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अशफाक उल्लाह खां: महान क्रांतिकारी और बेहतरीन शायर

Ashfaq ullah Khan

जिन्दगी वादे-फना तुझको मिलेगी 'हसरत',

तेरा जीना तेरे मरने की बदौलत होगा।

स्वाधीनता आंदोलन के दौरान देश की गुलामी की जंजीरों को तोड़ने के लिए हंसते−हंसते फांसी का फंदा चूमने वाले कई महानायक हुए। उनमें से एक थे अमर शहीद ..अशफाक उल्लाह.... अपने त्याग, समर्पण और सर्वोच्च बलिदान से अशफाक उल्लाह खां ने देशभक्ति की एक नई मिसाल गढ़ी। वे जंग-ए-आजादी के साथ-साथ हिंदू मुस्लिम एकता के भी महानायक थे। 

बचपन और शुरुआती जीवन

दौर-ए-इन्कलाब की जब भी बात होगी तो शहीदों की कतार में अशफाक उल्लाह खां का नाम सबसे आगे होगा। अशफाक उल्लाह खां का जन्म 22 अक्टूबर 1900 को उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर में हुआ था। उनके पिता का नाम मोहम्मद शफीक उल्लाह खां और माता का नाम मजहूरुन्न्‍शां बेगम था। पठान परिवार से ताल्लुक रखने वाले अशफाक उल्लाह खां छह भाई बहनों में सबसे छोटे थे। उनमें बचपन से ही देश के लिए कुछ करने का जुनून था। बचपन में अशफाक का मन पढ़ाई में नहीं लगता था। उनकी रुचि तैराकीघुड़सवारीनिशानेबाजी में अधिक थी। उन्हें कविताएं लिखने का काफी शौक थाजिसमें वे अपना उपनाम हसरत लिखा करते थे। अशफाक को विदेशी दासता छात्र जीवन से ही खलती थी। यही वजह थी कि देश के लिए कुछ कर गुजरने की चाहत बचपन से ही दिल के कोने में बैठ गई।

जब बिस्मिल से मिले अशफाक

किशोर से जवानी की दहलीज पर खड़े अशफाक.. शुरुआत में महात्मा गांधी की विचारधारा को काफी पसंद करते थे। लेकिन जब चौरी चौरा की घटना के बाद महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया तो अशफाक उल्लाह खां का रुझान क्रांतिकारियों की ओर हो गया। देश में चल रहे आंदोलनों और क्रांतिकारी घटनाओं से प्रभावित अशफाक के मन में भी क्रांतिकारी भाव जागे। अशफाक उल्लाह खां किसी क्रांतिकारी दल में शामिल होना चाहते थे। इसके लिए वे रामप्रसाद बिस्मिल से मिलना चाहते थे। कई बार मिलने की कोशिश की लेकिन सफल नहीं हुए। आखिरकार 1920 में बिस्मिल शाहजहांपुर आए जहां अशफाक की बिस्मिल से पहली मुलाकात हुई। जब 1922 में रामप्रसाद बिस्मिल ने असहयोग आंदोलन को लेकर एक बैठक बुलाईतो उसमें अशफाक उल्लाह खां भी आए। बिस्मिल अशफाक से बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने उन्हें अपनी पार्टी ‘मातृवेदी’ का सक्रिय सदस्य बना लिया। यहीं से उनकी जिन्दगी का नया अध्याय शुरू हुआ। वे शायर के साथ-साथ कौम के लिए मर मिटने वाले क्रांतिकारी बन गए।  

