निर्वाचन आयोग और भारतीय लोकतंत्र का सफ़र
ब्रिटिश शासन के दौरान भारत में नौकरशाह रहे घोर साम्राज्यवादी सर जॉन स्ट्रेची ने 1888 में कैंब्रिज में भाषण देते हुए बड़े अहंकार से कहा था, कि भारतीय राष्ट्र नाम जैसी कोई चीज न तो अतीत में थी, न वर्तमान में है, और ही भविष्य में होने की संभावना है। पंजाब, बंगाल और मद्रास के लोग, कभी यह सोच भी नहीं सकते, कि वे किसी एक देश के नागरिक है। उसने यह भी कहा था कि अंग्रेजों के भारत छोड़ते ही यह सैकड़ों छोटे-छोटे टुकड़ों में बंट जाएगा। लेकिन भारत को आजाद हुए सात दशक से ज्यादा समय बीत चुका है और इस दौरान भारतीयों ने हर चुनौतियों के बावजूद साथ एक साथ रहना सीख लिया है... क्योंकि लोकतंत्र भारतीयों के नसों में गहरे तक समा चुका है। इस लोकतंत्र को साल दर साल जीवंत और मजबूत बनाने का काम किसी ने सबसे ज्यादा किया है, तो वह है हमारी चुनाव प्रणाली और निर्वाचन आयोग। जो हर साल 25 जनवरी को ‘राष्ट्रीय मतदाता दिवस’ के रूप में अपना स्थापना दिवस एक उत्सव के रूप में मनाता है।
15 अगस्त 1947 को भारत आजाद हो गया और 26 जनवरी 1950 को आजाद भारत गणतंत्र बन गया.... लेकिन उस वक्त सबके सामने यक्ष प्रश्न यह था कि देश गणतंत्र तो बन गया...लोकतंत्र कब बनेगा। इसके लिए आजाद भारत के सामने सबसे बड़ी चुनौती थी एक चुनी हुई सरकार की स्थापना... ताकि नए राष्ट्र में लोकतंत्र और लोकतांत्रिक सरकार की मजबूत बुनियाद डाली जा सके।
संविधान सभा में चर्चा और निर्वाचन आयोग का गठन
हालांकि हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान निर्माण के दौरान ही संविधान में इसका पुख्ता इंतजाम कर दिया था। उन्होंने सार्वभौमिक व्यवस्क मताधिकार अपनाते हुए 21 साल की आयु पूरा करने वाले हर नागरिक को बिना किसी भेदभाव के मतदान करने का अधिकार दे दिया। साथ ही स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव संपन्न कराने के लिए संविधान में एक निर्वाचन आयोग के गठन का प्रावधान भी कर दिया।
हालांकि, निर्वाचन आयोग के गठन को लेकर संविधान सभा में खूब चर्चा हुई। मौलिक अधिकार उप समिति ने चुनाव और उसके संचालन को मौलिक अधिकार में शामिल करने की सिफारिश की थी। इसके अलावा संविधान सभा के अनेक सदस्यों ने केंद्रीय और प्रांतीय स्तर पर अलग-अलग निर्वाचन आयोग स्थापित करने का प्रस्ताव पेश किया था। इन सब का जवाब देते हुए 15 जून 1949 को डॉ भीमराव अंबेडकर ने संविधान सभा में राज्यों और संघ के लिए एक ही निर्वाचन आयोग के गठन से जुड़ा संशोधन प्रस्ताव पेश किया। अंबेडकर के प्रस्ताव को चर्चा के बाद संविधान सभा ने स्वीकार कर लिया।
इसके बाद संविधान के भाग 15 में अनुच्छेद 324 से अनुच्छेद 329 तक निर्वाचन और निर्वाचन आयोग से जुड़े प्रावधानों को शामिल किया गया। और देश के गणतंत्र होने से एक दिन पहले 25 जनवरी 1950 को निर्वाचन आयोग की स्थापना की गई।
अनुच्छेद 324 के मुताबिक “संसद, राज्य विधानमंडल, राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति के पदों के निर्वाचन के लिए संचालन, निदेशन और नियंत्रण की जिम्मेदारी निर्वाचन आयोग की है।“
निर्वाचन आयोग के गठन के वक्त इसके मूल स्टाफ को संविधान सभा के सचिवालय से ही लिया गया। 21 मार्च 1950 को सुकुमार सेन ने प्रथम मुख्य निर्वाचन आयुक्त के रूप में कार्यभार संभाला। निर्वाचन आयोग के गठन के करीब एक साल के भीतर ही इसकी पहली परीक्षा की घड़ी आ गई.... जब जनप्रतिनिधित्व अधिनियम,1950 और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम, 1951 के पारित होने के बाद पहले आम चुनाव के तारीखों की घोषणा हुई।
