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महात्मा गांधी और सत्याग्रह: प्रतिरोध का अनोखा तरीका

Gandhi ji  in march

महात्मा गांधी का उद्देश्य किसी नए दर्शन का विकास करना नहीं था लेकिन ऐसा कोई भी पहलू नहीं जिस पर उन्होंने विचार नहीं किया। चाहे वह राजनीतिक पहलू हो, या सामाजिक, धार्मिक हो या आर्थिक। सबसे महत्वपूर्ण बात तो यह है कि उनके इन सभी पहलुओं का आधार एक ही है, और वह है- नैतिकता। इसी नैतिकता को मूल आधार बनाकर गांधीजी ने सत्याग्रह का विचार दिया। गांधीजी ने सत्याग्रह के अर्थ को एक बड़ा फलक दिया ताकि रोजमर्रा के जीवन में एक नैतिक दृष्टि पैदा की जा सके।

गांधी का सत्याग्रह केवल एक विचार ही नहीं है बल्कि इसका एक व्यवहारिक पक्ष भी है। दरअसल, गांधी दर्शन में अहिंसा के साथ सत्य के मिल जाने के बाद एक नई स्थिति का निर्माण होता है। इस स्थिति का मूल मकसद अहिंसा में आस्था रखने वाले मनुष्य का सत्य के प्रति आग्रह का होना है, जिसे गांधी ने 'सत्याग्रह' कहा।

गांधी के सत्याग्रह की तकनीक केवल विदेशी शक्ति या बाहरी आक्रमण के विरोध तक ही सीमित नहीं थी। इस बात की चिंता किए बिना कि हुकूमत विदेशियों की है या नहीं, सामाजिक और आर्थिक न्याय को प्राप्त करने, औद्योगिक संघर्षों में और साम्प्रदायिकता और अस्पृश्यता जैसी सामाजिक बुराइयों के खिलाफ संघर्ष करने में भी उसे लाया जा सकता है।

सत्याग्रह का विचार या यू कहें कि इस शब्द की उत्पत्ति दक्षिण अफ्रीका में गांधीजी द्वारा गोरी सरकार के रंगभेदी नीतियों के खिलाफ किए गए संघर्षों के दौरान हुई। दरअसल, 1906 में तत्कालीन अफ्रीकी सरकार ने एक अध्यादेश निकाला जिसके मुताबिक एशियाई लोगों के पहचान पत्र में उंगलियों की छाप को अनिवार्य बना दिया गया था। तब जोहान्सबर्ग में रह रहे भारतीयों ने इसे अपना अपमान समझा और इस अपमानजन भेदभाव का मजबूती से विरोध करने के लिए सितंबर 1906 में जोहान्सबर्ग में इकट्ठा हुए। गांधी जी के मन में सत्याग्रह का विचार पहली बार यहीं पनपा।

Satyagraha March in South Africa
दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह पदयात्रा

शुरुआत में गांधी जी के विरोध को स्थानीय प्रेस ने निष्क्रिय प्रतिरोध यानी पैसिव रेजिस्टेंस बताया। गांधी जी इससे असंतुष्ट थे, क्योंकि इसमें निष्क्रिय शब्द का भाव नकारात्मक था। गांधी जी ने अपनी आत्मकथा सत्य के प्रयोगमें लिखा है कि जब गोरों की एक सभा में मैंने देखा कि पैसिव रेजिस्टेंस का तो संकुचित अर्थ किया जाता है, वह निर्बलों का ही हथियार माना जाता है, उसमें द्वेष की गुंजाइश है और उसका अंतिम स्वरूप हिंसा में प्रकट हो सकता है तो मुझे उसका विरोध करना पड़ा और हिंदुस्तानियों के संग्राम का सच्चा स्वरूप समझना पड़ा। तब हिंदुस्तानियों को अपने संग्राम का परिचय देने के लिए नए शब्द की योजना करनी पड़ी।

