मुज़फ़्फ़रपुर बम कांड का नायक: जिसने 18 साल की उम्र में आजादी के लिए फांसी के फंदे को चूम लिया
“सन उन्नीस सौ का वर्ष आठ
अप्रैल तीस शुभ दिन पाया।
उस दुष्ट फोर्ड का वध करने
वह दिवस काल बनकर आया”।
“स्वराज्य हेतु निज कर्मों को
अपराध नहीं माना उसने।
वह उसका वध करने आया
निर्दोषों को मारा जिसने”।
भारतीय स्वाधीनता के इतिहास में हजारों-हजारों लोगों ने शानदार ढंग से अपना बलिदान दिया। किसी का भी त्याग किसी से कम नहीं है फिर भी एक बच्चे खुदीराम बोस से जिस ढंग से फांसी का फंदा चूमा उससे सिर्फ भारत का ही नहीं पूरी दुनिया के शौर्य, बलिदान का इतिहास गौरवान्वित हुआ। अंग्रेजों के खिलाफ आजादी की लड़ाई में महज 18 साल की छोटी सी उम्र में खुदीराम फांसी का फंदा हंसते हंसते चूम लिया था। देश की बलिवेदी पर अपने प्राणों की आहुति देने वाले अमर शहीर खुदीराम बोस का नाम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में अमिट है।
देश के लिए कुर्बानी देने वाला किशोर क्रांतिकारी खुदीराम बोस
“एक बार विदाई दे मा घुरे आसी, हसी हसी पोरबो फांसी, देखबे भारतबासी”
‘ओ माँ, मुझे एकबार विदा दो तुरंत घूमकर आता हूं, हंसता हंसता फांसी के फंदे पर चढ़ जाऊंगा और सारे भारतवासी देखेंगे’।
ये पंक्तियां उस शेर-ए-हिंद क्रांतिकारी के सम्मान में कही गई हैं, जो महज 18 साल की उम्र में देश की आजादी के लिए फांसी के फंदे पर झूल गया। उस महान क्रांतिकारी खुदीराम बोस के लिए जिन्होंने फांसी के फंदे पर झूलने से पहले जज को दृढ़ता से जवाब देते हुए कहा था कि ‘मुझे अपने किए पर कोई पछतावा नहीं है बल्कि गर्व है’।
देश कि आजादी के लिए हंसते-हंसते मौत को गले लगाने वाला यह दुबला-पतला धोती पहने किशोर बंगाल के मेदिनीपुर से चलकर बिहार के मुजफ्फरपुर तक आता है। अंग्रेजों से जुल्म का बदला और देश के लिए कुछ कर गुजरने का जज्बा लिए। उसके निशाने पर था मुजफ्फरपुर का मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड...। दरअसल भारत में सशस्त्र संघर्ष की नींव रखने वाले अनुशीलन समिति और युगांतर जैसी क्रांतिकारियों की संस्था युगांतर ने तय किया था कि कोलकाता में क्रांतिकारियों के साथ क्रूरता बरतने वाले जज किंग्सफोर्ड से बदला लेना है और इस बदले की जिम्मेदारी जिम्मेदारी खुदीराम बोस और प्रफुल्लचंद चाकी को दिया था।
बंगाल में क्रांतिकारी चेतना का विकास
दरअसल 19वीं सदी के अंतिम दशक में पूरे देश में अंग्रेज विरोधी चेतना का विकास पूरी तरह से हो चुका था। 1857 के महान राष्ट्रीय संग्राम को अंग्रेजों ने जिस कठोरता से दबाया था उसके प्रति गुस्सा पूरे उत्तर भारत में थी लेकिन बंगाल के उन हिस्सों में जहां बांग्ला भाषा बोली जाती थी 1857 के विद्रोह का कोई खास असर नहीं हुआ था। इन हिस्सों में राष्ट्रवादी चेतना का विकास 1860 के दशक में अलग-अलग रूप में शुरू हुआ। लेकिन 1900 के बाद क्रांतिकारी गतिविधियां तेज होने लगीं और धीरे-धीरे छात्र समुदाय का समर्थन क्रांतिकारी संगठनों को मिलने लगा। इन्हीं दिनों अरविंद घोष के क्रांतिकारी विचार, सखाराम गणेश देउस्कर का अंग्रेजी राज में आर्थिक शोषण का प्रामाणिक दस्तावेज और कांग्रेस के गरम दल के नेता बाल गंगाधर तिलक के आंदोलन ने क्रांतिकारी आंदोलन के फैलने में काफी मददगार साबित हुआ। लेकिन क्रांतिकारी आंदोलन तीव्र तब हुआ जब कर्जन ने बंगाल को विभाजित करने की योजना को कार्यरूप देने की कोशिश की। इसे लेकर कलकत्ता से पूर्वी बंगाल और मेदिनीपुर तक अंग्रेजों के खिलाफ आंदोलन तेज होने लगे और कांग्रेस के भीतर क्रांतिकारी और उग्रवादी कहे जाने वाले नेताओं का जोर बढ़ने लगा। 