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दृढ़ निश्चय और उदात्त विचारों के संगम का नाम है ‘लाल बहादुर शास्त्री’

Lal Bhadur Shahstri ji

भारतीय राजनीति में जब भी सादगी की बात होगी, लाल बहादुर शास्त्री का नाम पहले पायदान पर होगा। हालांकि सादगी उनके व्यक्तित्व का सिर्फ एक पक्ष थी। संकटों को सुलझाने की उनकी काबिलियत और मजबूत फैसले करने जैसी बातें भी उन्हें बाकी राजनेताओं से अलग करती है। 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान शास्त्री जी का दिया हुआ ‘नारा जय जवान जय किसान’ देश का राष्ट्रीय नारा बन गया। जो लाल बहादुर शास्त्री की दूरदर्शिता और मजबूत इरादों को बखूबी दर्शाता है। कुल मिलाकर कहें तो बेहद ईमानदार, दृढ़ संकल्प, शुद्ध आचरण, महान परिश्रमी और ऊंचे आदर्शों में पूरी आस्था रखने वाले निरंतर सजग व्यक्तित्व का ही नाम है लाल बहादुर शास्त्री...।

लाल बहादुर शास्त्री खुद के बारे में स्वयं कहते थे---" शादय मेरे लंबाई में छोटे होने और विनम्र होने के कारण लोगों को लगता है कि मैं बहुत दृढ़ नहीं हूँ। यद्यपि शारीरिक रूप से मैं मजबूत नहीं हूँ लेकिन मुझे लगता है कि मैं आंतरिक रूप से इतना कमजोर भी नहीं हूँ। उन्होंने इस बात को 1965 में हुए भारत-पाक युद्ध के दौरान सिद्ध भी कर दिया… जब भारत ने पाकिस्तान को करारी मात दी।

विनम्र स्वभाव और दृढ़ इच्छाशक्ति के धनी थे लाल बहादुर शास्त्री

2 अक्टूबर, 1904 को उत्तर प्रदेश के मुगलसराय में जन्में लाल बहादुर शास्त्री ने व्यक्तिगत जीवन से लेकर राजनीतिक जीवन और भारत के प्रधानमंत्री के तौर पर जिस दृढ़ता और विश्वास के साथ अपने कर्तव्यों का पालन किया वो इतिहास में अमर हो गया। ‘जय जवान जय किसान’ का नारा देने वाले लाल बहादुर शास्त्री ने 1965 की लड़ाई में पाकिस्तान को चारो खाने चित कर पूरी दुनिया को ये संदेश दे दिया कि अहिंसा में विश्वास रखने के बावजूद अगर देश की अस्मिता और अस्तित्व पर खतरा होगा तो भारतवासी जंग से भी दूर नहीं रहेंगे।

प्रधानमंत्री के रूप में लाल बहादुर शास्त्री

1964 में जब देश के पहले प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू का निधन हो गया तब देश को नेतृत्व प्रदान करने का भार लाल बहादुर शास्त्री के कंधों पर आ गया। 2 जून 1964 को वे कांग्रेस संसदीय दल के नेता चुने गए। 9 जून 1964 को उन्होंने प्रधानमंत्री के रूप में शपथ ली और 11 जनवरी 1966 को अपने निधन तक देश के प्रधानमंत्री रहे। प्रधानमंत्री के तौर पर 18 माह की छोटी सी अवधि के दौरान उन्हें अनेक समस्याओं और चुनौतियों का सामना करना पड़ा, लेकिन बिना विचलित हुए अपनी सूझबूझ से न केवल उनका समाधान ढूंढ़ा बल्कि एक नई इबारत लिख दी। इस दौरान उन्होंने चीन के हाथों 1962 के युद्ध में हुई पराजय की ग्लानि को साल 1965 के भारत-पाक युद्ध में विजय श्री का सेहरा पहना कर देश को ग्लानि से मुक्त करा दिया।

