कर्म और विचार दोनों में अटल थे वाजपेयी
‘जीवन बंजारों का डेरा... आज यहाँ कल कहां कूच है... कौन जानता किधर सबेरा’...
कविता की इन दार्शनिक पंक्तियों में जीवन का फलसफा छुपा हुआ है जिसे अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहा करते थे। बिना किसी भय के पूरी निडरता के साथ भविष्य में घटने वाली हर अनहोनी के लिए तैयार रहना उसे स्वीकार करना किसी सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं होती.... इसीलिए तो विशेष और असामान्य थे अटल बिहारी वाजपेयी.... जिन्होंने अपनी सौम्यता, सहजता और सहृदयता से करोड़ों भारतीयों के दिलों में घर बनाई।
भारत रत्न अटल बिहारी वाजपेयी.... एक ऐसी शख्सियत... जिन्होंने अपनी सारी ज़िन्दगी देश सेवा में लगा दिया। एक ऐसा व्यक्तित्व जिसने अपने जीवन में कई भूमिकाएं निभाईं... चाहे वो राजनेता, प्रधानमंत्री, पत्रकार या कवि की हो... हर भूमिका को बखूबी अंजाम दिया। एक जिंदादिल और संवेदनशील इंसान जिनका व्यक्तित्व जिनता अनोखा था, अल्फाज उतने ही असरदार थे। अपनी वाणी और कविता के जरिए समय, काल और परिस्थिति के हर पहलू को क्या खूब बयां किया उन्होंने। उनकी अंदाज-ए-बयां और देश प्रेम का जज्बा आज भी जेहन में बैठा हुआ है।
“बाधायें आती हैं आएं
घिरें प्रलय की घोर घटायें,
पावों के नीचे अंगारे,
सिर पर बरसें यदि ज्वालाएँ,
निज हाथों में हंसते-हंसते,
आग लगाकर जलना होगा।
कदम मिलाकर चलना होगा।“
सामाजिक चिंतक, मानवता के पैरोकार और इंसानियत के पुजारी अटल बिहारी वाजपेयी सामाजिक समरसता और सौहार्द के पुरजोर समर्थक थे। एक नेता से बढ़कर, बेहतर इंसान... कलम के जादूगर, अपनी बेबाक अन्दाज के लिए मशहूर और हाजिर जवाबी में बेमिसाल अटल बिहारी वाजपेयी ने अपनी दूरदर्शिता और शब्दों के साथ भाषा पर बेजोड़ पकड़ की वजह से राजनीति, साहित्य और समाज के हर क्षेत्र में अमिट छाप छोड़ी। वाजपेयी ने अपनी जिंदगी में कई किरदार निभाए। बतौर प्रधानमंत्री धुर विरोधी भी उनकी व्यक्तित्व के कायल थे। पत्रकार, कवि, राजनेता तो वो थे हीं। लेकिन सबसे बढ़कर एक संजीदा और संवेदनशील इंसान थे। बातों की अदायगी ऐसी कि लोगों पर जादू सा असर डालती थीं।
राजनीति और पत्रकारिता का जीवन
इतिहास के एक लंबे कालखंड को खुद में समेटे अटल बिहारी वाजपेयी का सफर कई मायने में ऐतिहासिक रहा। ये सफर शुरू हुआ 25 दिसंबर 1924 को, जब वे ग्वालियर में पैदा हुए। इसके बाद तो ग्वालियर की गलियों से जनसंघ के संस्थापक तक का सफ़र...। दिल्ली दरबार से संयुक्त राष्ट्र संघ तक का सफर... और बीजेपी के संस्थापक अध्यक्ष से लेकर प्रधानमंत्री तक का सफर। हर सफर अपने आप में बेजोड़ और एक अनोखी दास्तां लिखते हुए गुज़रा। हां, एक बात ये भी रही कि इस पूरे सफर के दौरान हिन्दी प्रेम और राष्ट्रवाद की चमक भी उनके चेहरे पर हमेशा बनी रही।
इस सफ़र के दौरान उन्होंने थोड़े वक्त के लिए पत्रकारिता भी किया और उसमें भी एक अलग छाप छोड़ी। पत्रकार के रूप में वे राष्ट्रधर्म, पांचजन्य, स्वदेश और वीर-अर्जुन में संपादक रहे।
