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वास्को डी गामा और काली मिर्च: पहला यूरोपीय जिसने भारत के लिए समुद्री मार्ग ढूंढा। Part-1

वास्को डी गामा की भारत यात्रा

वो 8 जुलाई 1497 का दिन था। भारत से करीब 12 हजार मील दूर पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन से चार मील दूर रेस्टेलो नगर में एक अलग ही तरह का नजारा था। पुर्तगाल के राजा समेत रेस्टेलो के सभी निवासी चर्च में प्रार्थना कर रहे थे। जब प्रार्थना पूरी हुई तो पूरा शहर उस समुद्र तट पर उमड़ पड़ा... जहां एक 28 साल का साहसी नाविक रेस्टेलो से भारत के लिए यात्रा की शुरुआत करने वाला था। उस भारत की, जो अपनी समृद्धि और बेशकीमति मसालों के लिए दुनिया भर में मशहूर था। जिसे खोजने के लिए निकला इटली निवासी क्रिस्टोफर कोलबंस भटकते -भटकते 1492 में अमेरिका पहुंच गया था।

यूरोपवासियों के लिए भारत तब तक एक पहेली ही बना रहा जब तक कि पुर्तगाली कालीकट तक पहुंच नहीं गए। दरअसल यूरोप के लिए भारत का समुद्री रास्ता ढूंढना एक ऐसी पहेली थी जिसे सुलझाने के दरम्यान यूरोपियनों ने बहुत कुछ पाया। हालांकि यह भारत की खोज नहीं थी, भारत से तो वो पहले ही परिचित थे। ये तो उस मार्ग की खोज थी जिससे उनका भविष्य बनने वाला था।

इस भविष्य को संवारने के लिए ही उस 28 साल के नौजवान ने तीन महादेशों, दो महासागरों और अरब सागर जैसे अंजान और खतरनाक समुद्रों को पार कर भारत तक पहुंचने के लिए समुद्र रास्तों का पता लगाने का बिड़ा उठाया था।

इस बात से बेपरवाह कि इन समुद्री रास्तों में उसे अनगिनत जानलेवा चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा..अनेक छोटी-मोटी लड़ाईयां लड़ने पड़ेगी। उसे तो बस हिंद महासागर, अरब सागर और लाल सागर के जरिए होने वाले मसालों के व्यापार पर पुर्तगाल का आधिपत्य जमाने के तरीकों और पूरब में ईसाईयों का पता लगाने का धुन सवार था।

दरअसल, उस समय भारत और पूरब को लेकर यूरोप में कई तरह की भ्रांतियां प्रचलित थीं। उनमें से एक यह थी कि अफ्रीका में, कहीं अंदर दक्षिण में एक सोने की नदी बहती है..शायद उनका मतलब भारत से ही था जिसकी समृद्धी की प्रसिद्धी पहले ही व्यापारियों और धुमंतू यात्रीयों के जरिए यूरोप तक पहुंच चुकी थी।

इन्ही भ्रांतियों में एक भ्रांति ये भी थी कि पूरब में कही एक प्रेस्टर जॉन नाम का राजा रहता है जो ईसाई है और अकूत संपत्ति का मालिक है। पूर्तगालियों का भरोसा था कि ये राजा भारत का राजा है
और इसीलिए उस साहसी नाविक के यात्रा के उद्देश्यों में यूरोप से भारत तक समुद्री रास्ता का पता लगाना और मसालों के व्यापार पर एकाधिकार करने का तो था ही, साथ में पूरब में ईसाईयों का पता लगाना भी था।

इस कठिन सफर के दौरान... रास्ते में अज्ञात समुद्र में चलने वाले भीषण तूफानों और अंजान भू-भागों में रहने वाले जगंली और आदिवासी लोगों से उसके और उसके साथियों को भारी विरोध का सामना करना पड़ा.... इस दौरान कई बार वे मौत के मुंह में जाते-जाते बचे, लेकिन उन्होंने हिम्मत नहीं हारी और अपार संघर्ष के बाद बाहर भी आए।