क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत

अशफाक उल्लाह खां का मानना था कि क्रांतिकारी गतिविधियाँ के साथ-साथ कांग्रेस पार्टी में पैठ बनाकर रखना भी जरूरी है..तभी आजाद मुल्क के लक्ष्य को हासिल किया जा सकता है। इसी सोच के साथ अशफाक, बिस्मिल के साथ ही शाहजहांपुर की नौजवान कांग्रेस में शामिल हुए और फिर 1921 में कांग्रेस के अहमदाबाद अधिवेशन में बिस्मिल के साथ अशफाक भी शामिल हुए। अधिवेशन में उनकी मुलाकात मौलाना हसरत मोहानी से हुई जो उस वक्त कांग्रेस के बड़े नेताओं में से एक थे। मौलाना हसरत मोहानी ने अधिवेशन में पूर्ण स्वराज के प्रस्ताव रखा..महात्मा गांधी ने इसका विरोध किया। इस पर शाहजहांपुर के कांग्रेसी स्वयंसेवकों ने गांधीजी का विरोध किया। इसी तरह जब 1922 में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लियातब गया अधिवेशन में कांग्रेस के स्वयंसेवकों ने इसका जमकर विरोध किया था। बाद में 1922 में गया कांग्रेस में दो दल बन गएजिसमें से एक दल स्वराज पार्टी और दूसरा क्रांतिकारी पार्टी का था। इसके बाद अशफाक और बिस्मिल क्रांतिकारी पार्टी के कामों में शामिल हो गए।

काकोरी कांड और अशफाक उल्लाह खाँ

भारत के स्वाधीनता आंदोलन में काकोरी कांड की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है। काकोरी कांड ही वह घटना थी जिसके बाद देश में क्रांतिकारियों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा था और वे पहले से ज्यादा लोकप्रिय होने लगे थे। दरअसल फरवरी 1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया तब भारत के युवाओं में जो निराशा पैदा हुई थी उसे काकोरी कांड ने ही दूर किया था... और इस काकोरी कांड में बेहद ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी अमर शहीद अशफाक उल्लाह खां ने......

काकोरी कांड देश के इतिहास में एक ऐसी घटना थी जिसने हर देशवासियों के दिल में पल रही अंग्रेजी शासन के खिलाफ नफरत के बारूद में आग लगा दी थी। 9 अगस्त 1925 के दिन क्रांतिकारियों ने अंग्रेजों के सामने एक ऐसा जज्बा दिखाया जो फिरंगियों के मुंह पर तमाचा के समान था। क्रांतिकारियों की ये धमक सात समंदर पार इंग्लैंड तक जा पहुंची। अंग्रेजों की नाक के नीचे हिंदुस्तान रिपब्लिक एसोसिएशन यानी एचआरए के मात्र 10 क्रांतिकारियों ने उत्तर प्रदेश के काकोरी में एक ट्रेन में डकैती कर सरकारी खजाना लूट लिया। इस घटना ने ब्रिटिश हुकूमत की नींद उड़ा दी।

दरअसल देश के क्रांतिकारियों का मानना था कि आजादी मांगने से नहीं मिलने वाली है। इसके लिए लड़ना होगा। लेकिन लड़ने के लिए बम, बंदूकों और हथियारों की जरूरत थी... और हथियार खरीदने के लिए पैसा चाहिए था। तब क्रांतिकारियों ने राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में सरकारी खजाना लूटने का प्लान बनाया।

इसी प्लान के तहत नौ अगस्त 1925 को राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्लाह खां के साथ आठ और लोगों ने मिलकर काकोरी में ट्रेन लूट की घटना को अंजाम दिया। क्रांतिकारियों ने सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली पैसेंजर ट्रेन को काकोरी में जबरदस्ती रुकवाया। इस ट्रेन में रास्ते में पड़ने वाले रेलवे स्टेशनों से इकट्ठा किया गया पैसा था, जिसे लखनऊ में जमा किया जाना था। क्रांतिकारियों ने गार्ड और सवारियों को बंदूक की नोक पर काबू में कर लिया, उन्होंने गार्ड के केबिन में रखा सरकारी खजाने का बक्सा खींच कर नीचे गिरा दिया और खोलने की कोशिश में जुट गए। लेकिन जब काफी कोशिश के बाद भी बक्सा नहीं खुला तब अशफाक उल्लाह खां ने अपना तमंचा मन्मथनाथ गुप्त को पकड़ा दिया और हथौड़ा लेकर बक्सा तोड़ने में जुट गए। आखिरकार क्रांतिकारियों ने बक्सा तोड़ कर पैसे निकाल लिए और फरार हो गए। दरअसल क्रांतिकारियों का मकसद ट्रेन से सरकारी खजाना लूटकर उन पैसों से हथियार खरीदना था ताकि अंग्रेजों के खिलाफ युद्ध को मजबूती मिल सके।

