वास्को डी गामा और केप ऑफ गुड होप: आशाओं का अंत लेकिन नई उम्मीदों की शुरुआत | Part-2
पुर्तगालियों के भारत आने का मुख्य उद्देश्य तो समुद्री व्यापार पर कब्जा जमाना था लेकिन इसके साथ ही उनके और भी कई उद्देश्य थे जो वो इसके जरिए पूरा करना चाहते थे। इनमें से एक उद्देश्य धर्मयुद्ध भी था। जो उन दिनों यूरोप से शुरू होकर अरब सागर तक फैला हुआ था। दरअसल पुर्तगाली अरबी मुसलमानों को भारत से होने वाले व्यापार में से भागा देना चाहते थे ताकि भारत से जो सोना और मसाले अरब के व्यापारी अपने साथ ले जाते थे उसे पुर्तगाली अपने साथ यूरोप ले जा सकें। और यह काम एक नाविक के बस की नहीं थी। इसके लिए एक शातिर, दृढ़ योद्धा, कूटनीतिज्ञ और जुझारू जहाजी की जरूरत थी और वास्को डी गामा इसके लिए हर तरह से फिट था।
वास्को डी गामा भारत क्यों और कैसे आया? प्रोग्राम के इस दूसरे पार्ट में हम बात करेंगे समुद्री मार्ग का पता लगाने के लिए पुर्तगाली शासकों के प्रयत्न, नाविक के रूप वास्को डी गामा की खोज और वास्को डी गामा के जहाजी यात्रा की...जो अपने आप में बेहद रोमांचक है।
यह एक तरह से शुरुआती विफलताओं के बावजूद पुर्तगालियों के लिए एक नई उम्मीद की शुरुआत भी थी।
यूं तो यूरोप के कई शहर समुद्री तट पर बसे हैं लेकिन यूरोप से भारत तक समुद्री मार्ग का पता लगाने की मुहिम की शुरुआत के लिए पुर्तगाली बंदरगाह लिस्बन की भौगोलिक स्थिति यूरोप के अन्य बंदरगाहों में सर्वश्रेष्ठ थी। साथ ही पुर्तगाल के शासकों ने नौसेना और समुद्री खोज की इस मुहिम में बढ़चढ़ हिस्सा भी लिया और अपने नाविकों को हर तरह का सहयोग भी दिया।
इस प्रयास में सबसे पहले प्रमुख भूमिका निभाने वाला पुर्तगाली शासक था प्रिंस हेनरी... जो 1420 से 1460 के बीच करीब चालीस सालों तक भारत पहुंचने के लिए समुद्री मार्ग खोजने की योजनाएं बनाता रहा और इसके लिए लगातार प्रयासरत भी रहा। इसी बीच सन 1454 में पोप निकोलस पंचम ने प्रिंस हेनरी को भारत के प्रदेशों को खोजने का एकाधिकार दे दिया। इसके बाद प्रिंस हेनरी और जोर-शोर से अपने अभियान में जुट गया। समुद्री अभियानों में उसकी रूचि और योगदान के कारण ही उसे – हेनरी द नेवीगेटर- कहा गया।
हालांकि अपने प्रयासों में अनेक बार पुर्तगाली शासकों को असफलता भी हाथ लगी... लेकिन इसके बावजूद उन्होंने न ही अपनी उम्मीदें छोड़ीं और न ही हिम्मत हारी। हेनरी द नेवीगेटर और उसके बाद के पुर्तगाली शासक लगातार इस कोशिश में जुटे रहे और अफ्रीका के पश्चिमी तट और उससे होकर भारत तक समुद्री मार्ग की खोज के लिए लगातार नाविक अभियान भेजते रहे।
