सर्वव्यापी कुम्भ क्यों है अद्वितीय? (Part -2)

आस्था, विश्वास, मोक्ष, परंपरा, संस्कृति, पवित्र स्नान, प्रवचन, सत्संग, वैज्ञानिक और आध्यात्मिक दृष्टिकोण के साथ ही भारतीय इतिहास और सनातन परंपरा की अद्भुत छटा को खुद में समेटे... दुनिया का सबसे बड़ा सार्वजनिक समागम और सांस्कृतिक विरासरत का महापर्व कुम्भ मेला की हर बात अनोखी और निराली है। जो इसे महज धार्मिक आयोजन से कही बहुत आगे और ऊंचा ले जाता है।
लेकिन जो बात इस कुम्भ को सबसे अलग और अनूठा बनाती है... वो है कुम्भ मेले में शामिल होने वाले अखाड़ों का समूह... नागा साघुओं का भजन-कीर्तन और ध्यान....किन्नर अखाड़े का इसमें शामिल होना.... योगी और वैष्णव संतों का आना...दांडी संन्यासियों की सहभागिता... पाप से मुक्ति के लिए कल्पवास पूजा... कुम्भ में अखाड़ों की पेशवाई....और शाही स्नान... जब अखाड़े से जुड़े साधु-सन्यासी और नागा साधु, अमृत धारा में डुबकी लगाते हैं। कुम्भ के ये मनोरम दृश्य उसे अलौकीक और दिव्य बना देते हैं।
एक नदी, एक तट दर्जनों घाट... जहां सैकड़ों जातियां अपने हर अहम-वहम को भूलाकर सनातन संस्कृति की नदी रूपी अमृत धारा में स्नान कर मोक्ष और मुक्ति को प्राप्त करते हैं।
हालांकि कुम्भ मेले में शाही स्नान का नाम बदलकर ‘अमृत स्नान’ कर दिया गया। वहीं अखाड़ों की पेशवाई का नाम भी बदलकर ‘नगर प्रवेश’ कर दिया गया है।
अखाड़ों का कुम्भ से क्या है संबंध?
अखाड़े कुम्भ का अभिन्न अंग हैं। अखाड़ों की सांस्कृतिक इतिहास कुम्भ मेले के बिना पूरा नहीं हो सकत। ये दोनों एक दूसरे से ऐसे गुंथे हैं जैसे फूल और खुशबू....।
महाकुंभ में अखाड़ो और उनके साधु-संतों की उपस्थिति श्रद्धालुओं के लिए विशेष आकर्षण का केंद्र होती है। करोड़ों लोगों की भीड़ के बीच ये दिव्य व्यक्तित्व मानों आध्यात्मिक ऊर्जा का संचार करते हैं। सही मायने में अखाड़ों और उनके साधु-संतों की उपस्थिति के बिना कुम्भ अधूरा है।
अखाड़ा शब्द का शाब्दिक अर्थ कुश्ती का मैदान होता है, लेकिन इसका सांस्कृतिक और आध्यात्मिक महत्व इससे कहीं अधिक है। माना जाता है कि अखाड़ा प्रणाली की शुरुआत 8वीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य ने की थी। जिसका उद्देश्य हिंदू धर्म की रक्षा के लिए शस्त्र और शास्त्र में निपुण साधुओं का एक ऐसा संगठन बनाना था, जो किसी भी बाहरी आक्रमण से हिंदू धर्म और संस्कृति की रक्षा कर सकें। चुकी इन साधुओं का अपना कोई पारिवारिक बंधन नहीं होता था जिससे वे मोह-माया से दूर रहकर अपने धर्म के लिए समर्पित रहते थे।
इसके लिए शंकराचार्य ने देश के चार कोनों में चार धाम या पीठ की स्थापना की। ये चार धाम हैं बद्रीनाथ, द्वारका, रामेश्वरम और जगन्नाथ पुरी...। समय के साथ शंकराचार्य द्वारा स्थापित यह परंपरा फैलती गई और शुरू में जहां 4 अखाड़े थे, वही धीरे-धीरे बढ़कर इनकी संख्या 13 हो गई। जहां साधु-संतों को शास्त्र और शस्त्र दोनों की शिक्षा-दीक्षा दी जाने लगी।
एकता के प्रतीक कुम्भ में शामिल अखाड़े
अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद से जुड़े और मान्यता प्राप्त वर्तमान में कुल 13 अखाड़े हैं। इनमें एक किन्नर अखाड़ा भी है जो जूना अखाड़े से जुड़ा हुआ है। ये 13 अखाड़े तीन मतों में बंटे हुए हैं- शैव, वैष्णव या बैरागी और उदासीन।
13 अखाड़ो में से 7 अखाड़े शैव सम्प्रदाय से जुड़े हैं जिनमें जूना, आह्वान, अग्नि, निरंजनी, आनंद, निर्वाणी और अटल अखाड़ा शामिल है।
वहीं, 3 अखाड़े वैष्णव सम्प्रदाय से संबंधित हैं। इनमें निर्मोही, दिगंबर और निर्वाणी अनी अखाड़े शामिल हैं।
जबिक 3 अखाड़े उदासीन संप्रदाय से है इनमे बड़ा उदासीन, नया उदासीन और निर्मल अखाड़ा आते हैं।
इन सभी अखाड़ों में जूना अखाड़ा सबसे बड़ा है।
शैव अखाड़े के साधु भगवान शिव के उपासक होते हैं। वहीं वैष्णव अखाड़े से जुड़े सभी उपासक भगावन विष्णु के उपासक होते हैं। जबकि उदासीन अखाड़े से जुड़े उपासक मुख्य रूप से गुरु नानक की शिक्षाओं का अनुसरण करते हैं।
ये अखाड़ें सामाजिक व्यवस्था, एकता और संस्कृति के साथ नैतिकता के प्रतिक हैं। सामाज में आध्यात्मिक मूल्यों को स्थापित करना ही अखाड़ों का मुख्य उद्देश्य हैं। इन अखाड़ों की एक बड़ी जिम्मेदारी सामीजिक जीवन में नैतिक मूल्यों की स्थापना करना भी है। अलग-अलग संगठनों में बंटे होने के बावजूद ये अखाड़े एकता के प्रतीक हैं।
नागा संन्यासियों की अनोखी दुनिया
सनातन संस्कृति का सुंदर-सलोना स्वरूप देखना हो तो नागा संन्यासियों की दुनिया देखिए... जो कुम्भ मेले के सबसे बड़े आकर्षण होते हैं। बाहर से इनका दिगंबर वेश जहां लोगों को असहज करता है तो भीतर से इनकी मढि़यां शक्ति केंद्रों के रूप में काम करती हैं। कुम्भ में इन नागा साधु-संतों के अद्भुत और निराले रूप देखने को मिलते हैं, जो हर किसी में कौतुहल पैदा करता है।
नागा सन्यासी आकाश को अपना वस्त्र मानते हैं, शरीर पर भभूत मलते हैं, दिगंबर रूप में रहना पसंद करते हैं और युद्ध कला में उन्हें महारथ हासिल होती है। आदि शंकराचार्य द्वारा स्थापित परंपरा का पालन करते हुए ये नागा साधु अलग-अलग अखाड़ों में रहते हैं।
नागा संन्यासी बनने की प्रक्रिया बेहद कठिन और लंबी होती है। नए सदस्यों की नागा पंथ में शामिल होने की प्रक्रिया में करीब छह साल लग जाते हैं। इस दौरान उन्हें सिर्फ एक लंगोट में रहना पड़ता है। कुंभ मेले में अंतिम प्रण लेने के बाद वे लंगोट का भी त्याग कर देते हैं और फिर ताउम्र दिगंबर ही रहते हैं। नागा बनने से पूहले सभी अखाड़े अपने नागा सदस्य की अच्छी तरह जांच-पड़ताल करते हैं, उसके बाद ही उन्हें अखाड़े में प्रवेश दिया जाता है। नागा बनने से पहले उन्हें लंबे समय तक ब्रह्मचर्य में रहना होता है और फिर उन्हें महापुरुष और अवधूत बनाया जाता है। अंतिम प्रक्रिया का निर्वाह कुंभ के दौरान होता है। इसमें उसका स्वयं का पिंडदान, दंडी संस्कार आदि किया जाता है। पुरुषों के अलावा कुछ महिलाएं भी नागा साधु होती हैं जो गेरुवा वस्त्र धारण करती हैं। मन से मीरा दिखने वाली ये महीला नागा साधु तन से किसी लक्ष्मीबाई से कम नहीं होती हैं।