ब्रिटिश भारत में चुनाव
हालांकि ब्रिटिश शासनकाल के दौरान 1937, 1942 और 1946 में चुनाव हुए थे लेकिन वे बेहद सीमित मताधिकार वाले चुनाव थे क्योंकि उसमें लोगों को संपत्ति, कर भुगतान की क्षमता के आधार पर वोट डालने का अधिकार मिला था। 1937 के चुनाव में तो मात्र 14 फीसदी जनता ने ही मतदान में भाग लिया था। लेकिन 1951-52 में स्वतंत्र भारत का पहला चुनाव दुनिया में अपनी तरह का सबसे विशाल लोकतांत्रिक प्रयोग था। दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी आबादी सार्वभौमिक व्यवस्क मतदान के आधार पर लोकतांत्रिक ढंग से अपनी सरकार चुनने जा रही थी। इस तरह भारत सभी व्यवस्क लोगों को वोट का अधिकार देकर अमेरिका और यूरोप से भी आगे निकल गया था।
1951-52 का पहला आम चुनाव: लोकतंत्र की मजबूत बुनियाद
1951-52 में हुआ पहला आम चुनाव आजाद भारत में लोकतंत्र की मजबूत नींव रखने में एक मील का पत्थर साबित हुआ। पहले लोक सभा के लिए कुल 497 सीट निर्धारित की गई, जिनमें जम्मू-कश्मीर की 6 सीट के साथ ही अंडमान-निकोबार और असम के जनजातीय क्षेत्र के लिए निर्धारित एक-एक सीट के लिए सदस्य राष्ट्रपति द्वारा नामांकित किए गए। इस तरह लोक सभा के लिए 489 सीटों और राज्य विधान सभाओं की 3 हजार 283 सीटों के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराना, चुनाव आयोग के लिए किसी परीक्षा से कम न था। यह चुनाव फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट सिस्टम के तहत आयोजित हुआ था। फर्स्ट-पास्ट-द-पोस्ट यानि सरल बहुमत प्रणाली... निर्वाचन की एक प्रमुख प्रणाली है जिसमें सबसे ज्यादा मत प्राप्त करने वाला प्रत्याशी विजयी माना जाता है। भारत में लोक सभा और विधान सभाओं के चुनावों में इसी प्रणाली का प्रयोग किया जाता है।
83 फीसदी अशिक्षित मतदाता और अनोखा प्रयोग
चुनाव आयोग ने अपने पहले प्रयास में ही लोकतंत्र की नींव को वह ठोस आधार प्रदान किया जिसे दुनिया देखती ही रह गई। पहले चुनाव में चुनाव आयोग ने 14 राजनीतिक दलों को राष्ट्रीय पार्टी और 59 दलों को क्षेत्रीय पार्टी के रूप में मान्यता दी। देश की साक्षरता दर तब मात्र 17 फीसदी के करीब था इसलिए आयोग ने मतदाताओं के सहुलियत के लिए मतदान की मतपेटी प्रणाली अपनाई। इसके तहत प्रत्येक उम्मीदवार को एक अलग मतपेटी आवंटित की गई जिस पर उनके चुनाव चिन्ह अंकित किए गए और मतदाताओं को अपना मतपत्र अपने पसंद के उम्मीदवार की मतपेटी में डालने को कहा गया। 1957 में हुए दूसरे आम चुनाव में भी आयोग ने यही प्रणाली अपनाई। 1962 में हुए तीसरे आम चुनाव से आयोग ने मतदान की मुहर प्रणाली लागू की।
पहला आम चुनाव और निर्वाचन आयोग का अतुलनीय प्रयास
निर्वाचन आयोग ने पहले आम चुनाव में 17 करोड़ 60 लाख मतदाताओं के लिए एक लाख 32 हजार 560 मतदान केंद्र और एक लाख 96 हजार से ज्यादा मतदान बूथों की व्यवस्था की। इसके साथ ही 25 लाख मतपेटियों का इस्तेमाल किया। 60 करोड़ से ज्यादा मतपत्रों के लिए 180 टन कागज का उपयोग और 3 लाख 90 हजार अमीट स्याही के शिशियों का इस्तेमाल किया गया। इसके अलावा निर्वाचन आयोग ने दुर्गम इलाकों में आवाजाही के लिए हाथियों, बैलगाड़ियों और ऊंटों का उपयोग किया। यही नहीं मतदाताओं को जागरूक करने के लिए करीब 400 समाचार पत्र-पत्रिकाएं शुरू किए गए और देश के ज्यादातर सिनेमा घरों में चुनाव से जुड़ी प्रमोशनल फिल्में दिखाई गईं।