इन अभियानों के दौरान ही साल1481 में डैम जोआओ द्वितीय पुर्तगाल का राजा बना। जिसे जॉन द्वीतीय भी कहा जाता है। उसे सिर्फ अफ्रीका से मिलने वाले सोने से संतोष नहीं था। वह भारत के मसालों पर भी एकाधिकार जमाना चाहता था। इसके लिए उसने दो समुद्री दल भेजे। एक दल ‘बार्थोलोम्यू डियाज’ के नेतृत्व में और दूसरा ‘पेरो डी कोविल्हम’ के नेतृत्व में। इसमें ‘बार्थोलोम्यू डियाज’ का दल चौदह सौ किलोमीटर की लंबी और कठिन समुद्री यात्रा तय कर अगस्त 1487 में अफ्रीका के दक्षिणी किनारे के अंतिम छोर तक पहुंच गया। उस समय तक वह जगह ‘उग्र अंतरीप यानी केप ऑफ स्टॉर्म्स’ कहलाता था। क्योंकि उसमें ऊंची-ऊंची लहरें उठती थी और भारी तूफान आते रहते थे। इसलिए उसे पार करना नाविकों के लिए काफी कठिन था। केप ऑफ स्टॉर्म्स तक पहुंचने के बाद बार्थोलोम्यू के जहाज में खाने के लिए रखा रसद खत्म हो चुका था। भूख से व्याकुल और परेशान जहाज पर सवार उसके साथियों ने वापस लौटने की जिद कर दी। इस वजह से बार्थोलोम्यू भी इसे पार नहीं कर पाया। लेकिन उसकी इस यात्रा से एक उम्मीद की किरण जरूर जग गई कि जब यहां तक पहुंचा जा सकता है तो इससे आगे भी जाया जा सकता है। लिहाजा उसने केप ऑफ स्टॉर्म्स का नाम बदल कर – केप ऑफ गुड होप- यानी ‘आशा की अंतरीप’ रख दिया। अब अफ्रीका का दक्षिणी छोर और भारत तक पहुंचने का रास्ता मिल चुका था।
इसी बीच राजा जॉन द्वीतीय का निधन हो गया और 1495 में डैम मैनुअल पुर्तगाल का राजा बना। अपने पूर्वजों की भांति उसे भी इस तरह के समुद्री अभियान और भारत तक पहुंचने के लिए समुद्री रास्ता खोजने में काफी इंटरेस्ट था। अपने इस लगाव के कारण मैनुअल ने यह घोषणा कर दी कि किसी भी कीमत पर भारत तक पहुंचने का समुद्री मार्ग ढूंढना है और यह उसका अंतिम निर्णय है। हालांकि मैनुअल के इस निर्णय का शाही सलाहकारों ने विरोध भी किया, लेकिन मैनुअल अपने निर्णय पर अडिग रहा और आखिरकार उसे सफलता भी मिली। इसके लिए उसे ‘भाग्यशाली’ राजा भी कहा गया।
मैनुअल के इस निर्णय के बाद उस ऐतिहासिक समुद्री यात्रा की आखिरी तैयारी शुरू हो गई जो विश्व के भूगोल और भविष्य दोनों में एक नया अध्याय लिखने वाला था।
प्रिंस मैनुअल अब उस साहसी नाविक की खोज में जुट गया जो अफ्रीका को लांघता हुआ, अटलांटिक महासागर को पार करता हुआ, अरब सागर होता हुआ भारत तक पहुंचे और एक नए समुद्री मार्ग की खोज करे। काफी खोजबीन और तलाश के बाद प्रिंस मैनुअल ने इस काम के लिए वास्को डी गामा का चयन किया और वास्को डी गामा को कैप्टन मेजर का पद दिया।
चूकि वास्को डी गामा की यात्रा से पहले के सारे प्रयास असफल हो चुके थे। इस बार क्या होगा? सभी के मन में यह चिंता थी। किसी को कुछ नहीं पता था। लेकिन वास्को डी गामा और उसके साथियों के मन में संकल्प दृढ़ था। वास्को डी गामा की इस यात्रा की सफलता के लिए पूरे पुर्तगाल में जगह-जगह प्रार्थनाएं की गईं। वास्को डी गामा और उसके साथियों ने यात्रा शुरू करने से पहले की रात पुर्तगाल की राजधानी लिस्बन से चार मील दूर रेस्तैलो के चर्च में प्रार्थना करते हुए गुजारा। अगले दिन शनिवार 8 जुलाई 1497 को वहीं से अपने-अपने जहाजों पर सवार होकर वास्को डी गामा और उसके साथी भारत के लिए रवाना हुए। उन्हें विदा करने के लिए बड़ी संख्या में पुर्तगाली बंदरगाह पर इकट्ठा हुए थे।