गांधी जी निष्क्रिय प्रतिरोध की परिभाषा से अलग अपने तरीके का कोई बेहतर शब्द चाहते थे लेकिन कोई उपयुक्त शब्द नहीं सूझने पर थोड़ी सी इनाम की राशि रखकर इंडियन ओपीनयनमें इसके लिए पाठकों के बीच प्रतियोगिता कराई गई। गांधीजी के भतीजे मगनलाल गांधी ने सत्-आग्रह शब्द का संधि करके सदाग्रह शब्द सुझाया। हालांकि इनाम तो उन्हें मिला लेकिन गांधी जी अब भी संतुष्ट नहीं थे और उन्होंने इसमें सत्य शब्द को जोड़ा और इस तरह सत्य और आग्रह यानी सत्याग्रह शब्द बना। भले ही राजनीतिक विरोध के अलग तरीके को दर्शाने के लिए यह शब्द लाया गया हो, लेकिन गांधी ने और विस्तार देते हुए इसे सत्य और अहिंसा के प्रति प्रतिबद्धता कहा।

दरअसल, गांधी जी ने देखा कि हिंसा और अन्याय लोगों के निजी संबंधों समेत पूरे समाज में मौजूद है। वह हिंसा को किसी भी कीमत पर सही नहीं मानते थे। यह एक नैतिक प्रश्न भी था। गांधी कहते भी थे कि हिंसा किसी समस्या का समाधान नहीं है और हिंसा सिर्फ प्रतिहिंसा को जन्म देती है। इसलिए आजादी हासिल करने के लिए अगर कोई बंदूक उठाता है तो इससे खून-खराबा ही होगा और पीड़ित भारतीयों के पास इसके गलत इस्तेमाल से बचने के लिए कोई दूसरा उपाय नहीं होगा। गांधी जी ऐसे किसी भी विचार से सहमत नहीं थे कि विवाद की स्थिति में लोगों ने हमेशा हिंसा का सहारा लिया है।

इंडियन ओपिनियन में सत्याग्रह और सत्याग्रही के बारे में बताते हुए गांधी ने लिखा है कि- सत्याग्रह का आधार सत्य है, इसलिए इसका उपयोग अहिंसक व्यक्ति ही कर सकता है जो हिंसा और खून खराबे से दूर रहे। इस शस्त्र को धारण करने की पहली शर्त है अहिंसक होना। उन्होंने कहा कि सत्याग्रह एक महान शक्ति है और जिस प्रकार प्रकाश गहरा से गहरा अंधकार का मुकाबला कर सकता है उसी प्रकार सत्याग्रह बड़ी से बड़ी विरोधी ताकत का मुकाबला कर सकता है।

इसी तरह सत्याग्रही के बारे में बताते हुए गांधी जी ने कहा कि- सत्याग्रही कभी हारता नहीं है चाहे सामने वाला कितना भी ताकतवर क्यों न हो। उन्होंने न्याय के सवाल पर सत्याग्रही को आत्म-मूल्यांकन करना और खुद की कठिन परीक्षा लेने के बारे में बताया। सत्याग्रही का परम लक्ष्य है सत्य पर दृढ़ रहना और अहिंसा को किसी भी हालत में नहीं छोड़ना। इसके लिए चाहे कोई भी कीमत क्यों न चुकानी पड़े।

सत्याग्रह का मूल लक्षण बताते हुए गांधी जी ने कहा कि- अन्याय का विरोध करते हुए भी अन्यायी के प्रति वैर भाव नहीं रखना सत्याग्रह का मूल लक्षण है। दरअसल, सत्याग्रह में हिंसा का बिलकुल स्थान नहीं है।