पहला आम चुनाव और संसद का गठन
चुनाव आयोग की देखरेख में पहला आम चुनाव 25 अक्टूबर 1951 से 21 फरवरी 1952 तक करीब 4 महीना और 68 चरणों में पूरा हुआ। सबसे पहला वोट 25 अक्टूबर 1951 को हिमाचल की छिनी तहसील में पड़ा। इसके साथ ही 497 सदस्यों वाली पहली लोकसभा 2 अप्रैल 1952 को और 216 सदस्यों वाली पहली राज्यसभा 3 अप्रैल 1952 को गठित हो गई। संसद के दोनों सदनों का चुनाव संपन्न कराने के बाद चुनाव आयोग ने 2 मई 1952 और 12 मई 1952 को देश के पहले राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति का चुनाव संपन्न कराया और 13 मई को प्रथम राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति ने अपना पदभार ग्रहण किया। हालांकि, डॉ राजेन्द्र प्रसाद को संविधान सभा ने 24 जनवरी 1950 को निर्विरोध रूप से राष्ट्रपति चुना था और 26 जनवरी 1950 को उन्होंने यह पदभार संभाला। इस तरह 13 मई 1952 तक आधिकारिक रूप से राष्ट्रपति का पद धारण करने से पहले तक वे देश के राष्ट्रपति बने रहे।
1951-52 के आम चुनाव के बाद साल दर साल और चुनाव दर चुनाव निर्वाचन आयोग अधिक सशक्त और लोकतंत्र को मजबूत करने वाले आधारशिला के रूप में अपने सफ़र पर चल पड़ा। चुनाव आयोग की पहल और सफल चुनाव संचालन की वजह से 1960 के दशक तक न केवल चुनावों में जनता की भागीदारी बढ़ी बल्कि चुनाव लड़ने के प्रति लोगों में दिलचस्पी भी बढ़ी। यह चुनाव आयोग के प्रयासों का ही नतीजा था कि 1957 और 1967 के आम चुनावों के बीच चुनाव लड़ने वाले उम्मीदवारों की संख्या दोगुनी हो गई।
2019 का आम चुनाव, दुनिया का सबसे बड़ा निर्वाचन
चुनाव आयोग हर कदम एक नई इबारत लिखता जा रहा है। इसका सबसे ताजा उदाहरण है 2019 का आम चुनाव। देश का यह महात्योहार लोकतंत्र की दुनिया में सबसे बड़ा और अनूठा आयोजन था। निर्वाचन आयोग ने इसके लिए देश भर में 10 लाख 36 हजार से ज्यादा मतदान केंद्रों पर फैले करीब 91 करोड़ मतदाताओं का नाम मतदाता सूची में शामिल किया। वहीं 2019 के चुनाव में 61 करोड़ से ज्यादा मतदाताओं ने मत ड़ाले। चुनाव आयोग ने इस दौरान देश के सभी लोक सभा निर्वाचन क्षेत्रों में वीवीपैट का इस्तेमाल किया। कोविड महामारी के चुनौती भरे दौर में भी चुनाव आयोग ने तमाम सावधानियों को बरतते हुए जिस तरह से राज्यों में विधान सभाओं के चुनावों को संपन्न करा रहा है वो चुनाव आयोग की कर्मठता, तत्परता और लोकतंत्र के प्रति उसकी जिम्मेदार जवाबदेही को दर्शाता है।
निर्वाचन आयोग की संरचना
निर्वाचन आयोग एक स्वतंत्र निकाय है और संविधान इस बात को सुनिश्चित करता है कि यह सुप्रीम कोर्ट और हाई कोर्ट की तरह कार्यपालिका के बिना किसी हस्तक्षेप के स्वतंत्र और निष्पक्ष रूप से अपने काम को अंजाम दे सके। अनुच्छेद 324 में यह प्रावधान है कि “निर्वाचन आयोग एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य उतने निर्वाचन आयुक्तों से मिलकर बनेगा जितने समय-समय पर राष्ट्रपति नियुक्त करें। मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्वाचन आयुक्तों की नियुक्ति राष्ट्रपति द्वारा की जाएगी। इसके साथ ही जब कोई अन्य निर्वाचन आयुक्त