हिन्दी साहित्य सम्राट : मुंशी प्रेमचंद
“साहित्य का उद्देश्य जीवन के आदर्श को उपस्थित करना है, जिसे पढ़कर हम जीवन में कदम-कदम पर आने वाली कठिनाइयों का सामना कर सकें। अगर साहित्य का जीवन से सही रास्ता ना मिले, तो ऐसे साहित्य से लाभ ही क्या?”
जीवन भर अपने कहे इन वाक्यों पर अमल करते हुए कठिन से कठिन परिस्थिति में बिना विचलित हुए साहित्य के गागर को अपनी रचनाओं के सागर से तृप्त करने वाले कालजयी कथाकार, उपन्यास सम्राट और कलम के सिपाही मुंशी प्रेमचंद न केवल हिन्दी साहित्य को आलोकित करते रहे बल्कि देश और समाज को आइना भी दिखाते रहे।
साल 1880 का जमाना...। ब्रिटिश हुकूमत का दौर....। अँगरेज़ और अँगरेज़ी शासन का रुतबा-रुआब...। बेइंतहा शोषण और ग़रीबी का आलम.... ऊपर से जात-पात, बालविवाह, सूदखोरी, छुआछूत जैसी कुरीतियां और अंधविश्वास का बोलबाला...। इसी दौर में बनारस से आजमगढ़ जानेवाली सड़क पर एक गांव आबाद था। नाम था लमही... यह गांव आज भी आबाद है हालांकि इसकी स्थिति पहले से कुछ बदल सी गई है फिर भी आज से करीब चार-पांच साल पहले तक कोई बहुत बड़ा बदलाव नज़र नहीं आ रहा था।
खैर, हम जिस 1880 के जमाने की बात कर रहें हैं तब इस गांव से बनारस के बीच का फासला कोई चार-पांच मील से ज्यादा का नहीं था। गांव में कुर्मियों, कुम्हारों, कुछ ठाकुरों, मुसलमानों के साथ ही कुछ कायस्थों का घर भी था। हालात बेहद कठीन थे और परिस्थितियों से लड़ते-भिड़ते जिंदगी बसर हो रही थी। ऐसे ही स्याह समय में 31जुलाई 1880 को अजायब लाल के घर बेटे का जन्म हुआ। तीन बेटियों के बाद जन्मे इस पुत्र का नाम पिता ने बड़े प्यार से रखा ‘धनपतराय’। ताऊ से नाम दिया ‘नवाबराय’।
सबसे दिलचस्प बात यह है कि आगे चलकर इस बालक को न तो धनपतराय के नाम से जाना गया और न ही नवाबराय के नाम से। इसे शोहरत मिली प्रेमचंद के नाम से.... और शोहरत भी ऐसी कि लमही और बनारस तो क्या, सूबे और मुल्क की सारी सरहदें लांध गई। इनका लिखा फ़कत हिन्दी ही नहीं बल्कि विश्व साहित्य की अनमोल और लासानी धरोहर हो गया।
प्रेमचंद ने अपनी ज़िंदगी में मास्टरी की, संपादकी की लेकिन वे जाने गए कलम के सिपाही तौर पर। प्रेमचंद ने युवावस्था में एकबारगी कलम क्या उठाया, अपनी लेखनी से साहित्य के संसार को प्रकाश पूंज से भर दिया। एक से बढ़कर एक कहानियां लिखी, अनुवाद किया, नाटक लिखा, पत्र-पत्रिकाओं का संपादन किया, कालजयी उपन्यास लिखा, कलम को प्रतिष्ठा दी और साहित्य को नया सरोकार दिया।
साहित्य संसार ने भी कलम के इस अनूठे और बेमिसाल सिपाही को ‘उपन्यास सम्राट’ के ख़िताब से नवाज़ा। इसमें कोई शक नहीं कि प्रेमचंद हिन्दी के श्रेष्ठतम गद्यकार हैं, सर्वकालिक श्रेष्ठतम लेखक हैं। यहीं नहीं वे हिन्दी के सबसे लोकप्रिय, चहेते और प्रतिष्ठित लेखक भी हैं। उनकी कलम का जादू पढ़ने वालों के दिलों को छूता था, आज भी छूता है और युगों-युगों तक यूं ही छूता रहेगा।