चूकि यह रास्ता काफी लंबा, कठिन और दुरूह था। इसलिए चार मजबूत जहाजों का बेड़ा तैयार कराया गया था और इस बेड़े का निर्देशक वास्को डी गामा को ही बनाया गया था। ये चारो जहाज उस समय के सबसे बढ़िया जहाजों में से एक थे। उनमें से दो मध्यम आकार के तीन मस्तूलों वाले जहाज थे जिनका वजह 120 टन था। जबकि तीसरे जहाज का वजन 50 टन था। चौथा जहाज भंडार पोत था जो सबसे हल्का और छोटा था। इन चार जहाजों के अलावा उनके साथ एक पांचवा जहाज भी था जो केप वर्दी द्वीप तक उनके साथ गया था। इस पांचवें जहाज का कप्तान बार्थोलोम्यू डियाज था जो पहले ही केप ऑफ गुड होप तक घुम आया था। जैसा कि आप सभी जान चुके हैं कि बार्थोलोम्यू ने ही केप ऑफ गुड होप की खोज की थी।
इस बेड़े का सबसे अच्छा जहाज साओ गैब्रिएल था जो वास्को डी गामा को दिया गया था। उसका पायलट पेरो डी अलैंकर था। गैब्रियल, बार्थोलोम्यू के साथ केप ऑफ गुड होप तक पहले भी यात्रा कर चुका था।
बेडे का दूसरा जहाज था साओ राफेल। जिसका नेतृत्व वास्को डी गामा ने अपने भाई पाओलो डी गामा को सौंपा था। उसका पायलट जोआओ डी कोइंब्रा था, जो एक निग्रो था।
वहीं, तीसरा जहाज बेरिओ था जो काफी तेज चलने वाला जहाज था। बेरिओ का कप्तान निकोलो कोएल्हो था। और चौथा जहाज जो सबसे छोटा था उसमे खाने-पीने के लिए जरूरी सामान रखा गया था।
साओ गैब्रिएल और साओ राफेल विशेष रूप से इस यात्रा के लिए ही बनाए गए थे। इन जहाजों पर दूरबीनें लगाई गई थीं और रास्ते में किसी खतरे से निपटने के लिए गोला दागने वाली तोपें भी रखी गई थीं। साथ ही इन पर बंदूकें और गोला-बारूद भी पर्याप्त मात्रा में रखा गया था।
जहाज के कैप्टन, पायलट और अधिकारियों को लोहे का कवच दिया गया था जबकि साधारण नाविकों को तीर-कमान, भाले, कुल्हाड़ियां, तलवारें आदि दी गई थीं।
रसद-पानी वाले जहाज के अलावा अन्य जहाजों में भी खाने-पीने की समाने थी, साथ ही उनमें भेंट देने के लिए और विदेशों से सामान खरीदने के लिए वस्तुएं रखी गई थीं। खाने-पीने का सामान इस हिसाब से रखा गया था कि वह नाविकों के लिए अगले तीन वर्ष तक चल सके।
इस लंबी समुद्री यात्रा की सुविधा के लिए वास्को डी गामा के जहाजों को उस समय के सबसे अधिक विकसित वैज्ञानिक साधनों से सुसज्जित किया गया था।
