20 साल पहले आतंकी हमला: अमेरिका का रुख और कितना हुआ बदलाव
9 सितंबर 2001 (9/11)अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकी हमला बेहद दर्दनाक था। न्यूयॉर्क के ट्विन टावर से लटकते पीड़ितों का दृश्य आज भी आंखों के सामने तैरता है। अमेरिका में हुए इस आतंकी हमले ने एक के बाद एक उन घटनाओं को जन्म दिया, जिसने अमेरिका और उसके सहयोगी अफगानिस्तान में दो दशक लंबे युद्ध में उलझते चले गए। और इसकी परिणति 30 और 31 अगस्त की दरम्यानी रात को देखने को मिली जब अमेरिका का सैन्य विमान सी-17 काबुल के हामिद करजई एयरपोर्ट से अमेरिकी सैनिकों की आखिरी टुकड़ी के साथ आखिरी उड़ान भरा। इस उड़ान के साथ ही यह साफ हो गया कि अफगानिस्तान में 20 साल तक चले अमेरिकी सैन्य अभियान का अंत हो गया है। हालांकि तालिबान के साथ हुए समझौते के मुताबिक अमेरिका को 31 अगस्त तक अफगानिस्तान छोड़ना था लेकिन अमेरिका ने अपना यह सैन्य मिशन तय समय से एक दिन पहले ही समाप्त कर दिया। जिस तालिबान को 20 साल पहले अमेरिका से हारकर काबुल से भागना पड़ा था उसी तालिबान ने 15 अगस्त 2021 को अमेरिका की मौजूदगी में ही काबुल पर कब्जा जमा लिया और अफगानिस्तान पर दोबारा अपना शासन कायम कर लिया।
ऐसे में यह जानना जरूरी है कि अमेरिका और तालिबान के इस 20 सालों के संघर्ष के पीछे की वजह क्या थी। ये सब किसके लिए हुआ और क्या अमेरिका अपने मकसद में कामयाब हो पाया। साथ ही 2001 से लेकर अब तक क्या-क्या हुआ और तालिबान के वजह से अमेरिका को जल्दबाजी में अफगानिस्तान क्यों छोड़ना पड़ा?
दरअसल,अफगानिस्तान में अमेरिका और नाटो सेनाओं की जंग 2001 में शुरू हुई थी। इस लड़ाई में तालिबान विरोधी सभी देश और संगठन साथ आए। अमेरिकी स्पेशल फोर्स के साथ मिलिशिया लड़ाके भी इस लड़ाई में शामिल हुए। दरअसल 9 सितंबर 2001 को अमेरिका के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले में करीब तीन हजार अमेरिकियों की मौत के बाद अमेरिका समेत पूरी दुनिया दहल गई थी। इस हमले के बाद तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने -आतंकवाद के खिलाफ युद्ध- का ऐलान किया। अमेरिका का आरोप था कि तालिबान ने 9/11 हमले के मास्टरमाइंड ओसामा बिन लादेन और अलकायदा के अन्य आतंकवादियों के अपने यहां पनाह दे रखी है। अफगानिस्तान में उस समय कट्टरपंथी इस्लामिक संगठन तालिबान का शासन था और उसने ओसामा को अमेरिका के हवाले करने से इनकार कर दिया।
तालिबान के इनकार के बाद अमेरिका के नेतृत्व में नाटो देशों की गठबंधन सेना ने पहली बार 7 अक्टूबर 2001 को अफगानिस्तान में तालिबान के खिलाफ युद्ध की शुरुआत की और हवाई हमले किए जिसमें हजारों लोग मारे गए। 9 नवंबर 2001 को नाटो और उज्बेक नेता अब्दुल रशीद दोस्तम की सेना के हाथों मजार-ए-शरीफ में हार के बाद तालिबान के पैर तेजी से उखड़ने लगे। नाटो सैनिकों और नॉर्दन एलायंस की सेना ने 11 नवंबर 2001 को तालोकान, 11 नवंबर को ही बामियान, 12 नवंबर को हेरात, 13 नवंबर को काबुल और 14 नवंबर को जलालाबाद से तालिबान को भगा दिया। इसके बाद 14 नवंबर को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद ने संकल्प 1378 पारित किया। इसमें अफगानिस्तान में एक अस्थायी प्रशासन स्थापित करने में संयुक्त राष्ट्र की केंद्रीय भूमिका निभाने की बात करने के साथ ही सदस्य देशों से अफगानिस्तान में स्थिरता और शांति कायम करने के लिए शांति सेना भेजने की अपील की गई।
इस बीच, 1996 से अफगानिस्तान में शासन कर रहा तालिबान अमेरिकी हमलों के आगे टिक न सका और राजधानी काबुल से भागने पर मजबूर हो गया। 9 दिसंबर 2001 को कंधार हारने के बाद अफगानिस्तान से तालिबान शासन का पूरी तरह से अंत हो गया। तोरा-बोरा की पहाड़ियों में छिपे ओसामा बिन लादेन भी अमेरिकी हमलों से डरकर दिसंबर 2001 में पाकिस्तान भाग गया। अफगानिस्तान से तालिबान को खदेड़ने के बाद संयुक्त राष्ट्र के नेतृत्व में 5 दिसंबर 2001 को नॉर्दन एलायंस समेत अफगानिस्तान के कई पक्षों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1383 के तहत जर्मनी के बॉन शहर में एक समझौते पर हस्ताक्षर किए। इस समझौते के तहत अमेरिका ने हामिद करजई के नेतृत्व में एक अंतरिम सरकार का गठन किया। हालांकि अफगानिस्तान का पहला चुनाव 9 अक्टूबर 2004 को हुआ जिसमें 55 फीसदी मत हासिल कर करजई अफगानिस्तान के राष्ट्रपति निर्वाचित हुए।
इन्ही दिनों अमेरिका का ध्यान इराक में सद्दाम हुसैन को सत्ता से बेदखल करने पर भी लगा हुआ था। तालिबान को सत्ता से बेदखल करने के बाद अमेरिका ने अपनी पूरी ताकत इराक में सद्दाम हुसैन को सत्ता से उखाड़ फेंकने में लगा दिया और सद्दाम हुसैन को हटाने के लिए अपनी सेनाएं इराक में भेज दी। अमेरिकी सेनाएं 2007 तक मुख्य रूप से इराक में ही उलझी रहीं। इस दौरान तालिबान ने एक बार फिर से अपना प्रभाव बढ़ाना शुरू कर दिया और संगठित होने लगा।
अफगानिस्तान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या कम होते ही तालिबान ने पाकिस्तानी तालिबान की मदद से अफगानिस्तान में अपना प्रभाव बढ़ाने में जुट गया। अफगानिस्तान में तालिबान के बढ़ते प्रभाव को रोकने के लिए 2009 में अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने अमेरिकी सैनिकों की संख्या को दोगुना कर 68 हजार कर दिया। ओबामा ने अफगानिस्तान युद्ध को खत्म करने का अभियान चलाया और 2010 तक अफगानिस्तान में एक लाख तक सैनिक भेज दिए लेकिन फिर भी वे इस युद्ध को खत्म नहीं कर पाए। लेकिन मई 2011 में अमेरिका को एक बड़ी सफलता हासिल मिली जब उसके नेवी सील कमांडो ने पाकिस्तान के एटबाबाद में अलकायदा के सरगना ओसामा बिन लादेन को मार दिया।
ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद बराक ओबामा ने अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को वापस बुलाने की घोषणा की। मई 2014 में ओबामा ने घोषणा की कि 2016 के अंत तक अफगानिस्तान से अमेरिकी सेना को पूरी तरह से वापस बुला लिया जाएगा। इस बीच जून 2014 में अशरफ गनी अफगानिस्तान के राष्ट्रपति चुने गए। वहीं दिसंबर 2014 में नाटो देश ने अफगानिस्तान में अपने 13 साल लंबे मिशन को समाप्त कर दिया लेकिन अमेरिका ने अपनी लड़ाई जारी रखी।
उधर अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव हुए और साल 2017 में अमेरिका के राष्ट्रपति का पद संभालने वाले डॉनल्ड ट्रम्प ने 29 फरवरी 2020 को दोहा में तालिबान के साथ एक समझौता किया जिसके तहत एक मई 2020 से अमेरिकी सैनिकों की वापसी का वादा किया गया। वहीं 2021 में अमेरिका का राष्ट्रपति बनने के बाद जो बाइडन ने मई 2021 में कहा कि 9/11 हमले की 20वीं बरसी से पहले 31 अगस्त तक अमेरिकी सैनिक पूरी तरह से अफगानिस्तान से वापस बुला लिए जाएंगे। इसके बाद से 1 मई 2021 से अमेरिका और नाटो देशों की सैनिकों की शुरू हुई वापसी की आखिरी परिणति 30 और 31 अगस्त की दरम्यानी रात को पूरी हो गई जब अमेरिका का आखिरी सैन्य जहाज अपने सैनिकों के साथ काबुल से उड़ान भरा।
9/11की घटना के बाद आतंक के खिलाफ शुरू किए गए युद्ध में अमेरिका ने 2.3 ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा पैसे खर्च कर दिए। इस दौरान सात हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक और आठ हजार से ज्यादा ठेकेदारों की मौत हो गई, जो अमेरिका के लिए काम कर रहे थे।
अकेले अफगानिस्तान में 20 सालों में करीब एक ट्रिलियन डॉलर से ज्यादा पैसे खर्च हुए। इसके साथ ही अमेरिका ने अफगानिस्तान में पुनर्निर्माण के कार्यों पर अलग से 143 बिलियन डॉलर खर्च किए। हालांकि इस दौरान अमेरिका को आर्थिक हानि के साथ-साथ अपने संसाधनों और सैनिकों के जानमाल का नुकसान भी बड़े पैमाने पर उठाना पड़ा। बीस सालों की इस लड़ाई के दौरान अमेरिका समेत सहयोगी देशों के साढ़े तीन हजार से ज्यादा सैनिकों की मौत हुई जबकि बीस हजार से ज्यादा अमेरिकी सैनिक घायल हुए। इसके अलावा अफगान सैनिक और पुलिस के करीब 70 हजार जवान भी इस युद्ध में मारे गए। साथ ही 50 हजार से ज्यादा आम लोगों की मौत हुई। वहीं 50 हजार से ज्यादा तालिबानी भी मारे गए। संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट के मुताबिक इस युद्ध के कारण 2012 से अब तक पचास लाख से ज्यादा लोग विस्थापित होने पर मजबूर हुए। साढ़े पांच लाख से ज्यादा लोग तो देश में दूसरे स्थानों पर शरण लिए हुए हैं।
दुनिया से आतंक और तालिबान का खात्मा करने के उद्देश्य से 2001 में अमेरिका द्वारा शुरू किए गए जंग का कोई सार्थक नतीजा नहीं निकला। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन की मई में अमेरिकी सैनिकों की वापसी की घोषणा के बाद अफगानिस्तान पर पूर्ण नियंत्रण हासिल करने के अभियान की शुरुआत के महज दो हफ्ते के भीतर ही तालिबान ने राजधानी काबुल पर कब्जा कर लिया। राष्ट्रपति अशरफ गनी को मुल्क छोड़कर भागना पड़ा और यूएई की राजधानी अबु धाबी में शरण लेना पड़ा। इसके बाद से तो विदेशी सैनिकों और उनके मददगारों को निकालने की होड़ मच गई। अमेरिका भी 31 अगस्त से पहले अफगानिस्तान से निकल गया लेकिन बड़ी संख्या में नाटो देशों के मददगार काबुल में ही छूट गए जो अफगानिस्तान की आम जनता के साथ एक बार फिर खौफ के साये में जीने को मजबूर हैं।
दरअसल, तालिबान के खिलाफ अमेरिका की अफगानिस्तान नीति पूरी तरह सत्ता के इर्द-गिर्द केंद्रित रही है। जब-जब अमेरिका में सत्ता बदली है तब-तब उसका असर अफगानिस्तान पर पड़ा है। 20 वर्ष पहले तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश ने तालिबान के खात्मे के लिए जंग छेड़ी। उनके बाद बराक ओबामा ने पूरी ताकत झोंक दी। फिर ट्रंप के दौर में तालिबान से दोहा डील नामक समझौता हुआ। इसके बाद बाइडन के कार्यकाल में सेना लगभग पूरी तरह वापस लौट गई और वहीं तालिबान दोबारा पूरे अफगानिस्तान को अपने कब्जे में लेकर और अपना राज चला रहा है।