यात्रा के दौरान हुए असहनीय कष्ट, जानलेवा बीमारी और नीरसता के कारण जहाज के पोतवाहक ऊब जाते थे। रास्तें में हुई अनगिनत परेशानियों और मुश्किलों से तंग आकर उस साहसी नाविक के अनेक साथी इतने अधीर हो गए थे कि बीच रास्तें से ही वे स्वदेश लौटने की जिद करने लगे। कई बार तंग आकर उन्होंने विद्रोह तक कर दिया....लेकिन अपने सपने को साकार करने की जिद में जहाज के उस कप्तान ने अपने साथियों के विद्रोह का कड़ाई से दमन करते हुए अपनी यात्रा को जारी रखा। औऱ तमाम मुश्किलों, झंझावातों को पार करते हुए आखिरकार मई 1498 में भारत के दक्षिण-पश्चिम तट पर स्थित कालीकट बंदरगाह पर पहुंच ही गया। उस समय कालीकट दुनिया के सर्वश्रेष्ठ व्यापारिक बंदरगाहों में से एक था।

यह यात्रा कितनी मुश्किल रही होगी, इसका अंदाजा आप इसी से लगा सकते हैं कि स्वदेश लौटने से पहले ही उस जहाज पर सवार दो तिहाई लोगों की मौत हो चुकी थी। यहां तक कि जहाज पर सवार उस साहसी कप्तान के सगे भाई ने भी बीच में ही दम तोड़ दिया। और अंत में केवल पचास साथियों के साथ वह कप्तान पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन पहुंचा।

लेकिन अपनी इस असंभव सी यात्रा से उस साहसी नाविक ने एक इतिहास रच दिया। दुनिया के लिए एक ऐसे नए समुद्री रास्ते को खोंज निकाला, जिससे दुनिया तब तक अंजान थी। इस बात का श्रेय उस साहसी नाविक को ही जाता है जिसने मानव इतिहास में पहली बार यूरोप और भारत के बीच समुद्री मार्ग की खोज की। उसकी इस खोज ने दुनिया के दो महाद्वीपों को काफी करीब ला दिया... । वह साहसी नाविक और कोई नहीं पुर्तगाल निवासी-  वास्को डी गामा-  था।

वास्तव में वास्को डी गामा की यह यात्रा जितनी ऐतिहासिक थी उतनी ही रोमांच और चुनौतियों से भरपूर भी। दरअसल वास्को डी गामा से पहले जितने भी यूरोपीयन भारत आए थे वे सब के सब जमीन के रास्ते यानी थलमार्ग से आए थे। वास्को डी गामा पहला यूरोपीय था जो समुद्री मार्ग से भारत आया। इस तरह वास्को डी गामा दुनिया का पहला व्यक्ति बन गया, जिसने यूरोप और भारत के बीच समुद्री मार्ग ढूंढने में सफलता पाई।

वास्को डी गामा की इस सफलता के दूरगामी परिणाम निकले। उसकी इस खोज ने यूरोप के अनगिनत यात्रियों, व्यापारियों और साम्राज्यवादियों को भारत आने के लिए नया रास्ता दिखा दिया। जिसने भारत समेत दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में यूरोप के वर्चस्व का एक नया अध्याय शुरू कर दिया...।

वास्को डी गामा की इस ऐतिहासिक यात्रा की हर चुनौती, रोमांच और उसके परिणाम की बात करेंगे आगे... फिलहाल ये जानते हैं कि भारत आने से पहले वास्को डी गामा की पृष्ठभूमि क्या थी?