इन जहाजों पर सवार पायलट और नाविकों का चुनाव काफी सोच समझकर किया गया था। ज्यादातर उन्हे लिया गया था जिन्हें समुद्र और समुद्री यात्राओं का अनुभव हो। इनमें से अधिकतर का चुनाव वास्को डी गामा ने खुद ही किया था। इनमें पुर्तगाल में मौजूद उस दौर के अनेक बेहतरीन नाविक शामिल थे। वास्को डी गामा के जहाज पर तीन द्वीभाषीय भी थे जो अरबी के साथ अन्य भाषाओं के भी जानकार थे। इस तरह कुल मिलाकर इस यात्रा के लिए वास्को डी गामा के साथ 170 व्यक्ति थे।
8 जुलाई 1497 को यात्रा की शुरुआत करते हुए वास्को डी गामा का बेडा अटलांटिक महासागर के दक्षिण की ओर बढ़ चला। एक हफ्ते तक समुद्र में लगातार यात्रा करने के दौरान वास्को डी गामा का बेड़ा कैनरी द्वीप पार करते हुए 16 जुलाई को तेरा अल्ता पहुंचा।
तेरा अल्ता में एक दिन के लिए पहला पड़ाव डाला गया। लेकिन अगले दिन तेरा अल्ता से चलने के साथ ही समस्याओं की शुरुआत भी हो गई। जिस दिन वास्को डी गामा का बेड़ा तेरा अल्ता से चला उसी दिन रात को समुद्र में भयानक तूफान आया। सुबह हुई तो पता चला कि रात के अंधेरे में चारो जहाज भटक कर एक-दूसरे से अलग हो गए हैं।
अलगे कई दिनों तक वे एक-दूसरे को नहीं मिले। तूफान में बिछड़ने के बाद वास्को डी गामा का भाई पाओलो डी गामा अपना जहाज लेकर कई दिनों की यात्रा के बाद 22 जुलाई को केप वर्दी द्वीप पहुंच गया। यह उनलोगों में पहले से तय था कि अगर किसी कारण वश जहाज बिछड़ जाएं तो उन्हें लेकर केप वर्दी द्वीप पहुँच जाना है। वहाँ पाओलो को अपने बेड़े के दो अन्य जहाज दिख गए लेकिन वास्को डी गामा के जहाज का अभी भी कोई अता-पता नहीं था।
पाओलो, वास्को डी गामा के जहाज के इंतजार में केप वर्दी द्वीप में ही रुका रहा है और करीब 10 दिनों के बाद उसे वास्को डी गामा का जहाज दिखाई दिया। सभी के सकुशल होने पर उन लोगों ने बंदूकें चलाकर और दुंदुभी बजाकर खुशी मनाई।
इसके बाद आगे की यात्रा शुरु हुई और 27 जुलाई को वे साओ थियागो द्वीप पहुंचे। जैसे-जैसे वास्को डी गामा का जहाज दक्षिण की ओर अटलांटिक महासागर में बढ़ता गया, यात्रा कठिन से कठिनतम होती चली गई। समुद्र की लहरें विकराल और तूफानी हो रही थी, जहाज लहरों के साथ गोता खा रहे थे। पाल फड़फड़ा कर गिर रहे थे। साओ थियागो से करीब साढ़े तीन हजार मील लगातार चलने के बाद वास्को डी गामा के जहाज का ध्वजपोत लहरों और तूफानों से टकराकर टूट गया। बीच समुद्र में घटी इस घटना से जहाज पर सवार नाविक खौफ से भर गए। लगा अब तो जीवन खत्म। जहाज की गति काफी धीमी हो गई। दूर-दूर तक समुद्र का कोई किनारा नजर नहीं आ रहा था। कहीं कोई द्वीप या जमीन भी दिखाई नहीं दे रही थी। ऐसी स्थिति में उनके पास आगे बढ़ने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। इतनी लंबी यात्रा की वजह से सभी थक कर चूर हो चुके थे। करीब 9 हजार मील लगातार यात्रा करने के बाद उन्होंने बगुला और कुछ चिड़ियों को उड़ते देखा। चिड़ियों को देखकर उन्हें आशां बंधी कि नजदीक ही कोई जमीन का टुकड़ा है और वे अब किनारे से ज्यादा दूर नहीं है।