विराट व्यक्तित्व के धनी अटल जी के व्यक्तित्व के कई पहलू थे। राजनीतिक जीवन में वो जितने परिपक्व थे, व्यक्तिगत जीवन में उतने ही दिलचस्प इंसान। उन्होंने अपने सियासी सफर की शुरुआत आजादी की लड़ाई से की थी और 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में जेल भी गए थे। श्यामा प्रसाद मुखर्जी के काफी करीब होने के कारण अटल जी ने अपनी राजनीतिक पारी की शुरुआत जनसंघ से की और जनसंघ के टिकट पर ही पहला चुनाव 1957 में बलरामपुर से जीता। राजनीति को नया मोड़ देने वाले वाजपेयी नौ बार लोकसभा और दो बार राज्य सभा के सदस्य रहे। अपनी राजनीतिक समझ और प्रतिबद्धता की वजह से 1968 में वो जनसंघ के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने और 1973 तक इस पद पर बने रहे।
अनूठी वाक् शैली के धनी थे वाजपेयी
एक राजनेता के रूप में अटल जी के संसद का सफ़र जितना दिलचस्प है उतनी ही जिज्ञासा से भरपूर। उनकी हाज़िरजवाबी और वाणी की ओज पूरे दमखम के साथ संसद में गूंजी। उनके कहे एक-एक शब्द में उनके व्यक्तित्व का जादू झलकता था। उनकी भाषणों को सुनने के लिए हर कोई... चाहे वो आम आदमी हो या संसद के बड़े से बड़े सूरमा हों... सब इंतजार में रहते कि कब अटल जी बोलेंगे। रूक-रूक कर, सोच समझ कर, एक शब्द से दूसरे शब्द के बीच कहीं खोकर.. फिर वापस आकर यैसा कुछ कह जाना कि हर कोई दंग रह जाए। ये कला बाजपेयी के अलावा किसी और के पास नहीं थी।
जब नेहरू वाजपेयी के भाषण पर मंत्रमुग्ध हुए
ये उनके वाक् कला का ही जादू था कि तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने जब पहली बार संसद में बोलते हुए वाजपेयी को सुना था, तब कहा था कि ‘इस लड़के के जिह्वा पर सरस्वती विराजमान हैं।‘ वाजपेयी में देश के भविष्य को देखते हुए उनमें देश के प्रधानमंत्री बनने की क्षमता होने का ऐलान किया था। और ऐसा ही हुआ भी... वाजपेयी ने एक बार नहीं...तीन बार प्रधानमंत्री के रूप में देश की सेवा की।
पांच मिनट में तो आप बाल भी नहीं संवार सकती
संसद की दीवारें इस बात की गवाह है कि, इंदिरा गांधी जब सदन में भाषण दिया करती थीं, तो अटल जी के पास आकर धीरे से पूछती थीं कि, पंडित जी मैंने ठीक से तो बोला ना। जवाब में अटल जी मुस्कुरा देते थे। उनके आदर्श में हर विचारधारा के लोगों का सम्मान था तभी तो कम्युनिस्ट, सोशलिस्ट हर तरह के लोग उनके कायल थे। एक बार इंदिरा गांधी ने सदन में अटल जी की तरफ इशारा करते हुए कहा कि, पंडित जी आपकी पार्टी को तो मैं पाँच मिनट में निपटा सकती हूँ, जवाब में अटल जी ने मुस्कुरा कर कहा कि, पाँच मिनट में तो आप अपने बाल भी नहीं संवार सकती। धुर विरोधी होने के बावजूद अटल जी ने 1971 में बांग्लादेश पर इंदिरा गांधी के कदम को सराहा। साथ ही नरसिंह राव के आर्थिक सुधारों का भी स्वागत किया। ऐसे थे अटल जी। वहीं इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल का जमकर विरोध भी किया।
पहली बार यूएन में हिन्दी गूंजा
अटल जी 1977 से 1979 तक मोरारजी देसाई की सरकार में विदेश मंत्री रहे। इस दौरान दुनिया ने उनके व्यक्तित्व का एक अलग ही रूप देखा। जो एक प्रखर वक्ता होने के साथ-साथ वैश्विक समझ और कूटनीति में भी माहिर था। बतौर विदेश मंत्री अक्टूबर 1977 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिन्दी में बोलते हुए अटल जी ने भारत के वसुधैव कुटुम्बकम के सिद्धांत को पूरी दृढ़ता के साथ रखा और गुटनिरपेक्षता की आवाज को बुलंद किया। यह पहला मौका था जब संयुक्त राष्ट्र के मंच पर हिन्दी में किसी ने भाषण दिया था। यह भी पहली बार था जब दुनिया के सामने अपनी बातों को अपनी भाषा में रखकर अटल जी ने न सिर्फ वैश्विक पटल पर हिन्दी भाषियों को हिन्दी बोलने की हीन भावना से मुक्त किया बल्कि आत्मगौरव और आत्माभिमान से भर दिया।