गांधी जी ने सत्याग्रह के महत्व को स्पष्ट करते हुए उन तरीकों के बारे में भी बताया जिसे सत्याग्रही को आचरण में लाना चाहिए। इसमें सबसे पहले उन्होंने ईश्वर पर विश्वास करने की बात कही। उन्होंने कहा कि सत्याग्रही तभी सफल हो पाएगा जब वह सत्य पर, ईश्वर पर श्रद्धा रखेगा। इसके साथ ही उन्होंने असहयोग को सत्याग्रहियों का सबसे महत्वपूर्ण शस्त्र माना। उन्होंने कहा कि असहयोग और कुछ नहीं बल्कि आत्म बलिदान का अनुशासन है और इसके जरिए ही अपने लक्ष्यों तक पहुंचा जा सकता है। इसके साथ ही उन्होंने सविनय अवज्ञा को भी सत्याग्रह के लिए काफी महत्वपूर्ण माना। दरअसल सविनय अवज्ञा शब्द गांधी जी ने हेनरी डेविड थोरो के लेख सविनय अवज्ञा से लिया था। इसके अलावा सत्याग्रही के आत्मा की शुद्धि के लिए उन्होंने उपवास को भी बेहद जरूरी माना।

गांधीजी ने अपनी पुस्तक दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास के प्रस्तावना में ब्रिटिश साम्राज्य से अन्याय के प्रतिकार के रूप में सात लड़ाईयों को सत्याग्रह के सफलता के रूप में प्रस्तुत किया। पहला संघर्ष विरमगाम की जकात से संबंधित था जबकि दूसरा गिरमिट कानून खत्म करने को लेकर था। इसी तरह चंपारण सत्याग्रह- जो भारत में गांधी का पहला सत्याग्रह प्रयोग था- खेड़ा सत्याग्रह, अहमदाबाद सत्याग्रह, रौलेट एक्ट की समाप्ति के लिए सत्याग्रह के साथ-साथ खिलाफत आंदोलन के लिए की गई सत्याग्रह की चर्चा है।

दरअसल, गांधी ने भारत में राजनीतिक आंदोलनों में सत्याग्रह को तीन अलग-अलग रूपों में प्रयोग किया। पहला था असहयोग आंदोलन के दौरान, दूसरा था सविनय अवज्ञा आंदोलन और तीसरा था व्यक्तिगत सत्याग्रह। इन आंदोलनों में सत्याग्रह के हथियार के रूप में गांधी ने बड़े पैमाने पर असहयोग, सविनय अवज्ञा, उपवास, हिजरत, धरना, हड़ताल और सामाजिक बहिष्कार का इस्तेमाल किया।

हर धर्म व्यक्ति को कुछ नैतिक तरीके बताता है और गांधी की सबसे बड़ी खूबी यह रही कि वह उन नैतिक तरीके और प्रश्नों को जन-राजनीति का हिस्सा बना देते थे। इसी खूबी से उन्होंने सत्याग्रह और उसके उद्देश्यों को जन-जन तक पहुंचाया। गांधीजी को इस बात पर दृढ़ विश्वास था कि सत्याग्रह के प्रभाव को कम नहीं आंका जा सकता। दरअसल, आजादी की लड़ाई में सत्याग्रह के प्रयोग पर विरोध के स्वर भी उठे थे। अनेक लोगों का मानना था कि सत्याग्रह के गलत इस्तेमाल हो सकते हैं तो वहीं कई लोग इसे कारगर नीति नहीं मान रहे थे। बावजूद इसके गांधी को सत्याग्रह की ताकत पर विश्वास था और वे उससे कभी विचलित नहीं हुए।

सत्याग्रह अपनी विशेषताओं और नैतिक बाध्यताओं के चलते दुनिया भर में अलग-अलग रूपों में अपनाया गया। खासकर संयुक्त राज्य अमेरिका और पूर्वी योरोप जैसे देशों में। लेकिन समय के साथ लोग विरोध के इस नायाब तरीके को भूलते जा रहे हैं और हिंसा का सहारा प्रमुख होता जा रहा है। आज दुनिया में जहां शांति और स्थिरता सबसे बड़ी चुनौती बनी हुई है, वहीं आगे बढ़ने और विकास का रास्ता सत्याग्रह के मार्ग से ही होकर गुजरता है। लेकिन इस विचारधारा को मानने के लिए मजबूत इच्छाशक्ति और चारित्रिक दृढ़ता वाले लोगों की जरूरत है जो विकट परिस्थितियों में भी सत्य के मार्ग न भटके तभी समावेशी विकास पर आधारित विश्व की कल्पना साकार हो पाएगी।

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