ऐसा माना जाता है कि अखाड़े और इनमें रहने वाले साधु संत सिर्फ आध्यात्मिक कार्यों में लीन रहते हैं, लेकिन इतिहास में ऐसे कई युद्धों का उल्लेख मिलता है, जिनमें हजारों नागा योद्धाओं ने हिस्सा लिया। हालांकि आजादी के इन अखाड़ों ने अपना सैन्य चरित्र त्याग दिया और सनातन के प्रचार-प्रसार और अध्यतात्म में लग गए।
नागा संन्यासियों को लेकर कई तरह की किवंदतियां और भ्रांतियां भी समाज में फैली हुई हैं। मसलन ये बहुत ही ज्यादा क्रोधी होते हैं और बात-बात पर हिंसा पर उतारू हो जाते हैं लेकिन हकीकत में ऐसा बिलकुल नही हैं। शरीर पर भभूत धारण किए हुए नागा साधु जब धर्म और आध्यात्म की गूढ़ बातें बताते हैं तो देखने-सुनने वाले दंग रह जाते हैं।
एक आम धारणा यह भी है कि नागा साधु किसी मजबूरी में बनते हैं और ये ज्यादा पढ़े-लिखे नहीं होते हैं। लेकिन यह बात नागा साधुओं पर बिलकुल भी लागू नहीं होती है। अनेक आखाड़ों से जुड़े ज्यादातर नागा साधु सामान्य लोग नहीं हैं बल्कि डॉक्टर, इंजीनियर और उच्च शिक्षा प्राप्त होते हैं, जो सनातन की डोर से खिंचे चले आए और महाकुम्भ में धुनी रमाते हैं। कई नागा साधु तो बडे-बड़े प्रोफेशनल इंस्टीट्यूट में विशेष लेक्चर भी देते है। ये महाकुम्भ के दौरान नागा रूप में रहते हैं और कुम्भ के समाप्त होने पर सामान्य जीवन जीते हैं।
क्या होती है कुम्भ में पेशवाई?
कुम्भ मेले का एक बड़ा आकर्षण है अखाड़ों की पेशवाई यानी शोभायात्रा...। जिसका नाम बदलकर अब नगर प्रवेश कर दिया गया है। सनातन की रक्षा के लिए समर्पित ये अखाड़े जब अपने-अपने ध्वज-पताका, बैंडबाजा के साथ अपने आराध्य की पालकी लेकर जुलूस निकालते हुए कुम्भ मेले में प्रवेश करते हैं तब इनकी भव्यता और रंग-बिरंगी छटा देखकर हर कोई मोहित हो जाता है। इस दौरान लाखों श्रद्धालु इन शोभायात्राओं में भाग लेकर संतों का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। दरअसल यह शोभायात्रा या पेशवाई अखाड़ों की आस्था और शक्ति का प्रतीक है।
कुम्भ में क्यों निकाली जाती है शाही पेशवाई?
दरअसल, किसी भी अखाड़ें के लिए पेशवाई बहुत खास होती है। जिसमें साधु-संत शाही रूप में राजा महाराजों की तरह हाथी, घोड़ों और रथों पर बड़े-बड़े भव्य सिंहासनों पर बैठकर कुम्भ मेले में प्रवेश करते हैं और जनता रास्ते भर उनका स्वागत और सम्मान करती है।
इस दौरान अखाड़े अपने वैभव और शक्ति का प्रदर्शन भी करते हैं। अपनी पेशवाई के दौरान अखाड़े के साधु संत हाथी, घोड़े, ऊंट, अस्त्र, शस्त्र के साथ भव्य जुलूस लेकर कुंभ क्षेत्र में प्रवेश करते हैं।
दरअसल आजादी से पहले जब-जब सनातन धर्म, उसकी संस्कृति और देश की रक्षा पर संकट आया, तब-तब राजा-महाराजों के आग्रह पर साधु-संतों ने धर्म प्रचार के साथ-साथ हाथ में तलवार उठाकर भी धर्म, संस्कृति और देश की रक्षा भी की। तभी से जहाँ भी कुम्भ का आयोजन होता था, वहाँ साधु संतों को राजा महाराजा अपने रथ हाथी घोड़ों पर शाही तरीके से कुंभ में पेश कराते थे। चुकि पहले राजाओं को पेशवा भी कहा जाता था, इसलिए संतों के कुंभ में प्रवेश को पेशवाई कहा जाने लगा... और यह ऐतिहासिक परंपरा सदियों से चली आ रही है और आज भी पूरे शान-ओ-शौकत के साथ जारी है।
कुम्भ में शाही स्नान का क्या है महत्व?
