महाकुम्भ: सांस्कृतिक विरासत का महापर्व ( Part-1)

अश्वमेध सहस्राणि वाजपेय शतानि च।
लक्षप्रदक्षिणा भूमेः कुम्भस्नानेन तत् फलम्।।
यानी, एक हजार अश्वमेध यज्ञ, सौ वाजपेय यज्ञ और एक लाख बार धरती की परिक्रमा करने का जो पुण्य-फल प्राप्त होता है, वह कुम्भ पर्व के अवसर पर पतित पावनी भागीरथी गंगा के जल में एक बार ही स्नान करने से प्राप्त हो जाता है।
गोस्वामी तुलसीदास ने भी कहा हैं-
माघ मकरगति जब रवि होई। तीरथपतिहिं आव सब कोई॥
देव, दनुज, किन्नर नर श्रेनी। सादर मज्जहिं सकल त्रिवेणी॥
यानी, त्रिवेणी के पवित्र जल में स्नान करके देवता भी धन्य हो जाते हैं। माघ में जब सूर्य मकर राशि पर जाते हैं, तब सब लोग तीर्थराज प्रयाग को आते हैं। देवता, दैत्य, किन्नर और मनुष्यों के समूह सब आदरपूर्वक त्रिवेणी में स्नान करते हैं।
कुम्भ... जहाँ गंगा में डुबकी लगाने भर से मुक्ति का मार्ग प्रशस्त हो जाता है और मोक्ष की प्राप्ति होती है। जहां स्नान कर सभी अनंत काल तक के लिए धन्य हो जाते हैं...और इस स्नान का महत्व सिर्फ श्रद्धालुओं और साधु-संन्यासियों के लिए ही नहीं है बल्कि देवताओं के लिए भी पवित्र है।
इस तरह कुम्भ आदि को अनादि से जोड़ने वाला, मुक्ति और मोक्ष का मार्ग प्रशस्त करने वाला सनातन संस्कृति की एकतारूपता का अमीयकुम्भ है।
सनातन संस्कृति का महापर्व है कुम्भ
वास्तव में कुम्भ सर्वधर्म सम्भाव का वह अमृत पर्व है जहां कुल, गोत्र, जाति विलिन हो जाते हैं और केवल गुणों की चर्चा ही एकमात्र सर्वत्र रह जाती है। जिस प्रकार गंगा-यमुना के संगम पर सरस्वती अंत: सलिला होकर मिलती है उसी प्रकार विभिन्न विचारधारा के व्यक्ति इन पवित्र नदियों के घाटों पर मिलकर एक ही भाव के सूत्र में बंध जाते हैं।
आम जन-मानस के हृदय पटल पर कुम्भ की छवि इतनी गहराई से अंकित है कि सदियों से इस पर्व पर एकत्रित होने के लिए न तो किसी को निमंत्रण, न किसी को बुलावा और न ही किसी से कोई अनुरोध किया जाता है। बावजुद इसके जब भी कुम्भ का आयोजन होता है तब भक्ति-भाव में डूबे देश और दुनिया से करोड़ो श्रद्धालुओं का जन सैलाब खुद ब खुद उमड़ पड़ता है।
इस पर्व पर हिमालय और कन्याकुमारी की दूरी सिमट जाती है। अरुणाचल प्रदेश और कच्छ एक-दूसरे के पास आ जाते हैं। इसका आकर्षण ऐसा है कि दूर से और पास से, गांव से और नगरों से, झोपड़ियों से और महलों से लोग कुंभ नगरी मे सिमटते चले आते हैं। इनकी भाषा, वेश, रंग-ढंग सभी एक दूसरे से भिन्न होते है लेकिन इनका लक्ष्य एक ही होता है... मंजिल एक ही होती है... कुम्भ मेले में शामिल होना और पवित्र नदी में डुबकी लगाना.....।
इनमें पुरुष और स्त्रियां.... बच्चे और बुजुर्ग.....संन्यासी और गृहस्थ.... धनवान और धनहीन...सभी शामिल होते हैं, और सभी एक ही भावना और एक ही सांस्कृतिक समरसता से ओतप्रोत भी होते हैं। देश की अनेकता में एकता के बीच एकरसता के इस महान संगम को आदि शंकराचार्य ने एक ऐसा सुगठित रूप प्रदान किया जो पिछले हजारों वर्षों से इस देश को उत्तर से दक्षिण और पूरब से पश्चिम तक एक मजबूत एकता के सूत्र में बांधे हुए है।
कुम्म का इतिहास और देवासुर संग्राम
कुम्भ का शाब्दिक अर्थ होता है घड़ा या कलश। इस कलश का संबंध साधारण कलश से न होकर अमृत कलश से है और इसी अमृत कलश का आधार है कुम्भ महापर्व। वहीं मेला का अर्थ होता है किसी एक स्थान पर एकजुट होना, शामिल होना या फिर विशेष रूप से सामुदायिक उत्सव में उपस्थित होना। इस तरह कुम्भ मेले का अर्थ- एक सभा और मिलन से है, जो अमरत्व का अमृत है।