काकोरी कांड ने गोरी सरकार को हिलाकर रख दिया।  इस घटना के बाद देश के कई हिस्सों में बड़े स्तर पर गिरफ्तारियां हुईं। हालांकि काकोरी ट्रेन डकैती में दस आदमी ही शामिल थे लेकिन 40 से ज्यादा लोगों को गिरफ्तार किया गया। अशफाक उल्लाह खां को दिल्ली से गिरफ्तार कर फैजाबाद जेल भेज दिया गया। उन पर काकोरी कांड के मुख्य साजिशकर्ता का आरोप लगा था।

काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा करीब 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला। अप्रैल 1927 में इस मुकदमे का फैसला हुआ। इस मुकदमे में राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह और अशफाक उल्लाह खां को फांसी की सजा सुनाई गई। शचीन्द्रनाथ सान्याल को काला पानी और मन्मथनाथ गुप्त को 14 साल की सजा हुई। जोगेशचंद्र चटर्जी, मुकंदीलाल, गोविंद चरणकर, राजकुमार सिंह और रामकृष्ण खत्री को दस-दस साल की सजा हुई। विष्णु शरण दुबलिश और सुरेशचन्द्र भट्टाचार्य को सात और भूपेन्द्रनाथ, रामदुलारे त्रिवेदी और प्रेम किशन खन्ना को पांच-पांच साल की सजा हुई।

19 दिसंबर 1927 को जिस दिन अशफाक उल्लाह खां को फांसी होनी थी। उस दिन आजादी के दीवाने इस वीर क्रांतिकारी ने हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया और बोले GFX IN “मेरे हाथ इंसानी खून से कभी नहीं रंगेमेरे ऊपर जो इल्जाम लगाया गयावह गलत है। खुदा के यहां मेरा इंसाफ होगा“….  और फांसी के फंदे पर झूल गए।

यहीं अशफाक उल्लाह खां ने फांसी पर झूलने से पहले अपना अंतिम गीत लिखा था जिसके बोल थे।

तंग आकर हम भी उनके जुल्म से बेदाद से

चल दिए सूए अदम ज़िंदाने फैजाबाद से।

काकोरी कांड ने गुलाम भारत के नौजवानों और देशभक्तों के खून में एक नई रवानी पैदा कर दी। इस घटना के बाद से देश के क्रांतिकारियों को लेकर जनता की सोच बदल गई। अशफाक उल्लाह खां, राम प्रसाद बिस्मिल जैसे क्रांतिकारियों ने देश की आजादी के लिए खुद की कुर्बानी देकर हमेशा के लिए अमर हो गए।

अशफाक और बिस्मिल की अमर जोड़ी

आजादी के आंदोलन में कई वीर सपूतों ने अपनी जान की बलि दे दी..... कईयों ने अपनी हिम्मत और जज्बे से ऐसी गौरव गाथा लिखी जो आने वाली पीढ़ी के लिए मिसाल बन गयी। ऐसे ही क्रांतिकारी वीर सपूत थे अशफाक उल्लाह खां और राम प्रसाद बिस्मिल...। अशफाक ने बिस्मिल साथ मिलकर ब्रिटिश सरकार की नींव हिला कर रख दीं। 1920 में बिस्मिल से अशफाक उल्लाह खां की मुलाकात हुई और दोनों दोस्त बन गए। यह दोस्ती काकोरी कांड के बाद इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गई। दोनों अमर सपूतों की दोस्ती और त्याग सांप्रदायिक सौहार्द की मिसाल है।

राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्लाह खां की दोस्ती और देश को आजाद कराने के जज्बे ने देश की जनता में आजादी की चाह को और जगा दिया। दरअसल राम प्रसाद बिस्मिल और अशफाक उल्लाह खां सिर्फ काकोरी कांड में ही मुख्य आरोपी ही नहीं थे बल्कि दोनों एक दूसरे को जान से भी ज्यादा चाहते थे। दोनों ने जान दे दीपर एक-दूसरे को धोखा नहीं दिया। राम प्रसाद बिस्मिल के नाम के आगे पंडित जुड़ा था वहीं अशफाक मुस्लिम थे... लेकिन दोनों की दोस्ती और उद्देश्य की राह में मजहब कभी रोड़ा नहीं बना। क्योंकि दोनो का मकसद एक ही था.... आजाद मुल्क.... वो भी मजहब या किसी और आधार पर हिस्सों में बंटा हुआ नहीं बल्कि पूरा का पूरा हिंदुस्तान...... ।

दरअसल अशफाक उल्लाह खां का बचपन से ही शायरी और कविता के प्रति काफी लगाव था। उनके बड़े भाई रियासत उल्लाह खां और राम प्रसाद बिस्मिल सहपाठी थे। रियासत उल्लाह खां अपने भाई को बिस्मिल के काम और शायरी के बारे में अक्सर बताते रहते थे जिसे सुन-सुनकर अशफाक, राम प्रसाद बिस्मिल से मिलने के लिए बेचैन हो गए।

इसी बीच 1920 में बिस्मिल शाहजहांपुर आए जहां अशफाक की बिस्मिल से पहली मुलाकात हुई। इसके बाद दोनों के बीच 1922 में असहयोग आंदोलन के दौरान काफी घनिष्ठ संबंध बन गए। चौरी-चौरा कांड के बाद जब महात्मा गांधी ने असहयोग आंदोलन वापस लिया तब देश के बहुत से युवाओं को लगा कि उनके साथ धोखा हुआ है। उन युवाओं में अशफाक भी शामिल थे। इसी दौरान देश को आजाद कराने के मकसद से वे बिस्मिल के करीब आए और ये दोस्ती समय के साथ गहरी होती चली गई जो आखिरी सांस तक बनी रही और इतिहास में बिस्मिल और अशफाक की जोड़ी अमर हो गई।

अंग्रेजों की लाख कोशिशों के बावजूद नहीं पड़ी दोस्ती में दरार

जब दो देश भक्त एक साथ मिलें तो आजादी की चाह और ज्यादा बढ़ गई। जल्द से जल्द आजादी पाने की चाह और हथियार के दम पर भारत को अंग्रेजों के चंगुल से छुड़ाने के लिए इन दोनों दोस्तों ने काकोरी ट्रेन में डकैती की... जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल के नेतृत्व में अशफाक उल्लाह खां ने सबसे अहम भूमिका निभाई। हालांकि कुछ वक्त बाद दोनों दोस्त गिरफ्तार कर लिए गए और अलग-अलग जेलों में रखे गए। गिरफ्तारी के दौरान कई अंग्रेज मुलाजिमों ने अशफाक और बिस्मिल की दोस्ती को हिंदू-मुस्लिम के आधार पर तोड़ने की भरपूर कोशिश की। वे अशफाक को बिस्मिल के खिलाफ भड़का कर वो उनसे सच उगलवाना चाहते थे। लेकिन अशफाक तो अशफाक थे। उनके दिल में देश प्रेम और दोस्ती का वो जज्बा था कि चाह कर भी अंग्रेज उनसे कुछ उगलवा न सके। तत्कालीन पुलिस अधीक्षक के ज्यादा दबाव और सरकारी गवाह बनाने की लालच देने पर अशफाक ने जवाब दिया था “  खान साहब! पहली बातमैं पंडित राम प्रसाद बिस्मिल को आपसे अच्छी तरह जानता हूं… और जैसा आप कह रहे हैंवो वैसे आदमी नहीं हैं. दूसरी बातअगर आप सही भी हों तो भी एक हिंदू होने के नाते वो ब्रिटिशोंजिनके आप नौकर हैंउनसे बहुत अच्छे होंगे।“ 