वास्को डी गामा का जन्म 1460 ईस्वी में पुर्तगाल के साइनेस नगर में हुआ था। उसके पिता एस्तैवाओ पुर्तगाल के अलम्तेजो प्रांत के राज्यपाल थे। गामा के बचपन के बारे में बहुत जानकारी नहीं मिलती है लेकिन युवावस्था में उसने पुर्तगाल के नौसेना में काम किया था और इसलिए सामुद्रिक मामलों और जहाजों के संचालन का उसे पूरा ज्ञान था। यही वजह थी कि जब पुर्तगाल का राजा मैनुअल यूरोप से भारत तक समुद्री मार्ग का पता लगाने के लिए अपने समुद्री बेड़े को तैयार कर रहा था तो काफी खोज बीन के बाद उसने वास्को डी गामा को उसका कैप्टन नियुक्त किया।

करीब पांच सौ साल पहले वास्को डी गामा ने भारत और यूरोप के बीच एक नए मार्ग की खोज की थी। उसने यूरोप के लोगों को भारत के बारे में नया ज्ञान दिया था। इससे यूरोप और भारत के बीच एक नया संबंध स्थापित हुआ था और इसके कारण वैश्विक जगत में संबंधों का एक नया सिलसिला शुरू हुआ। हालांकि इसका मतलब यह नहीं था कि वास्को डी गामा से पहले यूरोप के लोग भारत के बारे में कुछ जानते ही नहीं थे।

आज से करीब ढ़ाई हजार साल पहले हिरोडोटस, डायटोरस, स्ट्रोवो और प्लूटार्क जैसे मशहूर यूनानी इतिहासकारों ने अपनी किताबों में भारत का जिक्र किया है। यूरोप के लोग भारत के वैभव से आकर्षित होकर यहां आते रहते थे। 326 ईस्वी पूर्व सिकंदर भी भारत आया था। तीसरी सदी ईस्वी पूर्व यूनान का निवासी मेगास्थनीज भी भारत आया था, और यहीं रहकर इंडिका नामक पुस्तक भी लिखी।

ईसा की पहली सदी में रोमन साम्राज्य और भारत के दक्षिण राज्यों के बीच अच्छा व्यापार होता था। हालांकि मध्य युग में कुछ समय के लिए यह व्यापर रूक गया था लेकिन यूरोप के लोगों में भारत को लेकर कौतुहल हमेशा बना रहा। यह जिज्ञासा तब और बढ़ गई जब 13वीं, 14वीं सदी में भारत आए अनेक यूरोपीय यात्रियों ने वापस लौटकर वहां के लोगों को भारत के वैभव के बारे में बताया। उन्होंने भारत में प्रचूर मात्रा में पाई जाने वाली बहुमूलय धातुएं, हीर-मोती, सोना, जवाहरात, रेशमी वस्त्र, हाथी के दांत और मसालों के बारे में बताया। इन वस्तुओं की यूरोप के बाजारों में बहुत ही ज्यादा मांग थी और इनके व्यापार में यूरोपीयन व्यापारियों को मोटा मुनाफा होता है।

भारत में पाई जाने वाली इन बेशकीमति धातुओं की बात सुनकर उसे पाने के लिए यूरोप के व्यापारी और वहां के राज्य मचल उठे। वे हर कीमत पर उसे पाने की कोशिश करने लगे।

लेकिन इन बहुमूल्य धातुओं के अलावा एक और चीज भी थी जिसने यूरोप वासियों को भारत आने के लिए लालायित कर दिया... वह थी केरल में होने वाली काली मिर्च...। काली मिर्च यूरोपवासियों के भोजन को स्वादिष्ट बनाता था। हर मौसम में नमक और काली मिर्च से तैयार किए गए गोश्त को वे बड़े ही चाव से खाते थे। इसके चलते काली मिर्च का यूरोप के कुलीन और धनी परिवारों में काफी मांग थी और वे उसे पाने के लिए कोई भी कीमत देने को तैयार थे। काली मिर्च के व्यापार में व्यापारियों को हद से ज्यादा मुनाफा होता था। काली मिर्च के व्यापार में होने वाले इस मुनाफे ने यूरोप के व्यापारियों में एक अलग ही ललक पैदा कर दिया था। जिसे उसे प्राप्त करने के लिए वो हर संभव जोखिम उठाने के लिए तैयार रहते थे। इसे हासिल करने के लिए उन्होंने तूफानी समुद्रों की यात्रा की, युद्ध लड़े और अनेक यातनाएं भी झेली।

