्होंने कहा था कि

आजादी के 27 साल बाद भी देश के लोग हर तरह का अन्याय झेल रहे हैं। हमें चाहिए सम्पूर्ण क्रांति, उससे कम कुछ भी नहीं

जेपी आंदोलन के नाम से मशहूर सम्पूर्ण क्रांति आजाद भारत में पहला सबसे बड़ा जन आंदोलन था, जिसने इंदिरा गांधी की सरकार को हिला दिया, नेताओं की एक नई पीढ़ी को जन्म दिया और राजनीतिक जीवन में ईमानदारी लाने की कोशिश की। सादगी, नैतिकता, बलिदान और सत्ता की राजनीति का विरोध करने वाले महान नेता जयप्रकाश नारायण ने इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस के निरंकुश शासन के खिलाफ 1974 में अपने लंबे राजनीतिक जीवन की ढलती बेला में इस आंदोलन की अगुवाई की, जो उनके राजनीतिक सोच और कर्म की परिपक्वता को दर्शाता है। इस आंदोलन में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका की वजह से ही जनता ने उन्हें लोकनायकके खिताब से नवाजा।

अपने जीवन में संतों जैसा सम्मान केवल दो नेताओं ने प्राप्त किया। एक महात्मा गांधी थे तो दूसरे जयप्रकाश नारायण। इसलिए जब सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बाद जेपी ने 1974 में सिंहासन खाली करो कि जनता आती है के नारे के साथ मैदान में उतरे तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ा, जैसे किसी संत महात्मा के पीछे चल रहा हो।

क्या थी सम्पूर्ण क्रांति और क्यों हुई इसकी शुरुआत?

दरअसल, देश की आजादी की लड़ाई से लेकर 1977 तक तमाम आंदोलनों की मशाल थामने वाले जयप्रकाश नारायण ने अपने विचारों, दर्शन और व्यक्तित्व से देश को एक नई  दिशा दिखाई। भारत में समाजवादी पार्टी की स्थापना के साथ ही वो भारत छोड़ो आंदोलन और अराजकता के खिलाफ छात्र आंदोलन और सम्पूर्ण क्रांति के वाहक बने। सम्पूर्ण क्रांति ने देश में एक नई क्रांति का आगाज किया।

पांच जून 1974 को पटना के ऐतिहासिक गांधी मैदान में जब लोकनायक जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया था तब गांधी मैदान में एक नारा गूंजा था...

जात-पात तोड़ दो, तिलक-दहेज छोड़ दो,

समाज के प्रवाह को नयी दिशा में मोड़ दो।

इस नारे की गूंज काफी दूर तक गई। दरअसल, सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी तेज थी कि इसकी वजह से केंद्र में कांग्रेस को सत्ता से हाथ धोना पड़ा था। जय प्रकाश नारायण के हुंकार पर नौजवानों का जत्था सड़कों पर निकल पड़ा था। बिहार से उठी सम्पूर्ण क्रांति की चिंगारी देश के कोने-कोने में आग बनकर भड़क उठी और जयप्रकाश नारायण घर-घर में क्रांति के पर्याय बन गए।

राजनीति से संन्यास ले चुके जेपी दोबारा राजनीति में क्यों आएं?

दरअसल आजादी के दो दशक बाद देश की राजनीतिक, आर्थिक और कानून व्यवस्था की खराब हालत ने जयप्रकाश नारायण को विचलित कर दिया था। यही वजह थी कि सक्रिय राजनीति से संन्यास ले चुके जेपी ने दोबारा से राजनीति में आने का निर्णय लिया। दिसंबर 1973 में जेपी ने यूथ फॉर डेमोक्रेसी नामक संगठन बनाया और देशभर के युवाओं से अपील की कि वे लोकतंत्र की रक्षा के लिए आगे आएं। गुजरात के छात्रों ने जब 1974 में चिमनभाई पटेल की सरकार के खिलाफ आंदोलन शुरू किया तो जेपी वहां गए और नवनिर्माण आंदोलन का समर्थन किया। तब जेपी ने कहा था कि मुझे छितिज पर वर्ष 1942 दिखाई दे रहा है।‘  इसके बाद मार्च में पटना में छात्रों ने आंदोलन को शुरू कर दिया। तब विद्यार्थियों के जोर देने पर जयप्रकाश नारायण ने बिहार में आंदोलन का नेतृत्व स्वीकार किया और यही बिहार आंदोलन बाद में सम्पूर्ण क्रांति में बदल गया।