बिस्मिल की आत्मकथा में अशफाक का जिक्र खूब

इसी तरह बिस्मिल जब गोरखपुर जेल में कैद में थे तब उन्होंने दो दिन के अंदर अपनी पूरी आत्मकथा लिख दी थी। 200 पन्नों की इस आत्मकथा में बिस्मिल ने अपने अजीज दोस्त अशफाक उल्लाह खां का खूब जिक्र किया है। उन्होंने अशफाक के लिए लिखा “तुम एक सच्चे मुसलमान तथा सच्चे देशभक्त थे। तुम ने स्वदेशभक्‍ति के भावों को भली भांति समझने के लिए ही हिन्दी का अच्छा अध्ययन किया। अपने घर पर जब माता जी तथा भ्राता जी से बातचीत करते थेतो तुम्हारे मुंह से हिन्दी शब्द निकल जाते थेजिससे सबको बड़ा आश्चर्य होता था। 

जिंदगी भर दोस्ती निभाने वाले अशफाक और बिस्मिल दोनों को अलग-अलग जगह पर फांसी दी गई। अशफाक को फैजाबाद में और बिस्मिल को गोरखपुर में...। दोनों साथ ही इस जहान से गए और अपनी दोस्ती भी लेते गए.... लेकिन छोड़ गए एक विरासत जिसे याद कर हम आज भी गर्व से भर जाते हैं।

एक बेहतरीन शायर भी थे अशफाक उल्लाह खां

ये बात कम ही लोगों को पता है कि हंसते हंसते देश के लिए अपने प्राणों की बलि देने वाले अशफाक उल्लाह खां एक बेहतरीन शायर भी थे। बचपन से ही शायरी में दिलचस्पी रखने वाले अशफाक जब राम प्रसाद बिस्मिल से मिले तो उनकी कलम की स्याही भी लाल होने लगी और देश प्रेम के साथ ही आजादी की चाह उनकी रचनाओं में काफी मुखर हो गए।

             “कुछ आरजू नहीं है, है आरजू तो ये है,

              रख दे कोई जरा सी, खाके वतन कफन में....।

फांसी से पहले अपनी अंतिम इच्छा को इस तरह बयां करने वाले अशफाक उल्लाह खां ने सिर्फ क्रांतिकारी गतिविधियों से ही नहीं बल्कि अपनी लेखनी से भी देश के लोगों के दिलों को झकझोर कर रख दिया।

देश की आजादी के लिए सौ बार मरने-मिटने को तैयार रहने वाले अमर शहीद अशफाक उल्लाह खां ने जिस दिलेरी और जांबाजी से अंग्रेजों के दांत खट्टे किए.... उसी जज्बे के साथ उन्होंने अपनी कलम भी चलाई। उनकी हर रचना देश भक्ति और मातृभूमि के लिए समर्पित है।

हसरतउपनाम से लिखते थे कविता और शायरी

बचपन से ही अशफाक उल्लाह खां को कविता और शायरी से प्रेम था। घर-परिवार और दोस्तों के बीच वो अक्सर शेर और नज्म सुनाया करते थे। राम प्रसाद बिस्मिल से मिलने के बाद तो यह शौक परवान चढ़ गया। उनकी हर कविता और शायरी देश भक्ति और देश प्रेम पर आधारित है। कविता में वो अपना उपनाम ‘हसरत’ लिखा करते थे। उर्दू के अलावा वे हिंदी और अंग्रेजी में लेख और कविताएं लिखा करते थे। हालांकि बेहतरीन होते हुए भी उन्होंने कभी अपनी शायरी और कविता को छपवाने की कोशिश नहीं की। वो कहते थे  “हमें नाम पैदा करना तो है नहीं। अगर नाम पैदा करना होता तो क्रांतिकारी काम छोड लीडरी न करता।“ उनकी लिखी हुईं कविताएं अदालत जाते समय अक्सर काकोरी कांड के क्रांतिकारी गाया करते थे। 

अपनी भावनाओं को इजहार करते हुए अशफाक उल्लाह खां ने लिखा था कि

           “जमीं दुश्मन, जमां दुश्मन, जो अपने थे पराए हैं

            सुनोगे दास्तां क्या तुम मेरे हाले परेशां की...।

भारत के आजादी के इतिहास में बिस्मिल और अशफाक की दोस्ती हिंदू-मुस्लिम एकता का बेजोड़ उदाहरण है। देश के शहीदों को समर्पित करते हुए अशफाक ने लिखा कि