सूरज निकलेगा और कमल खिलेगा
1979 में जब मोरारजी देसाई की सरकार गिर गई तब अटल जी को भी इस्तीफा देना पड़ा। लेकिन उनके जीवन का असली मोड़ आया साल 1980 में, जब भारतीय जनसंघ पार्टी और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ ने बीजेपी की नींव रखी। यहां से अटल जी को एक नई सियासी रफ्तार मिली। जिसकी पहली धमक 1996 के लोकसभा चुनावों में सुनाई दी। जब करीब चार दशकों तक विपक्ष में रहने और जमीन पर कड़ी मेहनत करने के बाद वो पहली बार देश के प्रधानमंत्री बने।
हालांकि उनका पहला कार्यकाल महज 13 दिन ही चल सका लेकिन सरकार छोड़ते वक्त उनका दिया गया भाषण इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। कौन भूल सकता है उस भाषण को जब वैचारिक उथल-पुथल और व्यक्तिगत स्वार्थ से ऊपर उठकर उन्होंने राजनेताओं समेत पूरे देश को नैतिकता का पाठ पढ़ाया। कौन भूल सकता है उनके कहे इस बात को....
"सरकारें आएंगी, जाएंगी, पार्टियां बनेंगी, बिगड़ेंगी, मगर ये देश रहना चाहिए।"
31 मई 1996 को विश्वास मत के दौरान संसद में दिया गया उनका ये भाषण, भारतीय लोकतंत्र में हमेशा याद किया जाएगा।
प्रधानमंत्री के रूप में दूसरा कार्यकाल
जनता ने दो साल के भीतर ही वाजपेयी जी के हाथ में एक बार फिर से देश की बागडोर सौंपी और 1998 में उनके नेतृत्व में राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए की सरकार बनी। ये सरकार 13 महीने तक चली। प्रधानमंत्री के रूप में उनका दूसरा कार्यकाल कई मायने में ऐतिहासिक रहा।
भारत बना परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्र
यूं तो भारत ने 1974 में ही पहला परमाणु शक्ति परीक्षण कर लिया था लेकिन अंतर्राष्ट्रीय दबाव के कारण भारत अब भी परमाणु शक्ति के क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया था। लेकिन 1998 में अटल जी ने जब दूसरी बार सत्ता संभाली तो पोखरण दो की परीक्षण की इजाजत देकर अपनी राजनीतिक दिलेरी का सबूत दे दिया। अमेरिका समेत तमाम पश्चिमी देशों के विरोध के बावजूद परमाणु परीक्षण हुआ और भारत की गिनती परमाणु शक्ति सम्पन्न राष्ट्रों में होने लगी।
अटल जी के लिए देश सर्वोपरि था और देशहित के लिए वे कभी किसी दबाव में नहीं झुकें। दुनिया ने कितनी ही निगरानी और दबाव बनाया हो लेकिन अटल बिहारी वाजपेयी वो कर गए जो उनसे पहले की सरकारें नहीं कर पाईं।
शांति के दूत थे अटल बिहारी वाजपेयी
अटल जी सही मायने में एक शांति दूत थे। जो अपने चारों ओर प्रेम, सौहार्द और भाईचारे का संदेश फैलाने में विश्वास रखते थे। इसे भाईचारे के संदेश लेकर वो फरवरी 1999 में लाहौर भी गए। तमाम तल्खियों और अविश्वासी पाकिस्तान की दोगली नीति को पीछे छोड़ते हुए उन्होंने अपना हाथ बढ़ाया था लेकिन पाकिस्तान के गलत रवैये के चलते यह सफल नहीं हो सकी। हालांकि लाहौर में दिया गया उनका भाषण पाकिस्तान के लोगों पर एक असर जरूर छोड़ गया।
कारगिल की ऐतिहासिक विजय