दरअसल वास्को डी गामा के भारत पहुंचने से पहले भारत और अरब के व्यापारी यहां की काली मिर्च फारस की खाड़ी या लाल सागर के जरिए यूरोप के व्यापारियों तक पहुंचाते थे। वहां लेकर जाकर वे काली मिर्च और अन्य मसाले यूरोप के व्यापारियों को बेच देते थे जो इन्हें भूमध्य सागर के जरिए ले जाकर यूरोप के बाजारों में बेंच देते थे और जमकर मुनाफा कमाते थे।

व्यापार का यह क्रम कई शताब्दियों तक बिना किसी रोक-टोक के चलता रहा। यूरोप के लोगों को यह अच्छी तरीके से पता चल चुका था कि काली मिर्च कहां मिलती है। लेकिन 15वीं सदी के मध्य में जब यूरोपीय राज्यों और तुर्की के बीच युद्ध छिड़ गया और 1453 में जब तुर्की ने पूर्वी रोमन साम्राज्य की राजधानी कस्तुनतुनिया (जिसे वर्तमान में इस्ताबुल कहते हैं) पर कब्जा कर लिया, तो व्यापार का यह मार्ग एकतरह से बंद हो गया। यह युद्ध ढ़ाई सौ वर्षों तक चलता रहा।

चूकि पश्चिमी एशिया के प्रदेशों पर तुर्की का कब्जा था और ये प्रदेश भारत और यूरोप के बीच व्यापार के माध्यम थे। तुर्की ने इन इलाकों पर कब्जा करने के बाद इस रास्ते से होने वाले व्यापार पर प्रतिबंध लगा दिया। इसका परिणाम यह हुआ कि सदियों से यूरोप के व्यापारियों को मिलने वाली भारतीय वस्तुएं दुर्लभ हो गईं। इससे यूरोप में हाहाकार मच गया। चोरी छिपे जो भारतीय वस्तुएं यूरोप पहुंचती भी थीं तो उनकी कीमतें आसमान छूने वाली होती थीं। फ्रांस और इंग्लैंड के बाजारों में तो ये वस्तुएं चार-चार सौ गुना ज्यादा कीमत देने पर भी नहीं मिल पाती थीं। तब यूरोप के लोगों के मन में भारत के लिए नया मार्ग खोजने की इच्छा प्रबल हो गई और इसके बाद से इस नए मार्ग की तालाश में यूरोपीय राज्य पूरी तरह से जुट गए।

इस तरह इस नए समुद्र मार्ग को खोजने का सिलसिला चल पड़ा... जिसके लिए वास्को डी गामा से पहले अनेक साहसी और उत्साही नाविकों ने प्रयास किया। लेकिन पहली सफलता वास्को द गामा को ही मिली। हालांक यह सफलता इनती आसान भी नहीं थी, अंजान समुद्र में उठने वाली तूफानी लहरों से जहाज को डूबने से बचाना, गुमनाम द्वीप के निवासियों के आक्रमण से खुद को बचाना और समुद्र की लहरों से टकराकर टूटते जहाजों का मरम्मत करते हुए आगे बढ़ना किसी दिवास्पन से कम नहीं था। महीनों-महीनों तक बीच समुद्र में रहना और दूर-दूर तक धरती का कोई किनारा नहीं दिखना, कितना भयानक और डरावना होगा। इसकी बस कल्पना ही की जा सकती है। कैसे इन चुनौतियों से पार पाते हुए वास्को डी गामा और उसके साथियों ने अपने सफर को पूरा किया... बताएंगे वास्को डी गामा की भारत निमित इस पहले जहाजी यात्रा की कहानी..  इस एपिसोड के दूसरे पार्ट में...

क्रमश:

 

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