भारतीय सनातन संस्कृति में कुंभ विश्वास, आस्था, सौहार्द और संस्कृतियों के मिलन का सबसे बड़ा पर्व है।
यूं तो कुम्भ मेले का आयोजन प्राचीन काल से हो रहा है लेकिन कुम्भ मेले की शुरुआत कब हुई और किसने किया, इसकी कोई ठोस जानकारी उपलब्ध नहीं है। कुम्भ मेले का पहला लिखित प्रमाण चीनी बौद्ध यात्री ह्वेनसांग के लेख से मिलता है, जिसने छठवीं शताब्दी में सम्राट हर्षवर्धन के शासन में होने वाले कुंभ का वर्णन किया है। इस लिहाज से भी कुम्भ का इतिहास दो हजार साल पुराना है।
पैराणिक मान्यताओं के अनुसार कुम्भ की शुरुआत समुद्र मंथन से हुई। एक बार इन्द्र ने महर्षि दुर्वासा को नाराज कर दिया। इससे क्रोधित होकर महर्षि दुर्वासा ने देवताओं को श्राप दे दिया, जिसके कारण देवता कमजोर पड़ गए। देवताओं के कमजोर होने से राक्षसों ने उन्हें हरा दिया। इससे दुखी होकर सभी देवता भगवान विष्णु के पास गए। विष्णुजी ने उन्हें असुरों के साथ मिलकर समुद्र मंथन करने की सलाह दी और कहा कि समुद्र मंथन से जो अमृत निकलेगा उसे पी कर सभी देवता अमर हो जाएंगे।
देवताओं ने असुरों के राजा बलि को समुद्र मंथन के लिए तैयार किया। इस मंथन में वासुकि नाग की नेती बनाई गई और मंदराचल पर्वत की सहायता से क्षीरसागर को मथा गया था। समुद्र मंथन में 14 रत्न निकले थे। इनमें सबसे आखिर में धनवंतरि अपने हाथ में अमृत कलश लेकर निकले थे। जब अमृत कलश निकला, तब इन्द्र के पुत्र जयंत उसे लेकर स्वर्ग लोक की तरफ भाग निकले। राक्षसों ने पीछा कर जयंत को चार जगह पकड़ लिया। इसके बाद अमृत कलश पाने के लिए देवताओं और असुरों में युद्ध हुआ। इस युद्ध के दौरान कलश से अमृत की बूंदे चार स्थानों- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन- में गिरी थी। अमृत के प्रताप से इन चारों तीर्थों की नदियां- गंगा, यमुना, सरस्वती, शिप्रा और गोदावरी- अमृतमयी हो गई। यही कारण है कि कुम्भ मेला इन चार जगहों पर ही हर 12 वर्ष के अंतराल पर एक बार लगता है।
यह घटना भारतीय जनमानस में अमिट हो गई और कालान्तर में संस्कृति का अजस्र प्रवाह बनकर हम सभी को अपने अतीत से जोड़ते हुए पुण्य और मोक्ष के मार्ग पर आगे ले जा रही है।
12 वर्ष बाद ही क्यों होता है कुम्भ का आयोजन?
अमृत कलश पाने के लिए देवताओं और दानवों में 12 दिनों तक निरंतर युद्ध हुआ था। जिसमें देवता विजयी रहे। शास्त्रों के मुताबिक देवताओं के बारह दिन मनुष्यों के बारह वर्ष के बराबर होते है। इसीलिए पूर्ण कुम्भ का आयोजन भी प्रत्येक बारह वर्ष में ही होता है। चुकि अमृत की बूंदें चार अलग-अलग स्थानों पर गिरी थीं, इसलिए कुम्भ मेले का आयोजन भी इन चार स्थानों पर ही बारी-बारी से आयोजित होता है और इनका क्रम चारों स्थानों पर हर तीन साल बाद आता है।
इसे ऐसे समझिए कि जैसे अभी प्रयागराज में कुम्भ मेले का आयोजन हो रहा है, तो अब इसके तीन साल बाद उज्जैन में, उसके अगले तीन साल बाद हरिद्वार में और फिर अगले तीन साल बाद नासिक में कुम्भ का आयोजन होगा। उसके तीन वर्ष बाद फिर से प्रयागराज में पूर्ण कुम्भ का आयोजन होगा। इस तरह अलगा पूर्ण कुम्भ मेला प्रयागराज में 12वें साल लगेगा। इसी तरह हरिद्वार, नासिक या उज्जैन में 12वें वर्ष कुम्भ मेले का आयोजन होगा।
हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन में ही क्यों लगता है कुम्भ मेला?