प्रेमचंद की ज़िंदगी भी किसी उपन्यास से कम रोचक नहीं है। बचपन में नटखट और शरारती... गांव के बाल-मंडली के तो सरताज... गिल्ली-डंडा खेलने और ढेला फेंकने में माहिर....। आठ साल के हुए तो एक मौलवी साहब के यहां उर्दू-फारसी की तालीम शुरू हुई। उर्दू-फारसी से लगाव तभी इस कदर हुआ कि अंत तक बना रहा। प्रेमचंद ने अपनी कई कहानियों में अपने बचपन के बाल-सुलभ घटनाओं और मर्मस्पर्शी यादों को बड़ी संजिदगी से याद किया है। बचपन तो क्या, प्रेमचंद ने अपने जीवन प्रसंगो, अपने जमाने को, अपने वक्त को अपनी कहानियों और उपन्यासों में बार-बार जिक्र किया है। उनके लेखन में उनका युग विधमान है अपनी सारी त्रासदी और पूरे भाव-एहसास के साथ। मूल रूप से प्रेमचंद को पढ़ना बीसवीं सदी के भारत को जानना है।
वह वक़्त गुलामी का था... हालात बेहद कठिन थे। देश गांधी युग की देहलीज पर था। वक़्त प्रेमचंद को आहिस्ता-आहिस्ता गढ़ रहा था। आठ साल के थे जब मां का निधन हो गया। इसके बाद प्रेमचंद लमही से गोरखपुर पढ़ने के लिए चले गए। गोरखपुर की रावत पाठशाला से 1899 में द्वितीय श्रेणी से ऐंट्रेस की परीक्षा पास की। गोरखपुर में शिक्षा के दौरान ही साहित्य पढ़ने का ऐसा शौक चढ़ा कि तीन-चार सालों में ही सैकड़ों उपन्यास पढ़ डाले। आर्थिक हालात बेहद खराब थे लिहाजा पांच रुपये महीने का ट्यूशन करके अपनी गुजर करते थे। साल 1900 में उन्हें चुनार के मिशन स्कूल में अठाहर रुपये महींने पर अध्यापक की नौकरी मिली लेकिन यह नौकरी बहुत दिनों तक चली नहीं। पांच-छह महीने बाद ही बहराइच के सरकारी स्कूल में बीस रुपये मासिक पर अध्यापक की नौकरी शुरू की। इसके बाद हमीरपुर जिले में शिक्षा विभाग में सब-डिप्टी इंस्पेक्टर हो गए और महोबा में रहने लगे।
प्रेमचंद ने अपनी लेखन की शुरुआत उर्दू भाषा में की। उनकी पहली उर्दू रचना ‘असआरे मआबिद यानि देवस्थान रहस्य’ एक अधूरा उपन्यास है जो 1903 में बनारस की एक उर्दू साप्ताहिक पत्रिका- आवाज़ ए ख़ल्क- में छपा। प्रेमचंद मानते थे कि शायराना हिस यानि रूमानी संवेदनशीलता उनके दिल में है ही नहीं। वे जीवन और लेखन में साफगोई के कायल रहे। किशना, प्रेमा आदि को प्रेमचंद अपनी शुरुआती रचना मानते हैं।
कुल मिलाकर उनके चार शुरुआती उर्दू उपन्यास 1907 तक छप चुके थे। जून 1908 में प्रकाशित उनका पहला उर्दू कहानी संग्रह ‘सोज़ेवतन’ प्रकाशित हुआ जिसमें ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ और चार अन्य कहानियों का संग्रह था। इस कहानी संग्रह के प्रकाशन ने जहां प्रेमचंद के दिल में वतन की आजादी के लिए दबी हुई छटपटाहट को उजागर कर दिया वहीं वे अंगरेज़ी हुकूमत के आँख के किरकिरी बन गए। उन्होंने कहानी ‘दुनिया का सबसे अनमोल रतन’ लिखा कि- ‘खून की वह आख़िरी कतरा जो वतन की हिफाज़त में गिरे वह दुनिया की सबसे अनमोल चीज़ है।‘ इस तरह उन्होंने इसके जरिए जता दिया कि आज़ादी उनकी नज़र में सबसे कीमती चीज़ है। हालांकि अंगेरज़ी हुकूमत की चेतावनी पर प्रेमचंद को सोज़ेवतन की बाकी बची सभी प्रतियों को जलाना पड़ा। तबतक प्रेमचंद नवाबराय के नाम से लिखते थे |