1905 से लेकर 1907 के बीच बंगाल में अंग्रेज विरोधी जो आंदोलन हुए उसने भारतीय स्वाधीनता आंदोलन के चरित्र को बदल दिया। यही वह आंदोलन था जिसके बाद राष्ट्रीय आंदोलन जन आंदोलन का रूप लेने लगा, मध्यमवर्ग का चरित्र बदलने लगा और यह स्पष्ट हो गया कि अंग्रेजों के खिलाफ तीव्र जनाक्रोश है। स्वदेशी आंदोलन ने पूरे बंगाल को झकझोर दिया। लेकिन 1907 के अंत तक आते आते यह आंदोलन शिथिल पड़ने लगा। ऐसे समय में 30 अप्रैल 1908 को बिहार के मुजफ्फरपुर में एक घटना घटी जिसे 1857 के विद्रोह के बाद की सबसे बड़ी घटना के रूप में देखा गया। इस घटना में पहली बार इस देश में किसी शिक्षित भारतीय ने बम जैसी विध्वंसकारी चीज का इस्तेमाल एक अंग्रेज के खिलाफ किया था। तत्कालीन राष्ट्रवादी पत्रिका केसरी ने अपने 26 मई 1908 के अंक में लिखा कि “ न तो 1897 के जुबली हत्याकांड और न ही सिख रेजिमेंट के साथ हुए छेडछाड ने इतना बवाल मचाया जितना इस कि इस घटना ने। बम फेंकने वाले उन दो किशोरो ने उस महान गौरव गाथा को जन्म दिया जो आज भी करोड़ों भारतवासियों को दिल में प्रेरणा का संचार करते हैं।
खुदीराम नाम कैसे पड़ा?
खुदीराम बोस का जन्म 3 दिसंबर 1889 को मिदनापुर जिले के हबीबपुर गांव में हुआ था। पिता त्रैलोक्यनाथ बसु और माता लक्ष्मी प्रिया के तीन बेटियां होने के बाद पुत्ररत्न की बहुत चाह थी। दो पुत्र अल्पायु में ही गुजर चुके थे। ऐसे में बड़ी मन्नत के बाद खुदीराम का जन्म हुआ था। उन दिनों नवजात की सलामती के लिए कोई उसे खरीद लेता था। खुदीराम को बचाने के मकसद से उनकी दीदी ने उन्हें तीन मुठ्ठी खुदी (चावल का छोटा टुकड़ा) देकर उन्हें खरीद लिया। इस तरह नाम पड़ा – खुदीराम...
बचपन में ही पड़ गया था क्रांतिकारी संस्कार
खुदीराम तो बच गए लेकिन उन्हें माता-पिता का प्यार नहीं मिल सका। जब वह मात्र 6 साल के ही थे तब पहले माता और फिर पिता का चल बसे। ऐसे में दीदी अपरूपा देवी ने नन्हें खुदीराम का पालन-पोषण किया। घर पर अक्षर ज्ञान करवाने के बाद खुदीराम का नाम तामलुक के हैमिल्टन स्कूल में लिखवाया गया। तीसरी कक्षा में उनका दाखिला मिदनापुर के कॉलेजिएट स्कूल में हुआ, जो आज के 8वीं कक्षा के बराबर है। खुदीराम का मन पढ़ाई में कम देश सेवा में अधिक लगने लगा था। दरअसल 8 साल की उम्र में ही उन्होंने वंदे मातरम और आनन्द मठ उपन्यास पढ़ लिया था। इससे उनके मस्तिष्क पर गहरी छाप पड़ी और क्रांति का बीजारोपण 13 साल की छोटी उम्र में ही हो गया। 9वीं की पढ़ाई के बाद तो खुदीराम पूरी तरह से क्रांतिकारी बन गए थे।
क्या कमाल का जज्बा था इस नन्हे बच्चे में देश पर कुर्बान होने की। स्कूली दिनों में ही युगांतर समिति के क्रांतिकारियों से जुड़ गए। 1902 में जब अरविंद घोष और भगिनी निवेदिता मेदिनीपुर में गुप्त सभाओं में क्रांतिकारियों से संपर्क करते थे खुदीराम उन बैठकों में नियमित रूप से शामिल होते थे।
बंगाल विभाजन के विरोध में सक्रिय भागीदारी
जुलाई 1905 में जब ब्रिटिश सरकार ने बंगाल विभाजन की घोषणा की पूरे बंगाल में इसका बेहद तीव्र विरोध हुआ। खुदीराम बोस इससे भला कहां अलग रहने वाले थे। उन्होंने पढ़ाई छोड़ी दी और स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े। साथ ही आजन्म स्वदेश सेवा का व्रत ले लिया।
बंगाल विभाजन के विरोध के दौरान फरवरी 1906 में मिदनापुर में लगे एक कृषि उद्योग मेले में क्रांतिकारी पर्चा ‘वंदे मातरम’ बांटते समय एक सिपाही ने उन्हें पकड़ लिया, लेकिन दिलेर खुदीराम ने उसकी नाक पर ऐसा घूंसा मारा कि सिपाही गिरकर बेहोश हो गया और वो भाग निकले। हालांकि वो दो महीने बाद पकड़े गए, लेकिन सबूतों के अभाव में मई 1906 में रिहा भी हो गए।
छोटी उम्र में ही खुदीराम बोस ने फ्रांस की राज्य क्रांति, क्रांतिकारियों की जीवनियां आदि पुस्तकें पढ़ डाली थी। साथ ही वंदे मातरम, जुगांतर, सांध्य जैसी क्रांतिकारी पत्रिकाओं में छपने वाली चीजों को लगातार पढ़ते। इससे उनकी वैचारिक सोच तो बढ़ी हीं.. देश भक्ति का जज्बा और बढ़ गया।
देशभक्ति का एक छोटा सा उदाहरण यह है कि 1907 के आसपास खुदीराम को मलेरिया हो गया। लोगों ने कहा कि लगता है कोई बुरी आत्मा खुदीराम में आई गई है और किसी ओझा या तांत्रिक को बुलाकर इसे दूर भगाना होगा। लेकिन देशभक्त खुदीराम ने कहा कि “यह बुरी आत्मा तभी जाएगी जब वास्तविक बुरी आत्मा यानी अंग्रेज इस देश को छोड़ कर जाएंगे।“
देशभक्ति का जज्बा ऐसा कि 1907 में जब क्रांतिकारियों के पास पैसे की कमी हो गई तब खुदीराम ने डाक लूटने की योजना बनाई और डाक का थैला छीन कर फरार हो गए। डाक छीनने के बाद खुदीराम रात के अंधेरे में आठ मील चलकर कोलाघाट होते हुए मिदनापुर पहुंच गए।
क्रूर किंग्सफोर्ड को मारने की योजना
धीरे-धीरे बंग-भंग आंदोलन जब कमजोर होने लगा। तब ब्रिटिश सरकार क्रांतिकारियों की कठोर दमन पर उतारू हो गई। उन्हें कड़ी से कड़ी सजा दी जाने लगी। क्रांतिकारियों से सबसे ज्यादा घृणा करने वालों में से एक था तत्कालीन कलकत्ता का चीफ प्रेसीडेंसी मजिस्ट्रेट किंग्सफोर्ड...। उसकी क्रूरता और निरंकुशता से पूरे बंगाल के लोग कांपते थे।
एक बार उसने एक 15 साल के किशोर सुशील सेन को सिर्फ इसलिए कोडों से पिटने का हुक्म दे दिया कि उसने एक पुलिस कर्मी को धक्का दिया था। जब यह खबर अखबारों में छपी तो इसे पढ़कर क्रांतिकारियों के खून खौल उठे। उन्होंने किंग्सफोर्ड के अमानवीय व्यवहार के लिए उससे बदला लेने का प्रण लिया। इसी दौरान 1908 में किंग्सफोर्ड का तबादला कलकत्ता से बिहार के मुजफ्फरपुर हो गया।
क्रांतिकारियों ने यह तय किया कि इस काम को अंजाम मुजफ्फरपुर जा कर दिया जाएगा, और इसके लिए दो किशोर क्रांतिकारियों का चुनाव किया गया। एक खुदीराम बोस और दूसरे प्रफुल्ल चाकी। जो खुदीराम की ही तरह क्रांतिकारी इतिहास के एक उज्जवल नक्षत्र हैं। हालांकि तब तक वे एक दूसरे को जानते भी नहीं थे और इस काम को अंजाम देने के लिए उनके अलग नाम भी रखे गए। खुदीराम बोस का नाम ‘दुर्गा दास सेन’ और प्रफुल्ल चाकी का नाम ‘दिनेश चन्द्र राय’। दोनों एक दूसरे को तब इसी नाम से जानते थे। इस तरह बंगाल में पहले राजनैतिक हत्याकांड का दायित्व दो किशोरों को सौंपा गया।
मुजफ्फरपुर बम कांड और खुदीराम बोस की दिलेरी