छात्र आंदोलन की वजह

साल 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के बाद गुजरात और बिहार में व्यवस्था परिवर्तन को लेकर 1974 में शुरू हुआ छात्र आंदोलन आजाद भारत के लिए अनोखी घटना थी। बिहार का छात्र आंदोलन उन समस्याओं का परिणाम था जिन्हें लेकर छात्रों और आम जनता में जबरदस्त आक्रोश और असंतोष था। शैक्षिक स्तर में गिरावट, बेलगाम महंगाई, बेरोजगारी, शासकीय अराजकता और राजनीति में बढ़ता अपराधीकरण ऐसे मुद्दे थे जिन्हें लेकर आम आदमी काफी परेशान था। ऐसे में छात्र-युवाओं का संगठित आंदोलन एक स्वाभाविक घटना थी। लिहाजा मार्च 1974 में पटना में शुरू हुआ आंदोलन ऐसा आंदोलन बन गया जिसका प्रभाव पूरे देश पर पड़ा।

सम्पूर्ण क्रांति की शुरुआत

पांच जून 1974 को जब पटना के गांधी मैदान में जय प्रकाश नारायण ने पहली बार सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान किया तब पांच लाख से ज्यादा लोगों की भीड़ जुटी थी। जे पी ने सम्पूर्ण क्रांति को दो शब्दों में उच्चारण किया था। हालांकि क्रांति शब्द नया नहीं था लेकिन सम्पूर्ण क्रांति नया था क्योंकि गांधी परम्परा में समग्र क्रांति शब्द का इस्तेमाल किया जाता था सम्पूर्ण क्रांति का नहीं। जेपी ने तब कहा था कि यह क्रांति है मित्रों ! और सम्पूर्ण क्रांति है। विधान सभा का विघटन मात्र इसका उद्देश्य नहीं है। यह तो महज मील का पत्थर है। हमारी मंजिल तो बहुत दूर है और हमें अभी बहुत दूर तक जाना है।

सम्पूर्ण क्रांति का मकसद

सम्पूर्ण क्रांति का आह्वान करते हुए जेपी ने घोषणा की थी कि भ्रष्ट्राचार मिटाना, बेरोजगारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना ऐसी चीजें हैं जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकती। क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रांति- सम्पूर्ण क्रांति- आवश्यक है। इस व्यवस्था ने जो संकट पैदा किया है वह सम्पूर्ण और बहुमुखी है, इसलिए इसका समाधान सम्पूर्ण और बहुमुखी ही होगा। व्यक्ति का अपना जीवन बदले, समाज की रचना बदले, राज्य की व्यवस्था बदले, तब कहीं बदलाव पूरा होगा और मनुष्य सुख और शान्ति का मुक्त जीवन जी सकेगा।

अपने आदर्श और विचारों को धरातल पर उतारने के लिए लोकनायक ने सम्पूर्ण क्रांति में सात क्रांतियों को शामिल किया था। जिसमें उन्होंने राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, बौद्धिक, शैक्षणिक और आध्यात्मिक क्रांति शामिल की थी।जयप्रकाश नारायण के मुताबिक इन सातों क्रांतियों को मिलाकर सम्पूर्ण क्रांति पूरी होती है। इस दर्शन के जरिए जयप्रकाश पूरे देश में आमूलचूल परिवर्तन चाहते थे जिसमें सामाजिक जीवन का कोई पक्ष अछूता नहीं था।