अटल जी का दूसरा कार्यकाल भारत-पाकिस्तान के बीच कारगिल युद्ध का गवाह भी बना। जब पाकिस्तान ने भारत के पीठ में खंजर भोंका। लेकिन हमारे वीर सिपाहियों ने पाकिस्तान को चारो खाने चित कर दिया और कई शहादतों के बाद हमें जीत मिली।
सिर्फ नाम के अटल नहीं थे वाजपेयी जी बल्कि कर्म और विचार दोनों से भी अटल थे। तमाम उतार-चढ़ाव और संकट के बीच भी आपसी प्रेम और भरोसे से उनका मन कभी नहीं डोला। जम्हूरियत, इंसानियत और कश्मीरियत का दिया हुआ उनका नारा उनकी इसी नीति को दर्शाता है।
5 साल पूरा करने वाले पहले गैर कांग्रेसी प्रधानमंत्री
अटल बिहारी वाजपेयी को प्रधानमंत्री के तौर पर 5 साल का अपना कार्यकाल पूरा करने का मौका 13वीं लोकसभा चुनाव के बाद मिला। वाजपेयी 1999 से 2004 तक देश के प्रधानमंत्री रहे और केंद्र में पहली बार किसी गैर-कांग्रेसी सरकार ने 5 साल का कार्यकाल पूरा किया। अटल जी अपने प्रधानमंत्रित्व कार्यकाल में स्वर्णिम चतुर्भुज योजना, दूरसंचार क्रांति, सर्व शिक्षा अभियान से लेकर संविधान समीक्षा आयोग के गठन जैसे अनेक ऐसे महत्वपूर्ण नीतियों को शुरू किया जिसका भारतीय समाज और राजनीति पर दूरगामी परिणाम देखने को मिला।
साहित्य और कविता से प्रेम
राजनीति अगर उनके व्यक्तित्व का एक पहलू था तो साहित्य और कविता से प्रेम दूसरा पहलू। कॉलेज जीवन से ही साहित्य से अगाध लगाव रखने वाले वाजपेयी ने अपनी कविताओं के जरिए युवाओं में देश प्रेम और अपार जोश का संचार किया। यही वजह थी एक तरफ एक राजनेता के तौर पर अपनी भाषणों के लिए जितना सराहे गए उतना ही प्यार उनकी कविताओं को भी मिला। उनकी कविताएं उनके व्यक्तित्व के पहचान के साथ ही भूत, भविष्य और वर्तमान के प्रति उनके नज़रिए को भी प्रस्तुत करती हैं। उनकी कविता संग्रह ‘मेरी इक्यावन कविताएं’ के नाम से प्रकाशित हुई जिसे साहित्य प्रेमी और युवा आज भी बेहद चाव से पढ़ते हैं।
मनानंतर नहीं मतांतर में विश्वास
मतांतर को स्वीकार्य और मनांतर को नकारने वाले अटल बिहारी वाजपेयी का सम्पूर्ण राजनीतिक जीवन बेदाग और साफ-सुथरा रहा। अटल जी ने हर जिम्मेदारी को पूरी इमानदारी से निभाया। कोमल हृदय के धनी वाजपेयी ने हर मौके पर राजनीतिक मजबूती का परिचय दिया। चाहे देश का मुद्दा हो या विदेशी सरोकार से संबंधित मामला...हर बार बड़ी ही बेबाकी और साफगोई से अपनी राय रखी। अपनी इन्हीं विशेषताओं की वजह से सभी दलों और समुदाय से ताउम्र उन्हें भरपूर सम्मान मिला।
मौत को ललकारने वाले प्रधानमंत्री
मौत से निडर और बेखौफ अटल जी ने अपने निधन से पहले ही मौत को ललकारते हुए कहा था।
“मैं जी भर जिया, मैं मन से मरूँ
लौटकर आऊँगा, कूच से क्यों डरूँ?”
कितने लोगों की हिम्मत हो सकती है इस तरह की पंक्तियां कहने की। इसीलिए तो अटल बिहारी वाजपेयी सबसे अलग और अटल हैं।
गिरते स्वास्थ्य की वजह से अटल बिहारी वाजपेयी ने 2009 में सक्रिय राजनीति से इस्तीफा ले लिया था। 2015 में उन्हें भारत रत्न से सम्मानित किया गया। और आखिर में जो अटल सत्य है वो अटल जी के साथ भी घटा और 16 अगस्त 2018 को वो इस दुनिया से अलविदा हो गए। भले हीं अटल बिहारी वाजपेयी आज हम सब के बीच नहीं हैं लेकिन उनके शब्द, उनके भाषण, उनके विचार और समाज के लिए किए गए उनके काम हमेशा हमारे साथ रहेंगे... और उनका ओजस्वी, तेजस्वी और यशस्वी व्यक्तित्व हमेशा देश के लोगों का मार्गदर्शन करता रहेगा।