सोज़ेवतन की घटना के बाद अपने मित्र और ज़माना उर्दू मासिक के संपादक मुंशी दयानारायण निगम के सुझाव पर उन्होंने अपना नया नाम प्रेमचंद रख लिया और इस तरह साहित्य की दुनिया में दैदीप्यमान होने वाला नाम प्रेमचंद का जन्म हुआ। इस नए नाम के साथ प्रकाशित होनेवाली पहली कहानी थी ‘बड़े घर की बेटी’। इसके बाद तो देखते ही देखते प्रेमचंद शोहरत की बुलंदियों पर आफ़ताब बनकर चमकने लगे। उनका वक़्त उनकी रचनाओं में व्यक्त हो रहा था। यह उर्दू और फ़ारसी से प्रेमचंद का लगाव ही थी कि उन्होंने सेवासदन, पेमाश्रय और रंगभूमि जैसे उपन्यास पहले उर्दू में लिखे लेकिन वे छपे पहले हिन्दी में। ‘बज़ारे हुस्न’ सेवा सदन के नाम से दिसंबर 1918 में प्रकाशित हुआ तो ‘गोशा-ए-आफ़ियत’ 1921-22 में प्रेमाश्रय के नाम से छपा। इसी तरह ‘चौगाने हस्ती’ 1925 में रंगभूमि के नाम से प्रकाशित हुआ। प्रेमचंद ने हिन्दी में कहानी लिखने की शुरुआत 1914 से की। उनकी पहली हिन्दी कहानी ‘परीक्षा’ हिन्दी अख़बार प्रताप के विजयदशमी के अंक में छपा। इन रचनाओं ने उन्हें उपन्यास सम्राट और कहानी सम्राट के रूप में स्थापित करने में बड़ा योगदान दिया।
दरअसल आज़ादी की आकांक्षा और आंदोलन से लगाव प्रेमंचद की कहानियों-उपन्यासों में बार-बार उजागर होता है। चकमा, बौड़म से लेकर रंगभूमि, कर्मभूमि तक में। 1925 में प्रकाशित महाकाव्यात्मक उपन्यास रंगभूमि में अंधे भिखारी सूरदास को नायक बनाया, जो गांधी के समान धर्म, सत्य और नीति की अहिंसक लड़ाई लड़ते हुए शहीद हो गया।
प्रेमचंद आजादी के आंदोलन और गांधी के विचारों से प्रभावित होकर सरकारी नौकरी से 1926 में इस्तीफ़ा दे दिए। सरकारी मुलाजिम से फ़ारिग होने के बाद तो लेखन और संपादन का अटूट सिलसिला चल पड़ा। मर्यादा और माधुरी का संपादन किया, सरस्वती प्रेस खोला, हंस पत्रिका भी निकाली। इसके बाद तो प्रेमचंद ने अपनी कहानियों और उन्यासों के जरिए जहां देशकाल और समाज के यथार्थ को उजागर किया वहीं अपनी कलम की नोंक से सूदखोर महाजनों, सामंती ज़मिंदारों, शोषक पूंजिपतियों और भ्रष्ट अफ़सरों की बखिया उधेड़ कर रख दी। उन्होंने नमक का दारोगा, पूस की रात, कफ़न और शतरंज के खिलाड़ी जैसी विश्वस्तरीय रचनाए की। वहीं बड़े भाई साहब, ईदगाह, दो बैलों की कथा, पंच-परमेश्वर, गिल्ली-डंडा जैसी कहानियों ने उनकी ख्याति को घर-घर में पुहंचा दिया। उनकी लोकप्रियता ने भाषा और भूगोल की सरहदें लांघ गई। कर्बला नाटक ने उनके सरोकारों को तो दर्शाया ही, उनकी रचनात्मकता को नया आयाम दिया।
जीवन के अंतिम साल में गोदान के साथ ही उनकी लोकप्रियता और रचनात्मकता शिखर पर पहुंच गई। इसके प्रकाशन के साथ ही प्रेमचंद साहित्य के इतिहास में जिवंत किंवदंती बन गए। प्रेमचंद ने मुंबई जाकर फ़िल्मों में भी हाथ आजमाया लेकिन बॉलीवुड की बनावटी दुनिया उन्हें रास न आई और वे दुखी मन से वापस लौट आए। इसके बाद बीमारियों ने उन्हे जकड़ लिया और 8 अक्टूबर 1936 को हिन्दी के इस सबसे बड़े और सबसे ज्यादा लोकप्रिय कथाकार का निधन हो गया।
प्रेमचंद ने अपनी लेखनी से हिन्दी उपन्यास और कहानी को परिपक्वता दी। भारतीय समाज का दुख-दर्द और आम आदमी का जीवन उनके लेखन में पहली बार इतनी विविधता और बारीकी से अभिव्यक्त हुआ। वे मानव-मुक्ति, मानव-समानता और समाज के नए निर्माण के लेखक थे। प्रेमचंद ने कहानी और उपन्यास में नए युग की शुरुआत की। उनके कृतित्व से ‘प्रेमचंद युग’ और ‘प्रेमचंद स्कूल’ की स्थापना हुई।
प्रेमचंद का साहित्य युगों-युगों तक सार्थक बना रहेगा और अपने समय के मनुष्य को, समाज और देश की आत्मा को उन्नति और आगे की राह पर ले जाता रहेगा। उसे अंधकार से प्रकाश की ओर लाता रहेगा और अपनी प्रासंगिकता को अखंडित रूप में बनाए रखेगा।