जयप्रकाश की सम्पूर्ण क्रांति का दर्शन अंग्रेजी में प्रकाशित उनके दो महत्वपूर्ण निबंधों-1959 के ए प्ली फॉर री कंस्ट्रक्शन ऑफ इंडियन पॉलिटीऔर 1961 के स्वराज फॉर द पीपुलमें दिखाई देता है। इसके आधार पर उन्होंने एक समग्र विचार देने की कोशिश की और अपने कर्मों से उसे चरितार्थ भी किया। संपूर्ण क्रांतिका दर्शन आज पहले के मुकाबले ज्यादा प्रासंगिक है। भूमंडलीकरण और उपभोक्तावादी संस्कृति के इस युग में अगर हम एक राष्ट्र के रूप में अपने को सही अर्थों में पाना चाहते हैं तो इस दर्शन का कोई दूसरा विकल्प नहीं है।

सम्पूर्ण क्रांति में जनता की भागीदारी

सम्पूर्ण क्रांति को छात्रों, मध्यवर्ग, व्यापारियों और बुद्धिजीवियों के एक बड़े हिस्से का व्यापक समर्थन मिला। दरअसल, इस आंदोलन ने लोगों को एक महत्वपूर्ण जरिया मुहैया कराया, जिसके जरिए वो बढ़ती महंगाई, बेरोजगारी, खाद्य की कमी और भ्रष्टाचार जैसे मुद्दों पर अपना असंतोष व्यक्त कर सकते थे। इसके साथ ही राजनीतिक असंतोष, जन आक्रोश, युवा ऊर्जा और लोकनीति पर आधारित समाज के निर्माण की दृष्टि ने इस आंदोलन को काफी शक्ति प्रदान की। जेपी ने अलग-अलग भावनाओं और राजनीतिक विचारधाराओं को ऐसे जन आंदोलन के लिए एकजुट किया जो साफ तौर पर कांग्रेस विरोधी था और कानून के शासन की स्थापना की कोशिश कर रहा था।

इसे सभी गैर-वामपंथी पार्टियों का भी पूरा समर्थन मिला। दरअसल, 1971 के चुनावों में हारने के बाद इन नेताओं ने जेपी के रूप में एक ऐसे जन नेता की छवि देखी जो उन्हें कांग्रेस के विकल्प के रूप में मान्यता दिलवाने योग्य बना सकता था। इसके बदले में जेपी यह समझते थे कि बिना इन पार्टियों के सांगठनिक ढांचे के वे न तो सड़क पर और न हीं चुनावों में इंदिरा गांधी का मुकाबला कर सकते हैं।

सम्पूर्ण क्रांति की लोकप्रियता और उसमें बढ़ती जन भागीदारी से केंद्र की इंदिरा गांधी सरकार हिल गई थी। आजादी के बाद देश में पहली बार किसी आंदोलन में महिलाओं ने बड़े पैमाने पर सक्रिय भागीदारी की थी। आंदोलन को कुचलने के लिए तत्कालीन सरकारों ने हर संभव उपाय अपनाए। 4 नवंबर 1974 को पटना में घटी घटना आज भी पुलिसिया बर्बरता की याद दिलाती है जब शांतिपूर्ण जुलूस की अगुवाई कर रहे जेपी को पुलिस कार्रवाई में गंभीर चोटें आईं थी।