समुद्र मंथन से निकले अमृत कलश को पाने के लिए जब देवताओं और राक्षसों के बीच युद्ध हो रहा था, तब कलश की खींचा तानी में चंद्रमा ने अमृत को बहने से बचाया, वृहस्पति ने कलश को छुपाया, सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इंद्र के कोप से रक्षा की।
इस तरह सारे नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका कुंभ में महत्वपूर्ण मानी जाती है।
इसी आधार पर जिस समय में चंद्रादिकों ने कलश की रक्षा की थी, उस समय की वर्तमान राशियों पर रक्षा करने वाले चंद्र-सूर्यादिक ग्रह जब-जब आते हैं, तब-तब कुंभ का योग बनता है अर्थात जिस वर्ष, जिस राशि पर सूर्य, चंद्रमा और बृहस्पति का योग होता है उस वर्ष, उसी राशि के योग में, जहाँ-जहाँ अमृत की बूंदे गिरी थीं वहाँ-वहाँ कुम्भ पर्व मनाया जाता है... और ये चार जगह है- हरिद्वार, प्रयाग, नासिक और उज्जैन।
ग्रहों की चाल से कैसे जुड़ा है कुम्भ?
हरिद्वार, प्रयागराज, नासिक और उज्जैन में आयोजित होने वाले कुंभ की स्थिति विशेष होती है और इनके आयोजन स्थल का चुनाव ग्रहों की विशेष स्थिति के अनुसार ही तय किया जाता है। दरअसल कुम्भ मेला का आयोजन तभी किया जाता है जब ग्रहों की स्थिति वैसी ही बनती है जैसी अमृत छलकने के दौरान हुई थी। इस लिहाज से
जब वृहस्पति, मेष राशि चक्र में प्रवेश करते हैं और सूर्य और चंद्र मकर राशि में आ जाते हैं तब प्रयागराज में त्रिवेणी के संगम के तट पर कुम्भ का आयोजन होता है।
वहीं, जब वृहस्पति कुंभ राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब हरिद्वार में गंगा के तट पर कुम्भ का आयोजन किया जाता है।
इसी तरह जब सूर्य और वृहस्पति सिंह राशि में स्थित होते हैं तब कुम्भ का आयोजन नासिक में गोदावरी नदी के तट पर किया जाता है। और
जब वृहस्पति सिंह राशि में और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करते हैं तब उज्जैन में शिप्रा नदी के तट पर कुम्भ का आयोजन होता है।
चूकि उज्जैन और नासिक में कुंभ के दौरान वृहस्पति ग्रह सिंह राशि में होता है इसलिए उज्जैन और नासिक के कुम्भ को सिहंस्थ कुम्भ भी कहते हैं।
कुम्भ, अर्धकुम्भ, पूर्ण कुम्भ और महाकुम्भ में क्या है अंतर?
कुम्भ मेले के अलावा अर्धकुम्भ, पूर्ण कुम्भ और महाकुम्भ मेले का आयोजन भी होता है।
अर्ध कुम्भ मेला का मतलब है आधा कुम्भ। इसका आयोजन हर 6 साल बाद केवल दो स्थानों पर ही होता है। हरिद्वार और प्रयागराज में।
जबकि पूर्ण कुम्भ 12 साल में एक बार लगता है। पूर्ण कुम्भ केवल प्रयागराज में आयोजित होता है। पूर्ण कुम्भ को भी महाकुंभ कहते हैं।
कुम्भ और पूर्ण कुम्म में अंतर यह है कि कुम्भ का आयोजन चार स्थानों पर होता है लेकिन पूर्ण कुम्भ का आयोजन केवल प्रयागराज में ही होता है।
इसी तरह महाकुम्भ मेला का आयोजन भी सिर्फ प्रयागराज में किया जाता है। यह प्रत्येक 144 वर्षों में या 12 पूर्ण कुम्भ मेले के बाद आता है।
प्रयागराज महाकुम्भ में क्या है खास?