           “बुज़दिलों को सदा मौत से डरते देखा,

           गो कि सौ बार रोज़ ही उन्हें मरते देखा।


           मौत से वीर को हमने नहीं डरते देखा,

           तख्ता-ए-मौत पे भी खेल ही करते देखा।

                                          

जवानी के दिनों में गांधीवादी विचारधारा को पसंद करने वाले अशफाक ने गुलामी के विरोध में एक मशहूर नज़्म लिखी.... जो आज भी वतन पर मर मिटने का जोश और जज्बा पैदा करता है।

         “कस ली है कमर अब तोकुछ करके दिखाएंगे,

          आजाद ही हो लेंगेया सर ही कटा देंगे।

 

इसी कड़ी में जज्बात और जोश को आगे बढ़ाते हुए अशफाक लिखते हैं...

           “हटने के नहीं पीछेडरकर कभी जुल्मों से,

            तुम हाथ उठाओगेहम पैर बढ़ा देंगे।

 

अशफाक यहीं नहीं रुकते हैं और ना ही फांसी से डरते हैं...

            “दिलवाओ हमें फांसीऐलान से कहते हैं,

             खूं से ही हम शहीदों केफ़ौज बना देंगे।

 

इस सिलसिले को आगे बढ़ाते हुए गुलामी के दिनों में भी वो आजादी के ताने-बाने को कुछ इस अंदाज में बयां करते दिखे...

              “मुसाफ़िर जो अंडमान केतूने बनाए ज़ालिम,

               आज़ाद ही होने परहम उनको बुला लेंगे।

 

गुलामी को एक कलंक की तरह देखने वाले अशफाक ने देश की माली हालत को बर्बाद होते देखकर अपना दर्द ऐसे बयां किया था

              "वो गुलशन जो कभी आबाद था गुजरे जमाने में,

              मैं शाखे-खुश्क हूँ हाँ! हाँ! उसी उजड़े गुलिस्ताँ की।"

 

देश की आजादी के लिए अशफाक हर पल मर-मिटने के लिए तैयार रहते थे। अपने इस हौंसले को उन्होंने कुछ इस तरह कहा जो आज भी रगों में जोश भर देता है।

            "मौत एक बार जब आना है तो डरना क्या है!

             हम इसे खेल ही समझा किये मरना क्या है?

             वतन हमारा रहे शादकाम और आबाद,

             हमारा क्या है अगर हम रहेरहे न रहे।"

हालांकि तमाम कठिनाईयों और परेशानियों के बावजूद उन्हें ये भरोसा था कि एक दिन हमारा देश आजाद होगा.... तभी तो उन्होंने कहा था

             "बहुत ही जल्द टूटेंगी गुलामी की ये जंजीरें,

            किसी दिन देखना आजाद ये हिन्दोस्ताँ होगा।"

 अशफाक दूरदर्शी भी थे.. मुल्क के आजाद होने को लेकर वे पूरी तरह से आश्वस्त तो थे..लेकिन एक डर भी उनके मन में था.. उस वक्त के राजनीतिक हालात और नेताओं के रवैये को लेकर वे आशंकित भी थे..उन्हें अंदेशा था कि आजादी के बाद सत्ता की होड़ में देश के लिए बलिदान देने वालों की चर्चा शायद कम होगी..अपनी इस भावना को उन्होंने 1927 में कलम के जरिए शब्द भी दिए..

                जुबाने-हाल से अशफाक की तुर्बत ये कहती हैमुहिब्बाने-वतन ने क्यों हमें दिल से भुलाया है?

                 बहुत अफसोस होता है बड़ी तकलीफ होती हैशहीद अशफाक की तुर्बत है और धूपों का साया है!

अशफाक का बलिदान देश कभी नहीं भूलेगा..साथ ही उनके कलम से निकले हर शब्द आने वाली हर पीढ़ी को गुलामी की त्रासदी की याद दिलाने के साथ ही देश के लिए मर-मिटने का जज्बा भी पैदा करते रहेगा।

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