लाल बहादुर शास्त्री की दूरदर्शिता ने जीताया 1965 का भारत-पाक युद्ध

भारत-पाकिस्तान के बीच हुए 1965 में युद्ध में लाल बहादुर शास्त्री ने जिस सूझबूझ, रणनीतिक कुशलता और दृढ़ नेतृत्व का परिचय दिया, वह भारतीय राजनीतिक इतिहास में एक मिसाल बन गया। पाकिस्तान बंटवारे के बाद से ही भारत के खिलाफ बुरी नजर रखता है। और जब 1962 की लड़ाई में भारत चीन से हार गया तब पाकिस्तान को यह भ्रम हो गया कि भारतीय सेना के हौसले पस्त हैं। उस वक्त पाकिस्तान ने अपने हजारों सैनिकों के साथ भारत पर हमला कर दिया। पाकिस्तान ने इस ऑपरेशन को ‘ऑपरेशन जिब्राल्टर’ नाम दिया। पाकिस्तान का लक्ष्य था कश्मीर के ऊंचाई वाले इलाकों गुलमर्ग, पीरपंजाल, उरी और बारामूला समेत पूरे कश्मीर पर कब्ज़ा करना, लेकिन तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री द्वारा अपनाई गई रणनीति के चलते पाकिस्तान की योजना धरी की धरी रह गई और उसे मुंह की खानी पड़ी।

लाल बहादुर शास्त्री ने युद्ध के वक्त में जवानों की हौसला अफजाई में कोई कोर कसर नहीं छोड़ी। उन्होंने सेना को खुली छूट दे दी कि सीमा के पार अपनी कार्रवाई को अंजाम दें। शास्त्री जी के इस आदेश के बाद भारतीय सेना अंतर्राष्ट्रीय सीमा को पार कर गई और पाकिस्तान में घुसकर दो तरफा हमला की। शास्त्री जी के इस फैसले ने पाक सेना को हैरत में डाल दिया और इसी कारण उसे छांब-अखनूर सेक्टर से अपनी सेना को हटाकर लाहौर और सियालकोट तक ही सीमित रखना पड़ा। इस मौके पर 15 अगस्त 1965 को लाल किले के प्राचीर से दी गई उनकी भाषण उनके दृढ़ निश्चय और मजबूत व्यक्तित्व को बखूबी दर्शाते हैं।

युद्ध के दौरान ही संयुक्त राष्ट्र संघ ने संघर्ष विराम का प्रस्ताव रखा जिस पर दोनों देशों ने अपनी सहमति जताई। इसके बाद 10 जनवरी 1966 को ताशकंद समझौता हुआ। समझौते में यह तय हुआ कि दोनों देश अपनी शक्ति का प्रयोग नहीं करेंगे और झगड़ों को शांतिपूर्ण ढंग से हल करेंगे।

‘जय जवान जय किसान’

हरे-भरे लहलहाते खेतों को देख हमें हमारे अन्नदाता ...और सीमा पर बहादुरी से दुश्मन को धूल चटाने वाले तीनों सेना के जवानों पर गर्व होता है। एक राष्ट्र के तौर पर हमारी इस ताकत और उन्नति में पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री का बहुत बड़ा योगदान है। 1964  में जब लाल बहादुर शास्त्री ने प्रधानमंत्री का पदभार ग्रहण किया तो उनका कार्यकाल राजनीतिक सरगर्मियों से भरा और तेज गतिविधियों का काल था। यह भारत के इतिहास में चुनौतिपूर्ण समय था और देश कई समस्याओं से जूझ रहा था। देश में खाद्यान की कमी थी और पाकिस्तान सुरक्षा के मोर्चे पर समस्या खड़ा कर रहा था। भारत की आर्थिक समस्याओं से प्रभावी ढंग से न निपट पाने के कारण शास्त्री जी की आलोचना भी हुई, लेकिन वो देश के उस दृढ़ नेता के तौर पर उभरे जिन्होंने अपनी सेना को आत्मविश्वास और जोश से भर पाकिस्तान को सबक सिखाया। सैनिकों के प्रति शास्त्री जी के मन में जो आदर और विश्वास था उतना ही अपने किसानों के प्रति भी नजर आया। सैनिकों और किसानों को उत्साहित करने के लिए उन्होंने “जय जवान जय किसान का नारा दिया।

सेना और किसान दोनों को उचित सम्मान दिया

सेना और किसान को एक साथ एक लाकर शास्त्री जी ने उनमें नैतिकता और ऊर्जा का जो पूंज भरा वह देश की सीमा पर और खेत में दोनों जगह लहलहाते दिखा। लाल बहादुर शास्त्री द्वारा दिया गया ‘जय जवान जय किसान’ का नारा सिर्फ एक नारा नहीं था बल्कि सरहद पर खड़े जवान और खेत में काम करने वाले किसान की अटूट मेहनत और श्रम के प्रति सम्मान को दर्शाता है। 1965 में भारत पाकिस्तान युद्ध के दौरान अक्टूबर 1965 में दशहरे के दिन दिल्ली के रामलीला मैदान में तत्कालीन प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री ने देश की जनता को संबोधित करते हुए कृषि उत्पादन में आत्मनिर्भरता के लिए पहली बार ‘जय जवान जय किसान’ का नारा दिया।  शास्त्री जी देश निर्माण और उसकी सुरक्षा में सैनिकों और किसानों का महत्व काफी अच्छे से समझते थे इसलिए उन्होंने उस दौर में जय जवान जय किसान का नारा दिया.... जो आज भी फिजा में गूंजता रहता है।

शास्त्रीजी के आह्वान पर देशवासियों ने अपने चूल्हे बंद कर दिए

शास्त्री जी ने 'जय जवान, जय किसान' का उद्घोष करने के साथ ही देशवासियों से सप्ताह में एक दिन उपवास की अपील की। उस वक्त भुखमरी और अकाल जैसी समस्याओं के रहते इसका सटीक जवाब किसी को नहीं सूझ रहा था। आबादी के इसी तरह बढ़ते रहने और अनाज की ठहरी हुई पैदावार की दशा में देश का क्या होगा? आजादी के बाद से 1960 तक देश में गेहूं और चावल की पैदावार औसतन प्रति हेक्टेयर एक मीट्रिक टन पर स्थिर थी जबकि इस दौरान खेती का रकबा लगातार बढ़ा।पर्याप्त अनाज नहीं उगा पाने कीविवशता में देश जहाजों में लदकर आने वाले अमेरिकी गेहूं का मोहताज बन गया था और 'शिप-टु-माउथ' जैसा मुहावरा हमारी अर्थव्यवस्था को मुंह चिढ़ा रहा था।

वहीं जब भारत-पाक युद्ध शुरू हुआ, उस दौरान देश में अनाज की कमी हो गई। संयुक्त राज्य अमेरिका ने भारत को अनाज का निर्यात रोकने की धमकी तक दे डाली। शास्त्री जी जानते थे कि खाद्यान्न के लिए भारत पूरी तरह अमेरिका पर निर्भर है लेकिन वे इस धमकी के आगे नहीं झुके... और यैसी नाजुक परिस्थिति में शास्त्री जी ने देश के आम लोगों से आह्वान किया कि सप्ताह में एक दिन उपवास रखा जाए। उनके इस आग्रह का देश के लोगों पर जबर्दस्त प्रभाव पड़ा। घर-घर के साथ ही कई रेस्त्रां और होटल ने भी उनके आह्वान पर कुछ दिनों तक शाम को अपने चूल्हे बंद रखे।

हरित क्रांति के प्रणेता बने लाल बहादुर शास्त्री

इस संकट से निपटने के लिए लाल बहादुर शास्त्री ने कृषि के विस्तार के लिए सिंचाई और खनिज उर्वरकों के साथ-साथ ज्यादा पैदावार वाली किस्मों के विस्तार को खूब समर्थन दिया। उन्होंने मैक्सिको से गेहूं के बीजों के आयात की मंजूरी दी और इसे ‘समय की मांग’ करार दिया। इन सभी प्रयासों के चलते बौने गेहूं का क्षेत्र 1964 में महज 4 हेक्टेयर से बढ़कर 1970 में 40 लाख हेक्टेयर तक पहुंच गया। सन 1968 में हमारे किसानों ने रिकॉर्ड 170 लाख टन गेहूं का उत्पादन किया, जबकि इससे पहले सर्वाधिक 120 लाख टन उत्पादन 1964 में हुआ था। शास्त्री जी के जय किसान के नारे ने किसानों को जोश से भर दिया एक क्रांति आ गई....पूरे देश के किसानों ने पैदावार और उत्पादन को बढ़ाने के लिए जी तोड़ मेहनत की जो हरित क्रांति में तब्दील हो गई। शास्त्री जी की दूरदर्शिता का ही नतीजा था कि 1968 में देश की आबादी जब 1947 के मुकाबले करीब डेढ़ गुनी हुई, तब गेहूं उत्पादन तीन गुना बढ़ा और नब्बे का दशक आते-आते देश अनाज उत्पादन में आत्मनिर्भर बन गया।

ईमानदारी, राजनीतिक शुचिता और उच्च नैतिक आदर्श की मिसाल

लाल बहादुर शास्त्री ने राजनीति में जितनी कर्मठता और दृढ़ निश्चय का परिचय दिया उतना ही सत्यनिष्ठा, ईमानदारी और उच्चतम आदर्शों का पालन भी किया। वे करुणा, समानता जैसे विचारों पर चलने वाले सही अर्थों में एक ‘सेवाभावी नेता’ थे। जीवन और नेतृत्व को लेकर उनके विचार तड़क-भड़क, शब्दों से खेलने या बात घुमाने के नहीं थे, बल्कि वे मानवता, ईमानदारी और सिद्धांतों के प्रति निष्ठावान हो कर काम करने वाले व्यक्ति थे।

अपनी ईमानदारी, सादगी और उच्च नैतिक आदर्शों के लिए पहचाने जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री ने सत्ता को कभी भी सुख और वैभव भोगने का साधन नहीं माना। प्रधानमंत्री के रूप में ही नहीं बल्कि अन्य पदों पर रहते हुए भी उन्होंने उच्च आदर्श और नैतिकता का उदाहरण पेश किया। 1956 में जब वो रेल मंत्री थे तब एक रेल दुर्घटना हुई जिसमें कई लोग मारे गए थे। खुद को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया। तब भी शास्त्री जी ने अपने आचरण से राजनीति में नैतिकता की एक अलग मिसाल कायम की।

सामाजिक चेतना के लिए भी शास्त्री जी ने कई उत्कृष्ट कार्य किए और लोगों को जागरूक किया। लाल बहादुर शास्त्री महात्मा गांधी के राजनीतिक शिक्षाओं से काफी प्रभावित थे। महात्मा गांधी की तरह एक बार उन्होंने कहा था कि “मेहनत प्रार्थना करने के समान है।” उन्होंने देश की एकता पर जोर देते हुए कहा था कि तरक्की के लिए हमें आपस में लड़ने की बजाय गरीबी, बीमारी और अज्ञानता से लड़ना होगा और हमारी ताकत और मजबूती के लिए सबसे जरूरी काम है देश की एकता को स्थापित करना।

जनता से सीधे संवाद की कला में माहिर

अपनी साफ-सुथरी छवि, सादगी, सरलता और आम जनता से सीधे संवाद की कला ने उन्हें एक अलग पहचान दिलाई। 1964 में प्रधानमंत्री बनने के बाद उन्होंने देश को ना सिर्फ सैन्य गौरव का तोहफा दिया बल्कि हरित क्रांति और औद्योगीकरण की राह भी दिखाई।

शास्त्री जी के प्रधानमंत्री कार्यकाल का सबसे अहम फैसला पाकिस्तान के साथ ताशकंद समझौता था। इसी समझौते के बाद 11 जनवरी, 1966 को उनका निधन हो गया। शास्त्री जी के विचार और आदर्श आज भी देश की जनता को राह दिखाते हैं। लाल बहादुर शास्त्री ने राजनीतिक और सामाजिक जीवन में जिन मूल्यों को स्थापित किया उससे न सिर्फ युवा वर्ग को बल्कि आज के दौर के राजनेताओं को भी सबक लेने की जरूरत है।

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