दिल में देशभक्ति का जज्बा लिए खुदीराम और प्रफुल्ल चाकी 10-11 अप्रैल 1908 को मुजफ्फरपुर पहुंचे। किंग्सफोर्ड की हत्या को अंजाम देने से पहले उन्होंने दो सप्ताह मुजफ्फरपुर में रहकर उसकी गतिविधियों के बारे में पता लगाया। फिर 30 अप्रैल 1908 की रात किंग्सफोर्ड की हत्या के इरादे से दोनों किंग्सफोर्ड के घर के बाहर उसका इंतजार करने लगे। रात साढ़े आठ बजे के करीब उन्हें एक घोड़ा बग्घी आते दिखाई दी। दोनों बिलकुल तैयार हो गए और पास आते ही उन्होंने उस पर बम फेंका। लेकिन दुर्भाग्य से उसमें दो महिलाएं बैठी थी। जो बैरिस्टर प्रिंग्ले कैनेडी की बेटी और पत्नी थीं।
बम फटने के बाद चारों तरफ हल्ला मच गया। पुलिस पीछे दौड़ी। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी नंगे पांव भागे। रात भर भागते रहे। खुदीराम 32 किलोमीटर भाग चुके थे। पुलिस की पहुंच से दूर।
इस घटना ने पूरी गोरी हुकूमत को हिला दिया। पूरा महकमा लग गया दोनों को पकड़ने में। पुलिस ने उनके ऊपर पांच हजार रुपया इनाम की घोषणा की।
दुर्भाग्य से तीन दिन बाद ही प्रफुल्ल चाकी को मोकामा रेलवे स्टेशन पर पुलिस ने घेर लिया। चारों ओर से पुलिस से घिरा देख प्रफुल्लचंद चाकी ने खुद को गोली मारकर अपनी शहादत दे दी। और बंगाल के पहले क्रांतिकारी शहीद बन गए।
वहीं, खुदीराम बोस ने रेलवे ट्रैक के किनारे-किनारे चलकर कलकत्ता तक पहुंचने का निर्णय लिया। लेकिन 1 मई 1908 को मुजफ्फरपुर से 20 मील दूर वैनी स्टेशन पर गिरफ्तार कर लिए गए। खुदीराम बोस पर मुकदमा चला और 13 जून को जज ने खुदीराम बोस को फांसी की सजा सुनाई। इस फैसले के खिलाफ कलकत्ता उच्च न्यायालय में अपील की गई लेकिन 13 जुलाई 1908 को हाईकोर्ट के जज ने मुजफ्फरपुर कोर्ट के फैसले को बरकरार रखा।
जब जज ने फैसला पढ़कर सुनाया तो खुदीराम बोस मुस्कुरा दिए। जज को लगा कि खुदीराम सजा को समझ नहीं पाए हैं, इसलिए वे मुस्कुरा रहे हैं। जज ने पूछा कि क्या तुम्हें सजा के बारे में पूरी बात समझ में आ गई है। इस पर खुदीराम ने कहा कि ‘ये मेरा सौभाग्य है कि जिस देश की मिट्टी का मैंने नमक खाया है, देश के लिए फांसी के तख्ते पर झूल कर आज उस मिट्टी का कर्ज चुकाने का मौका मिला है।‘
हंसते-हंसते फांसी के फंदे को चूम लिया
11 अगस्त 1908 को सुबह 6 बजकर 10 मिनट पर देश का यह वीर सपूत हंसते-हंसते फांसी पर झूल गया। तब उसकी आयु मात्र 18 साल 8 महीना और 8 दिन थी। खुदीराम बोस और प्रफुल्ल चाकी की शहादत की तुलना महान स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक ने चापेकर बंधुओं की शहादत से किया है।
बंगाल की धरती पर इस महान संतान के प्रभाव को एक बाऊल गायक के अमर गीत से समझा जा सकता है जिसे मानो खुदीराम ने फांसी पर चढ़ते हुए ही गाया है- ‘एक बार विदाई दे मां, घूरे आसि’।
“जो बीज यहाँ बोया तूने
वट वृक्ष बनेगा एक दिवस।
जिसके हर पात-पात से ही
फैलेगा तेरा यहाँ सुयश”।
“तू कालजयी, तू मृत्युंजय
तू दिव्य ज्योति, तू अविनाशी।
अभिमन्यु कहकर पूजेगा
तुझको नित हर भारतवासी”।
खुदीराम बोस को समर्पित वरिष्ठ कवि और व्यंग्यकार राजेंद्र राजा जी की यह पंक्तियां न केवल खुदीराम बोस के बलिदान की कहानी बयां करती हैं बल्कि भावी पीढ़ी को देश के लिए किए गए उनके त्याग और तपस्या के बारे में भी बताती है। खुदीराम बोस का बलिदान सदैव देशहित के लिए त्याग, सेवा और कुर्बानी की प्रेरणा देता रहेगा।