कुम्भ मेले की हर बात अनोखी और निराली है। इसकी सनातनी परंपरा का एक मुख्य आकर्षण है शाही स्नान... जिसका नाम बदलकर अब ‘अमृत स्नान’ कर दिया गया है। कुम्भ मेले के शाही स्नान का अपना महत्व होता है। शाही स्नान यानी किसी खास समय पर नदी के पवित्र जल में साधुओं द्वारा स्नान करना है। ऐसा माना जाता है कि कुम्भ का यह स्नान जन्म और मृत्यु चक्र से मुक्ति दिलाता है और समस्त पापों को धो डालता है। शाही स्नान की शुरुआत 14वीं से 16वां शताब्दी के बीच हुई।
शाही स्नान के दौरान सबसे पहले नागा साधु और प्रमुख संत स्नान करते हैं। ये संत सोने-चांदी की पालकियों, हाथी, घोड़े पर बैठकर स्नान के लिए आते हैं। बोलचाल में इसे ‘राजयोग स्नान’ भी कहते हैं। इसे ‘प्रथम स्नान अधिकार’ भी कहा जाता है। शाही स्नान के बाद ही श्रद्धालु स्नान करते हैं।
हालांकि पहले शाही स्नान करने को लेकर अखाड़ों के बीच लंबे समय तक विवाद भी रहा। इसे देखते हुए अंग्रेजों के शासनकाल में अखाड़ों की सहमति से इसकी व्यवस्था की गई कि कुम्भ के दौरान कौन सा अखाड़ा सबसे पहले शाही स्नान करेगा। तब से यही व्यवस्था चली आ रही है।
इस परंपरा के अनुसार प्रयागराज में होने वाले महाकुम्भ और अन्य कुम्भ के दौरान सबसे पहले पंचायती महानिर्वाणी अखाड़े को शाही स्नान की अनुमति है। वहीं हिरद्वार में कुम्भ लगने पर निरंजनी अखाड़ा सबसे पहले स्नान करता है। जबकि उज्जैन और नासिक में जब भी कुम्भ मेला लगता है तो जूना अखाड़े को सबसे पहले शाही स्नान करने की अनुमति है।
महाकुम्भ में जो भी अखाड़ा सबसे पहले शाही स्नान करता है, तब उस अखाड़े के महंत या सर्वोच्च पदासीन महामंडलेश्वर सबसे पहले पानी में उतरते हैं और अपने अखाड़े के इष्ट देव को सबसे पहले स्नान करवाते हैं। इसके बाद खुद स्नान करते हैं और फिर अखाड़े के अन्य साधु-संन्यासी स्नान करते हैं।
इसके बाद बारी-बारी से सभी 13 अखाड़ों के नागा साधु स्नान करते हैं। नाग साधुओं के स्नान करने के बाद ही अन्य लोगों को स्नान करने की इजाजत दी जाती है।
आजादी के बाद अखाड़ों के शाही स्नान का क्रम अखिल भारतीय अखाड़ा परिषद तय करती है। यह परिषद, मंडलायुक्त, जिला मजिस्ट्रेट, और मेलाधिकारी की मेला समिति से सलाह-मशविरा करके शाही स्नान और पेशवाई के जुलूस के लिए तारीख़ और समय तय करती है।
कौन करते हैं कुम्भ में कल्पवास?
कुम्भ मेले के पवित्र गाथा में एक महत्वपूर्ण उत्सव है कल्पवास.... कल्पवास कुम्भ मेले की विशालता के भीतर एक आध्यात्मिक यात्रा का सफर है, जो साधकों को भक्ति, तपस्या और आध्यात्मिक जागृति की खोज में गहराई तक जाने का अवसर प्रदान करती है।
कल्पवास एक प्रकार का व्रत है जिसमें साधक या व्यक्ति एक निश्चित अवधि के लए विशेष नियमों का पालन करते हुए साधना करता है। कुम्भ मेले के दौरान श्रद्धालु संगम के तट पर निवास करते हुए वेदों का अध्ययन और ध्यान करते हैं। ऐसी मान्यता है कि कल्पवास करने से व्यक्ति के सभी पाप नष्ट हो जाते हैं और उसे मोक्ष की प्राप्ती होती है।
बहते जल में दीपों की चमक और आसमान में रात के समय चमकते तारों के बीच जब श्रद्धालु अपने अराध्य में खो जाते हैं तब परम आध्यात्म का एक अनोखा वातावरण बनता है। आस्था, विश्वास और सांस्कृतिक एकता का यह महापर्व अपनी विराटता लिए करीब 50 दिन इसी तरह पूरा करता है। जिसे हम सब महाकुम्भ कहते है।
कुम्भ प्राचीन काल से मध्य-आधुनिक समेत आने वाले काल में भी सनातन और आर्य संस्कृति की एकता का अमृतरूपी ऐसा प्रवाह है, जो सदियों से बहता आ रहा है और शताब्दियों तक प्रवाहमान रहेगा।