हालांकि जमीन तक पहुंचने और जहाजों का लंगर डालने के लिए अभी उन्हें कई दिन और चलना पड़ा। और एक नवंबर को उन्हें जमीन का किनारा दिखा। खुशी से उनकी बांछे खिल गईं। अगले दिन उन्हें एक सुरक्षित जगह दिखाई दी और उन्होंने उस सुरक्षित खाड़ी में अपने बेड़ों का लंगर डाल दिया। वहां रुक कर उन्होंने अपनी थकान दूर की, जहाजों की सफाई की और पालों की मरम्मत की। साथ ही खाना पकाने के लिए लकड़ी और पीने के लिए पानी लिया। वास्को डी गामा का बेड़ा वहाँ 8 दिनों तक रुका रहा। वास्को डी गामा ने उस खाड़ी का नाम सेंट एलिना रखा। जिसे वर्तमान में सेंट हेलेना द्वीप कहते हैं। ये वही सेंट हेलेना द्वीप है जहाँ अंग्रेजों ने नेपोलियन बोनापार्ट को बंधक बनाने के बाद कैद में रखा था। 6 साल तक इसी द्वीप पर कैद रहने के बाद 1821 में नेपोलियन की मौत हुई थी और यहीं पर नेपोलियन की कब्र भी है।
दरअसल वास्को डी गामा ने जो रास्ता अख्तियार किया था वह था भी कठिन। उसने अफ्रीका के तट के किनारे-किनारे चलने के बजाय, बीच समुद्र में एक लंबा घुमाव लेकर आगे बढ़ने का रास्ता अख्तियार किया था। और ऐसा वह बार्थोलोम्यू डियाज के सुझाव पर किया था जो केप ऑफ गुड होप तक पहले ही पहुंच चुका था और इन रास्तों में आने वाली मुश्किलों से परिचित भी था।
खैर, आठ दिन आराम करने के बाद 16 नवंबर को वास्को डी गामा सेंट ऐलिना द्वीप से केप ऑफ गुड होप के लिए रवाना हुआ। उसे और उसके साथियों को निश्चित दूरी का पता नहीं था पर वे लगातार चलते गए। और आखिरकार 18 नवंबर 1497 को उन्हें अफ्रीका का सबसे दक्षिणी छोर केप ऑफ गुड होप दिखाई पड़ गया।
केप ऑफ गुड होप को देखकर वास्को डी गामा समेत बेड़े के सभी नाविक काफी उत्साहित हो गए। लेकिन समुद्र काफी उग्र था, ऊंची-ऊंची लहरें उठ रहीं थी, साथ ही तूफान ने भी आफत मचा रखा था। ऐसे में बार-बार कोशिश के बावजूद वास्को डी गामा का जहाज केप ऑफ गुड होप को पार नहीं कर पा रहा था। हालांकि उन लोगों ने हिम्मत नहीं हारी... और जब 22 नवंबर की दोपहर को तूफान कुछ कम हुआ और अनुकूल हवाओं का साथ मिला तब वास्को डी गामा का जहाज केप ऑफ गुड होप का चक्कर लगाने में सफल हो गया।
लेकिन असली मुश्किल तो अभी आगे आनी थी जब खुद को बचाने के लिए पुर्तगालियों को अपने जहाज से तोपें दागनी पड़ी। कैद होने से वो बाल-बाल बचे। रात के अंधेरे में चुपके से उन्हें अपने जहाज लेकर भागने पड़े। अरब और मूर व्यापारियों के षडयंत्रों का शिकार भी उन्हें होना पड़ा। इन कहानियों की चर्चा करेंगे इस कहानी के अगले भाग- वास्को डी गामा भारत क्यों और कैसे आया?- के पार्ट-3 में... जिसे पढ़ना नहीं भूलिएगा।
क्रमश: