अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस: बालिकाओं का अधिकार, बेहतर भविष्य का निर्माण
अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस: बालिकाओं का अधिकार, बेहतर भविष्य का निर्माण
धरती पर मौजूद हर मानव को चाहे वह पुरुष हो या महिला, बालक हो या बालिका, सभी को सुरक्षित, शिक्षित और स्वस्थ जीवन जीने का अधिकार है। लेकिन तमाम प्रगति और विकासशील समाज होने का ढिंढोरा पीटने के बावजूद आज भी दुनिया के हर कोने में लड़के और लड़कियों के बीच बड़े पैमाने पर भेदभाव किया जाता है। यह भेदभाव घरेलू स्तर से शुरू होकर सामाजिक और सार्वजनिक जीवन के हर क्षेत्र में स्पष्ट दिखाई देता है। हालांकि लड़कियों ने जीवन के हर क्षेत्र में अपना लोहा मनवाया है बावजूद इसके हमारा तथाकथित प्रगतिशील समाज उन्हें हमेशा से लड़कों के बरक्स कमतर ही आंकता आया है... और यही वजह है कि आज भी लड़कियों को हर कदम पर अनेक चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
यदि किशोरावस्था से ही लड़कियों को पढ़ने, बढ़ने और आत्मनिर्भर बनाने के लिए सक्षम और प्रभावी तरीके से सहयोग दिया जाए तो उनमें दुनिया बदलने की क्षमता है। आज अगर हम किशोर लड़कियों को स्वस्थ और सुरक्षित माहौल उपलब्ध कराएंगे तभी वे कल एक सशक्त उद्यमी, कुशल प्रशासक, संरक्षक, घर की मुखिया, वैज्ञानिक, राजनीतिज्ञ या एक माता के रूप में अपनी असरदार भूमिका निभा पाएंगी। दरअसल, एक न्यायसंगत समाज की कल्पना हम तभी कर सकते हैं जब लड़कियों की क्षमता को विकसित करने के लिए उचित माहौल उपलब्ध कराया जाए और उनके अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए।
किशोर लड़कियां: घरेलू और वैश्विक चुनौती
आज दुनिया में 10 साल से 18 साल के बीच की किशोर लड़कियों की कुल आबादी 1.1 बिलियन (एक अरब 10 करोड़) से ज्यादा है। इन किशोर लड़कियों में भविष्य की तमाम चुनौतियों का सामना करने और आगे बढ़ने की सक्षमता है। अगर इन किशोरियों को उनका अधिकार और अवसर की सुविधा मुहैया कराई जाए तो वे विश्व को एक सुरक्षित, समृद्ध और स्वस्थ वातावरण देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं... लेकिन बाल विवाह, शिक्षा में असमानता, लैंगिक भेदभाव, हिंसा, उचित पोषण की कमी, स्वस्थ वातावरण और स्वास्थ्य देखभाल में भेदभाव जैसी गंभीर चुनौतियां लड़कियों के विकास के मार्ग में एक बड़ा रोड़ा बना हुआ है। हालांकि इन तमाम चुनौतियों के बावजूद लड़कियां हर बाधा को तोड़ते हुए लगातार आगे बढ़ रही हैं। वैश्विक स्तर पर देखें तो जलवायु परिवर्तन, आर्थिक विकास, वैश्विक स्थिरता, राजनीतिक संघर्ष, कोविड-19 समेत अन्य गंभीर बीमारियों की रोकथाम की समस्याओं को हल करना एक बड़ी चुनौती है। अगर हम किशोर लड़कियों को उचित माहौल प्रदान करें और शिक्षा तक सबकी पहुंच सुनिश्चित करें तो कल को ये किशोर लड़कियां ही बड़ी होकर इन वैश्विक चुनौतियों को हल करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती नजर आएंगी।
वैश्विक स्तर पर लड़कियों और महिलाओं की स्थिति: यूएन की रिपोर्ट
साल 2020 में महिलाओं और बालिकाओं की स्थिति पर प्रकाशित संयुक्त राष्ट्र संघ की एक रिपोर्ट के मुताबिक दुनिया भर में 15 से 19 साल की आयु की 4 में से एक लड़की न तो नौकरी करती है और न ही उसे शिक्षा या किसी तरह का प्रशिक्षण मिल पाता है। जबकि इसी आयु वर्ग के लड़कों में यह स्थिति 10 में से एक है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि 2021 के अंत तक करीब 435 मिलियन यानि 43 करोड़ 35 लाख महिलाएं और लड़कियां प्रतिदिन 1.90 डॉलर से कम पर जीवन यापन करेंगी।
संयुक्त राष्ट्र की रिपोर्ट में ये भी कहा गया है कि दुनिया भर में तीन में से एक महिला शारीरिक या यौन हिंसा की शिकार होती हैं। रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 के प्रकोप के बाद से महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा विशेष रूप से घरेलू हिंसा में तेजी आई है। साथ ही दुनिया के 60 फीसदी देशों में अभी भी लड़कियों के साथ क़ानूनन या व्यवहार में भूमि और गैर-भूमि संपत्ति अधिकारों में भेदभाव किया जाता है।
अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस और उद्देश्य
दुनिया भर में लड़कियों की कमजोर आर्थिक, सामाजिक, शैक्षणिक स्थिति और लैंगिक भेदभाव को देखते हुए उन्हें सशक्त बनाने, उनकी आवाज को मजबूत करने और उनकी मानवाधिकारों की रक्षा करने के साथ ही उनके सामने आने वाली चुनौतियों को पहचानने के लिए ही 2012 से हर साल 11 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का मुख्य उद्देश्य बालिकाओं के सशक्तिकरण के साथ ही उनके सामने आने वाली चुनौतियों का समाधान करना, लैंगिक असमानता को कम करना और उनके मानवाधिकारों की पूर्ति को बढ़ाने की आवश्यकता पर जोर देना है। इसके साथ ही लड़कियों को समान रूप से अधिकार देना और लड़कों के बराबर समानता दिलाना है। बालिकाओं को शिक्षित करना और कौशल विकास, प्रशिक्षण और शिक्षा में सभी तरह के भेदभाव को खत्म करना है। दहेज प्रथा, बाल विवाह, और भ्रूण हत्या जैसी कुरीतियों को जड़ से समाप्त करना भी इसका मकसद है। साथ ही लड़कियों के लिए नकारात्मक दृष्टिकोण को खत्म करना, स्वास्थ्य और पोषण के क्षेत्र में लड़कियों के साथ भेदभाव को समाप्त करना है। समाज में लड़कियों की स्थिति को उबारना, बालिकाओं के खिलाफ हिंसा को खत्म करना और सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक क्षेत्र में लड़कियों को जागरूक करने के साथ ही उनकी भागीदारी को बढ़ावा देना भी इसका मकसद है ताकि लड़कियां अपनी आवाज बुलंद कर सकें और अपने अधिकारों के लिए खड़ी हो सकें।
अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का इतिहास
अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की बात की करें तो इसकी पहल ‘प्लान इंटरनेशनल’ प्रोजेक्ट के रूप में शुरू हुई। कनाडा की एक गैर सरकारी संगठन ‘ग्लोबल चिल्ड्रन चैरिटी’ ने लड़कियों के लिए उच्च शिक्षा, चिकित्सा देखभाल और कानूनी अधिकारों जैसी आवश्यकताओं पर जोर देते हुए एक अभियान चलाया था। इस संगठन ने ‘ क्योंकि मैं एक लड़की हूँ’ नाम से एक अभियान शुरू किया जिसका मकसद दुनिया भर में विशेषकर विकासशील देशों में लड़कियों को उनका अधिकार दिलाना और पोषण के महत्व के बारे में जागरूकता फैलाना था। इस पहल को आगे बढ़ाते हुए कनाडा सरकार ने ‘प्लान इंटरनेशनल’ को संयुक्त राष्ट्र में शामिल करने के लिए संयुक्त राष्ट्र महासभा से आग्रह किया था।
‘बीजिंग घोषणा और प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन’
इसके बाद साल 1995 में बीजिंग में हुए चौथे महिला विश्व सम्मेलन के दौरान ‘बीजिंग घोषणा और प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन’ को सर्वसम्मति से अपनाया गया। इस घोषणा-पत्र में महिलाओं के अधिकार के साथ-साथ लड़कियों के अधिकारों के संरक्षण की बात काफी प्रमुखता से कही गई थी। बीजिंग घोषणा पत्र में लड़कियों के अधिकारों की सुरक्षा का मुद्दा विशेष तौर से पहली बार उठाया गया था। इन तमाम प्रयासों के बाद 19 दिसंबर 2011 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने एक संकल्प 66/170 पारित कर 11 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाने की घोषणा की। इसके बाद 2012 से हर साल 11 अक्टूबर को अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस मनाया जाता है। हालांकि भारत में हर साल 24 जनवरी को ‘राष्ट्रीय बालिका दिवस’ मनाया जाता है जिसकी शुरुआत महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने 2008 में की थी।
अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस और थीम
बालिकाओं के अधिकार के प्रति समाज में जागरूकता फैलाने के लिए हर साल अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का एक थीम निर्धारित किया जाता है जिसका मकसद महिलाओं और बालिकाओं को सशक्त बनाना होता है। 2012 में पहले अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का थीम था ‘बाल विवाह को समाप्त करना’। वहीं 2013 में थीम था ‘लड़कियों की शिक्षा के लिए नवाचार’। 2014 में थीम रखा गया ‘किशोर लड़कियों को सशक्त बनाना: हिंसा के चक्र को समाप्त करना’। जबकि 2015 में यह थीम था ‘किशोरियों की शक्ति: 2030 के लिए विजन’। 2016 में किशोरियों के लिए थीम रखा गया ‘गर्ल्स प्रोग्रेस=गोल्स प्रोग्रेस: व्हाट काउंट्स फॉर गर्ल्स’। 2017 में अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का थीम था ‘एम्पावर गर्ल्स: संकट से पहले, उसके दौरान और बाद में’। 2018 में इस थीम को नाम दिया गया ‘उसके साथ: एक कुशल लड़की बल’। 2019 में अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का थीम था ‘गर्लफोर्स: अनस्क्रिप्टेड एंड अनस्टॉपेबल’। कोविड-19 महामारी ने वैश्विक स्तर पर हर क्षेत्र में रुकावट पैदा की है। किशोरियों की प्रगति और उनके विकास के लिए किए जा रहे काम भी इससे प्रभावित हुए हैं। इन सब के बीच साल 2020 में अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का थीम था ‘हमारी आवाज और हमारा समान भविष्य’। इस मकसद था किशोर लड़कियां जो बदलाव चाहती हैं उसके लिए उन्हें उचित अवसर प्रदान किया जाए। साथ ही समाज में यह संदेश भी देना था कि कैसे किशोर बालिकाएं आज पूरे विश्व को एक मार्ग दिखाने का प्रयास कर रही हैं।
2021 का थीम: ‘डिजिटल पीढ़ी, हमारी पीढ़ी’
साल 2021 का अंतर्राष्ट्रीय बालिका दिवस का थीम है ‘डिजिटल पीढ़ी, हमारी पीढ़ी’। संयुक्त राष्ट्र के सहयोग से महिलाओं और बालिकाओं के अधिकार और लैंगिक असमानता को खत्म करने के लिए काम करने वाली संस्था ‘जेनरेशन इक्वेलिटी फोरम’ ने जुलाई 2021 में एक पांच वर्षीय रोडमैप तैयार पेश किया। जिसका मकसद 2026 तक महिलाओं और लड़कियों को लेकर लैंगिक असमानता समाप्त करने, उन्हें उचित अवसर मुहैया कराने के साथ ही उनमें नेतृत्व क्षमता विकसित करना है। ‘जेनरेशन इक्वेलिटी फोरम’ ने कोविड-19 महामारी के दौरान महिलाओं और लड़कियों की स्थिति पर एक रिपोर्ट भी पेश की है। रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड-19 महामारी की वजह से जहां पढ़ने, सीखने, कमाने और लोगों से जुड़ने में डिजिटल प्लेटफॉर्म की भूमिका काफी महत्वपूर्ण हो गई है वहीं, अभी भी दुनिया भर में 25 साल से कम उम्र के 2 अरब 20 करोड़ लोगों के पास इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध नहीं है। इनमें ज्यादा संख्या लड़कियों की है। वैश्विक स्तर पर इंटरनेट उपयोगकर्ताओं में लैंगिक अंतर 2013 में जहां 11 फीसदी था, वहीं 2019 में बढ़कर 17 फीसदी हो गया। दुनिया के सबसे कम विकसित देशों की 43 फीसदी जनता अभी भी इंटरनेट की पहुंच से बाहर है। लड़कों की तुलना में लड़कियों के पास डिजिटल उपकरणों की उपलब्धता काफी कम है, इस वजह से वे लड़कों के मुकाबले डिजिटल उपकरणों का इस्तेमाल भी काफी कम करती हैं। लड़कों और लड़कियों के बीच फैली इस तरह की असमानता को कम करके ही हम डिजिटल क्रांति को संभव बना सकते हैं। यही नहीं इसके जरिए हम भौगोलिक दूरियों को भी पाट सकते हैं।
महिलाओं और बालिकाओं की स्थिति पर UNICEF की रिपोर्ट
मार्च 2020 में यूनिसेफ ने वैश्विक स्तर पर बालिकाओं की शिक्षा, लैंगिक असमानता, स्वास्थ्य और अन्य चुनौतियों को लेकर एक रिपोर्ट -A New Era For Girls: Taking Stock of 25 Years of Progress- के नाम से प्रकाशित किया था। यह रिपोर्ट महिलाओं और बालिकाओं के अधिकार को लेकर 1995 में घोषित बीजिंग घोषणा पत्र से लेकर साल 2020 तक अलग-अलग क्षेत्रों में हासिल उनकी उपलब्धियों पर आधारित है। इस रिपोर्ट में जहां कुछ मामलों में धीमी प्रगति दिखाई गई है तो कुछ क्षेत्रों को लेकर चिंता भी व्यक्त की गई है।
पांच में से सिर्फ दो लड़कियां ही ले पाती हैं उच्च माध्यमिक स्कूल में दाखिला
लड़कियों में शिक्षा को लेकर यूनिसेफ के रिपोर्ट में कहा गया है कि 1998 से 2018 के बीच दुनिया भर में 79 मिलियन यानी 7 करोड़ 90 लाख लड़कियों ने बीच में ही स्कूली शिक्षा छोड़ दी। रिपोर्ट के मुताबिक 1998 में सेकेंडरी स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ देने में लड़कियों की संख्या लड़कों से ज्यादा थी। 1998 में 127 मिलियन लड़कों के मुकाबले 143 मिलियन लड़कियों ने सेकेंडरी स्कूल की पढ़ाई बीच में ही छोड़ दी। लेकिन यह स्थिति अब बदल गई है। 2018 में 97 मिलियन लड़कियों की तुलना में 127 मिलियन लड़कों ने सेकेंडरी स्कूल की पढ़ाई बीच में छोड़ दी। यह आंकड़ा शिक्षा के प्रति लड़कियों के आकर्षण और उन्हें मिल रहे सहयोग के बारे में बताता है।
आज तीन में से दो लड़कियां सेकेंडरी स्कूल में दाखिला ले पाती हैं जबकि 1998 में यह आंकड़ा केवल एक था। रिपोर्ट के मुताबिक वैश्विक स्तर पर पांच में से चार लड़कियां प्राथमिक स्कूल की शिक्षा पूरी करती हैं, लेकिन उन पांच में से सिर्फ दो ही उच्च माध्यमिक स्कूल में दाखिला ले पाती हैं। इसकी एक बड़ी वजह लड़कियों का घरेलू कामकाज में व्यस्त होना है।
लैंगिक असमानता और मानवाधिकार का हनन
लड़कियों की लैंगिक असमानता और मानवाधिकारों के हनन को लेकर रिपोर्ट में चिंता जताई गई कि कई हानिकारक प्रथाएं जैसे एफजीएम यानी फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन, बाल विवाह और लड़कियों को बचपन में खुलकर नहीं जीने देने के साथ ही उन्हें जीवन भर अवसरों और विकल्पों से समझौता करने की सीख देना, बालिकाओं के मानवाधिकार का उल्लंघन करते हैं। वैश्विक स्तर पर बड़े पैमाने पर लड़कियों की तस्करी भी उनके मानवाधिकारों को कुचलते हैं। 2016 में मानव तस्करी में गिरफ्तार लोगों में 23 फीसदी संख्या लड़कियों की थी। इनमें ज्यादातर लड़कियों की तस्करी यौन उत्पीड़न के मकसद से किया गया था।
सामाजिक जड़ता और रूढ़िवादी सोच भी लड़कियों के साथ भेदभाव में करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता है। शिक्षा का अनुपात बढ़ने के बावजूद आज भी ज्यादातर विकासशील देशों में बेटे के जन्म को ज्यादा तरजीह दी जाती है। बेटे की चाह और प्रसव पूर्व लिंग निर्धारण तक पहुंच ने कुछ देशों में लड़कियों के जन्म दर में काफी कमी की है। हालांकि पिछले 25 सालों में बाल विवाह में कमी आई है और यह 59 फीसदी से घटकर 30 फीसदी पर पहुंच गया है लेकिन सार्वभौमिक प्रगति अभी भी काफी दूर है। बाल विवाह की वजह से लाखों लड़कियों का जीवन अभी भी जोखिम भरा है, खासकर गरीब तबकों से आने वाली लड़कियों को इस समस्या से लगातार दो-चार होना पड़ता है।
एफजीएम यानी फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन जैसे अमानवीय प्रथाओं में पिछले 25 सालों में कमी आई है लेकिन वैश्विक स्तर पर आज भी 15 से 19 साल की तीन में से एक लड़कियों का एफजीएम किया जाता है। यह प्रथा अभी भी 31 देशों में लागू है। एमजीएम बालिकाओं की लैंगिक असमानता का एक बड़ा कारण है।
चार में से एक लड़की हिंसा की शिकार
दुनिया की एक तिहाई देशों से उपलब्ध डेटा का अध्ययन करने से पता चलता है कि चार में से कम से कम एक किशोर लड़की अपने जानने वाले के द्वारा हिंसा या प्रताड़ना की शिकार होती है। एक विडंबना यह भी है कि वैश्विक स्तर पर 10 में से करीब 4 लड़कियां पति द्वारा पत्नी की पिटाई को सही मानती हैं। दक्षिण एशिया, मध्य पूर्व, उत्तर अफ्रीका और सब-सहारा की 40 फीसदी लड़कियां जिनकी उम्र 15 से 19 साल के बीच है, ये मानती हैं कि किसी खास परिस्थिति में पति द्वारा पत्नी की पिटाई सही है।
वैश्विक स्तर पर प्रत्येक 20 में से एक लड़की जिनकी उम्र 15 से 20 साल के बीच है, उसे कभी न कभी जबरदस्ती अवैध शारीरिक संबंध बनाने पर मजबूर किया जाता है। एक बड़ी चिंता का विषय यह है कि यौन शोषण की शिकार लड़कियों में से सिर्फ 10 फीसदी ही पुलिस में शिकायत दर्ज कराती हैं बाकि करीब 90 फीसदी लड़कियां न तो पुलिस में शिकायत दर्ज कराती हैं और न ही किसी प्रकार की मदद मांगती हैं।
लिंग मानक और भेदभाव, लड़कियों में स्वास्थ्य संबंधी जोखिमों को बढ़ाने के साथ ही मानवाधिकारों के हनन के प्रमुख कारण हैं। इस तरह की असमानता और भेदभाव से लड़कियों को अपनी जरूरतों को पूरा करने और स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच बनाने में काफी मुश्किल आती है और इससे उनकी शारीरिक और मानसिक कार्यक्षमता प्रभावित होती है।
पोषण के स्तर पर भी लड़कियों में बड़े पैमाने पर भेदभाव किया जाता है। इसका असर उनके स्वास्थ्य और शारीरिक विकास पर पड़ता है। भरपूर पोषण नहीं मिल पाने से लड़कियों और महिलाओं में एनीमिया यानी खून की कमी एक बड़ी समस्या है। इसे दूर करने की लगातार कोशिश हो रही है लेकिन पिछले 20 सालों में किशोर लड़कियों में एनीमिया को कम करने की प्रगति धीमी ही रही है।
लड़कियों को मिले उनका अधिकार
लड़कियां हर मामले में बराबरी की हकदार हैं और लैंगिक समानता की लड़ाई में समान रूप से भागीदार हैं। लड़कियां लैंगिक समानता की दिशा में क्रांतिकारी परिवर्तन लाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकती हैं... अगर उन्हें बिना किसी भेदभाव के अपने अधिकारों के साथ जीवन जीने का मौका दिया जाए। इसके लिए जरूरी है कि वैश्विक स्तर पर हो रही कोशिशों में और ज्यादा तेजी लाई जाए और प्रत्येक स्तर पर मौजूद चुनौतियों का समाधान किया जाए। इसमें विश्व समुदाय की भागीदारी बहुत जरूरी है, तभी लड़कियां सशक्त और सम्मान पूर्वक बराबरी का जीवन जी सकेंगी।
अभी चुनौतियां बहुत हैं
1995 में ‘बीजिंग घोषणा और प्लेटफॉर्म फॉर एक्शन’ की व्यापक रणनीति को अपनाने के लिए पूरी दुनिया में सहमति बनी थी जिसमें लैंगिक असमानता को खत्म करने की बात कही गई थी। इसमें महिलाओं और लड़कियों से भेदभाव समाप्त करने के लिए एक व्यापक दृष्टिकोण अपनाने की बात भी शामिल थी। लेकिन आज बीजिंग घोषणा के 26 साल बीत जाने के बाद भी समाज में लड़कियों के खिलाफ भेदभाव और रूढ़िवादी दृष्टिकोण में बहुत ज्यादा परिवर्तन नहीं आया है। यह बात सच है कि पहले की तुलना में लड़कियों की जीवन प्रत्याशा 8 साल बढ़ गई है, लेकिन अभी भी बहुत बड़ी संख्या में किशोर लड़कियां गुणवत्तापूर्ण जीवन जीने से महरूम है जिसकी कल्पना उस घोषणा में की गई थी। आज लड़कियां तकनीकी परिवर्तन और मानवीय आपदा जैसी जिन चुनौतियों का सामना कर रहीं है वो निश्चित रूप से 1995 की तुलना में काफी अलग तरह की है। इसके साथ ही घरेलू हिंसा, परिवार और समाज में पहले से मौजूद संस्थागत पूर्वाग्रह, शिक्षा तक पहुंच नहीं होना और मन मुताबिक जीने के अवसर की कमी जैसी अनेक असमानताएं अभी भी मौजूद हैं, जिन्हें खत्म करने की जरूरत है। इनकों समाप्त किए बिना लड़कियों और महिलाओं के मानवाधिकार और सम्मानपूर्वक जीवन जीने की कल्पना करना बेमानी होगी।
सतत विकास लक्ष्य और एजेंडा 2030
सितंबर, 2015 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की 70वीं बैठक में दुनिया के 193 देशों ने ‘2030 सतत विकास के लिए एजेंडा’ के तहत 17 विकास लक्ष्य यानी एसडीजी (Sustainable Development Goals) और 169 प्रयोजन स्वीकार किए थे। जिसका मुख्य उद्देश्य विश्व से गरीबी को खत्म करना और सभी समाजों में सामाजिक न्याय और पूर्ण समानता स्थापित करना है। इन 17 विकास लक्ष्यों में एक महत्वपूर्ण लक्ष्य लैंगिक समानता हासिल करने के साथ ही महिलाओं और लड़कियों को सशक्त बनाना भी है। इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए जरूरी है कि दुनिया के सभी देश लगातार महत्वपूर्ण कदम उठाएं... क्योंकि सतत विकास में तेजी तभी आएगी जब महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों को सुनिश्चित करते हुए उन्हें सशक्त बनाया जाए और लैंगिक समानता को बढ़ावा देने का जोरदार प्रयास किया जाए। महिलाओं और लड़कियों के प्रति सभी तरह के भेदभाव को समाप्त करना न केवल एक बुनियादी मानव अधिकार है बल्कि यह सामाजिक न्याय और समावेशी विकास का आधारशिला भी है, जो सभी क्षेत्रों में उन्नति और प्रगति का मार्ग सुनिश्चित करता है।