2025 में प्रयागराज में आयोजित कुम्भ मेला हर मामले में अनोखा और अद्भूत है। 13 जनवरी से 26 फरवरी तक पूरे 45 दिनों तक चलने वाला आस्था का यह महाकुम्भ मानवता का अमूल्य धरोहर है, जो तीर्थयात्रियों, कल्पवासियों और स्नानर्थियों का अनूठा संगम है। जहां आरती, स्नान, कल्पवास, दीपदान, त्रिवेणी संगम पर परिक्रमा के साथ भक्ति भाव में डूबे श्रद्धालुओं द्वारा भक्ति गीत, भक्ति नृत्य, आध्यात्मिक कथाओं पर विभिन्न मंचन, वेद मंत्र उच्चारण और प्रार्थनाओं का सुंदर समागम... न केवल कुम्भ की महानता को दर्शता है बल्कि उसे दिव्यता और भव्यता भी प्रदान करता है।
प्रयागराज महाकुम्भ में शाही स्नान कब-कब है?
वैसे तो कुम्भ में हर दिन स्नान का पुण्य मिलता है। लेकिन शाही स्नान यानी अमृत स्नान का महत्व सबसे ज्यादा है। प्रयागराज महाकुम्भ में कुल छह प्रमुख स्नान है। इनमें से तीन शाही स्नान यानी अमृत स्नान है और तीन प्रमुख स्नान है। प्रयागराज महाकुम्भ में स्नान की जो मुख्य तिथियां हैं वे हैं-
13 जनवरी 2025 को पौष पूर्णिमा के दिन पहला प्रमुख स्नान है। पौष पूर्णिमा कल्पवास की शुरुआत का प्रतीक भी है।
वहीं, 14 जनवरी 2025 को मकर संक्रांति के दिन पहला शाही स्नान यानी अमृत स्नान है। यह दिन महाकुम्भ मेले में दान-पुण्य की शुरुआत का प्रतीक है।
29 जनवरी 2025 को मौनी अमावस्या के दिन दूसरा शाही स्नान का आयोजन है। मौनी अमावस्या के दिन का विशेष महत्व है क्योंकि यह माना जाता है कि इस दिन स्नान करने से सारे पाप धुल जाते हैं। इसके बाद
महाकुम्भ में तीसरा शाही स्नान 3 फरवरी 2025 को बसंत पंचमी के दिन है।
शाही स्नान के अलावा 12 फरवरी 2025 को माघी पूर्णिमा के दिन भी स्नान के लिए काफी शुभ दिन है। यह दिन साधु-संन्यासियों की एक महीने की तपस्या अवधि की समाप्ति का प्रतिक है।
महाकुम्भ का आखिरी महत्वपूर्ण स्नान 26 फरवरी 2025 को महाशिवरात्रि के दिन है। महाकुम्भ का अंतिम दिन महाशिवरात्री होता है जो भगवान शिव के विवाह का प्रतीक है और आध्यात्मिक विकास के लिए एक महत्वपूर्ण दिन है।
प्रयागराज में आयोजित महाकुंभ मेला पृथ्वी पर सबसे बड़ा मानव समागम है। देश और दुनिया आए 40 करोंड से ज्यादा श्रद्धालु प्रत्यक्ष रूप से इस पवित्र समागम के साक्षी बनेंगे। इस महाकुंभ का आयोजन इतना बड़ा है कि अंतरिक्ष यात्री अंतरिक्ष से भी श्रद्धालुओं की भीड़ को देख सकते हैं।
दरअसल महाकुम्भ अध्यात्म से कही बढ़कर संस्कृतियों, परंपराओं और भाषाओं का जीवंत मिश्रण है, जहाँ लघु भारत परिलक्षित होता है। कुम्भ की विशालता और भव्यता को देख कर ही 2017 में यूनेस्को ने कुम्भ मेले को मानवता की अमूर्त सांस्कृतिक सूची में स्थान दिया।
आस्था और विश्वास के इस अटूट बंधन महाकुम्भ से जुड़ी अनेक विलक्षण बातों की चर्चा करेंगे इस कार्यक्रम के दूसरे पार्ट- महाकुम्भ: सांस्कृतिक विरासत का महापर्व, में.... बताएंगे सर्वव्यापी कुम्भ के साथ अखाड़े और नागा साधुओं का क्या हैं संबंध...अखाड़ों की पेशवाई और शाही स्नान के बीना क्यों अधूरा है कुम्भ...कल्पवास, दीपदान और त्रिवेणी संगम पर परिक्रमा का क्या है महत्व...।