आपातकाल का लागू होना

इस बीच जून 1975 में गुजरात विधानसभा चुनाव में कांग्रेस हार गई और जनता पार्टी सत्ता पर काबिज हो गई। उधर 12 जून 1975 को इलाहाबाद हाईकोर्ट के न्यायाधीश जस्टिस सिन्हा ने इंदिरा गांधी को भ्रष्ट चुनाव आचरण में लिप्त होने का दोषी पाते हुए उनके चुनाव को अमान्य करार दिया। इधर जेपी ने 25 जून 1975 को दिल्ली में एक रैली में 29 जून से राष्ट्रव्यापी सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू करने का आह्वान किया। साथ ही उन्होंने सशस्त्र सेनाओं, पुलिस बल, और सरकारी अधिकारियों से अपील की कि वे किसी भी सरकारी आदेश को न मानें और उन आदेशों को गैर-कानूनी और गैर-संवैधानिक मानें। जेपी के इस आह्वान और आंदोलन को मिल रही भारी समर्थन से घबराकर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी 25-26 जून 1975 की आधी रात को इमरजेंसी की घोषणा कर दी। देशभर में सेंसरशिप लागू कर दी गई और जेपी समेत सैकड़ों बड़े नेताओं को मीसा और राष्ट्रीय सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर जेलों में डाल दिया गया।

पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार का गठन

19 महीने के काले कानून के बाद जनवरी 1977 में इंदिरा गांधी ने देश में आम चुनाव की घोषणा की। खराब तबीयत के बावजूद जेपी ने चुनाव की चुनौती को स्वीकार किया। चुनाव में उत्तर भारत में कांग्रेस बुरी तरह से हारी। आजादी के बाद पहली बार केंद्र में गैर कांग्रेसी सरकार का गठन हुआ लेकिन सत्ता के दुरुपयोग को चुनौती देने वाले जेपी ने खुद को सत्ता से दूर रखा।

जयप्रकाश नारायण से लोकनायक

11 अक्टूबर 1902 को बिहार के एक छोटे से गांव सिताब दियारा में जन्में लोकनायक जयप्रकाश नारायण की जीवन के कठिन संघर्ष और उच्च आदर्श उन्हें भारतीय राजनीति के नायकों में अलग स्थान दिलाते हैं। 1922 से 1929 तक वे पढ़ाई के लिए अमेरिका में रहे। इस दौरान पढ़ाई का खर्च उठाने के लिए उन्हें खेतों, कंपनियों, होटलों आदि में काम करना पड़ा। काम और अध्ययन के दौरान उन्हें श्रमिक वर्ग की कठिनाइयों को करीब से जानने का मौका मिला। समाज के कमजोर और वंचित वर्ग के प्रति उनके सद्भावपूर्ण विचार को इन अनुभवों से और ज्यादा मजबूती मिली।

1929 में अमेरिका से भारत लौटने पर जवाहल लाल नेहरू के कहने पर जेपी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस में शामिल हो गए। 1932 में सविनय अवज्ञा आंदोलन में सक्रिय रूप से भाग लेने पर उन्हें जेल में बंद कर दिया गया। 1932 में नासिक जेल में अपने कारावास के दौरान ही वे राम मनोहर लोहियाअशोक मेहता, मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, सी के नारायणस्वामी और अन्य नेताओं के साथ घनिष्ठ संपर्क में आए। इस संपर्क ने उन्हें कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी में शामिल होने के लिए प्रेरित किया जो आचार्य नरेन्द्र देव की अध्यक्षता में कांग्रेस पार्टी के भीतर वामपंथी झुकाव का एक समूह था। दिसंबर 1939 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के महासचिव के रूप में जयप्रकाश ने लोगों से आह्वान किया कि दूसरे विश्व युद्ध का फायदा उठाते हुए भारत में ब्रिटिश शोषण को रोका जाय और ब्रिटिश सरकार को उखाड़ फेंका जाय।

महात्मा गांधी भी उनके विचारों से इतना प्रभावित थे कि उन्होंने सार्वजनिक रूप से ये घोषणा की थी कि समाजवाद के बारे में जो जयप्रकाश नहीं जानते, उसे इस देश में दूसरा भी कोई नहीं जानता। संपूर्ण क्रांति ने जयप्रकाश नारायण को लोकनायक बना दिया था। उन्हें ये नाम ऐसे ही नहीं मिला। आजादी की लड़ाई और उसके बाद लगातार वे आम लोगों के हितों की बात करते थे। हर तरह के राजनीतिक लोभ की विकृति से दूर रहकर जयप्रकाश नारायण ने खुद को ऐसे शख्स के रूप में पेश किया जिसका एकमात्र उद्देश्य जनकल्याण था। वो अहिंसक सत्याग्रही के साथ ही ऐसे व्यावहारिक विचारक थे जो समाजवादी संकल्पों के जरिए देश में आमूलचूल परिवर्तन लाना चाहते थे।

अंग्रेजों से लड़ने के लिए आजाद दस्ता बनाया

1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण को गिरफ्तार कर हजारीबाग सेंट्रल जेल में रखा गया था। लेकिन 9 नवंबर 1942 को दिवाली के मौके पर वे अपने छह साथियो से साथ जेल से फरार हो गए। ब्रिटिश शासन के अत्याचार से लड़ने के लिए नेपाल में उन्होंने एक "आज़ाद दस्ता" भी बनाया। जेल से भागने की घटना ने उन्हें देश के युवाओं में अत्यधिक लोकप्रिय बना दिया। इस घटना ने यह भी दर्शा दिया कि जेपी जितने शालीन और मर्यादित थे उतने ही बड़े क्रांतिकारी भी।

आदर्श के आगे राष्ट्रपति पद को ठुकराया

जेपी ने देश को अपने समाजवादी विचारों के अनुकूल बनाने की कोशिश की। पचास के दशक में आई उनकी किताब... भारतीय राज्य-व्यवस्था की पुनर्रचना : एक सुझाव ...में आज के जमाने में हमारे लिए सबसे उपयुक्त राज्य-पद्धति और राज्य-शासन-व्यवस्था के स्वरूप को स्पष्ट करता है। जयप्रकाश नारायण ने राष्ट्र के समतामूलक आदर्श को उन प्रजातांत्रिक मानकों के रूप में देखने की कोशिश की जिन पर सत्ता का नहीं, जनता का अधिकार होता है। जवाहरलाल नेहरू की नीतियों से असहमति के कारण ही उन्होंने केन्द्रीय मंत्रिमंडल में शामिल होना स्वीकार नहीं किया। सत्ता को अपने स्वभाव के विपरीत मानकर ही उससे दूरी बनाई। वे सही मायने में गाँधीजी के उस उत्तराधिकार को मानते थे जिसमें बिना किसी स्वार्थ के सेवाभाव प्रमुख था। यही वजह है कि 1967 में जब सर्वसम्मति से उन्हें देश के राष्ट्रपति पद पर बैठाने की बात आई तो उन्होंने इनकार कर दिया। इस इनकार के जरिए उन्होंने जो आदर्श पेश किया, उसकी मिसाल खोजना मुश्किल है।

जयप्रकाश नारायण समान भाव से सभी वर्गों और जातियों को देखते हुए उन्हें बराबर का अधिकार देने के पक्षधर थे। यही वजह थी कि गरीबों के प्रति उनकी प्रतिबद्धता कभी कम नहीं हुई। वे समूचे भारत में ग्राम स्वराज्य का सपना देखते थे और उसे आकार देने के लिए अंत तक प्रयास करते रहे। 8 अक्टूबर 1976 को भारतीय राजनीति की संत चरित्र वाले इस महात्मा का पटना में निधन हो गया। महान स्वतंत्रता सेनानी, राजनेता और समाज सेवक लोकनायक जयप्रकाश नारायण को 1999 में मरणोपरांत भारत रत्न से सम्मानित किया गया। लोकतांत्रिक ताने-बाने की सुरक्षा के लिए जयप्रकाश नारायण की प्रतिबद्धता को कभी भुलाया नहीं जा सकता।

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