नियुक्त किया जाएगा तब मुख्य निर्वाचन आयुक्त आयोग के अध्यक्ष के रूप में काम करेगा। वहीं राष्ट्रपति निर्वाचन आयोग की सलाह पर उसकी सहायता के लिए प्रादेशिक आयुक्तों की नियुक्ति कर सकता है। निर्वाचन आयुक्तों और प्रादेशिक आयुक्तों की सेवा की शर्तें और पदावधि राष्ट्रपति द्वारा निर्धारित की जाएगी। इसके अलावा मुख्य निर्वाचन आयुक्त को उसके पद से उसी तरह पर हटाया जा सकता है जिस तरह पर उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों को हटाया जाता है। जबकि अन्य निर्वाचन आयुक्त या प्रादेशिक आयुक्त को मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सिफारिश के बिना पद से नहीं हटाया जा सकता है। मुख्य निर्वाचन आयुक्त की सेवा की शर्तों में उसकी नियुक्ति के बाद कोई अलाभकारी बदलाव नहीं किया जा सकता है।“ इस तरह संविधान निर्वाचन आयोग के अधिकारियों को कार्यकाल के दौरान पूर्ण संरक्षण प्रदान करता है ताकि वे अपने कार्यों को निडरता, निष्पक्षता और बिना किसी हस्तक्षेप के कर सकें।
मुख्य निर्वाचन आयुक्त और निर्वाचन आयुक्त
मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य निर्चावन आयुक्तों का कार्यकाल 6 वर्ष या 65 साल की आयु- दोनों में से जो भी पहले हो- तक होता है। उन्हें भारत के सर्वोच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के बराबर का दर्जा प्राप्त होता है और समान वेतन और भत्ते मिलते हैं। ऐसी स्थिति में जब मुख्य निर्वाचन आयुक्त और अन्य दो निर्वाचन आयुक्तों के बीच विचार में मतभेद होता है तब आयोग बहुमत के आधार पर निर्णय लेता है।
निर्वाचन आयोग की शक्ति और कार्य
चुनाव आयोग की कार्य और शक्तियां मुख्य रूप से तीन प्रकार की हैं। प्रशासनिक, सलाहकारी और अर्द्ध-न्यायिक। इनमें समय-समय पर आम चुनाव या उप-चुनाव कराना...उम्मीदवारों के नामांकन पत्र की जांच-पड़ताल करना...वोटर लिस्ट तैयार करना और मतदाता पहचान पत्र जारी करना...राजनीतिक दलों को मान्यता देना, चुनाव चिन्ह देना और निर्वाचन से संबंधित विवादों का निपटारा करना...चुनाव के दौरान आदर्श आचार संहिता लागू करना, लूट, हिंसा और अनियमितता के आधार पर चुनाव को रद्द करना, और संसद सदस्यों के अयोग्यता के मामले में राष्ट्रपति को और विधान मंडल के सदस्यों के अयोग्यता के मामले में राज्यपाल को सलाह देना शामिल है। दरअसल निर्वाचन प्रक्रिया की शुरुआत राष्ट्रपति द्वारा लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1951 की धारा 14 के तहत जारी अधिसूचना से होता है। वहीं विधान सभा के मामले में राज्यपाल चुनाव की अधिसूचना जारी करता है। इसके बाद चुनाव आयोग मतदान की प्रक्रिया शुरू करता है।
राज्यों में चुनाव की प्रक्रिया
राज्यों की बात करें तो उनके लिए अलग से किसी निर्वाचन आयोग की व्यवस्था नहीं है। राज्यों में चुनाव आयोग की सहायता के लिए मुख्य निर्वाचन अधिकारी होते हैं। जिनकी नियुक्ति आयोग द्वारा राज्य सरकारों की सलाह पर की जाती है। वहीं जिला स्तर पर जिला निर्वाचन अधिकारी होते हैं जो मुख्य चुनाव अधिकारी के निर्देशन में जिले में चुनाव से संबंधित सभी काम करते हैं। इसके साथ ही संसदीय या विधान सभा क्षेत्र में चुनाव कार्य के संचालन के लिए चुनाव अधिकारी यानी रिटर्निंग ऑफिसर और मतदाता सूची तैयार करने के लिए इलेक्ट्रोरल रजिस्ट्रेशन ऑफिसर होते हैं, जबकि प्रत्येक मतदान केंद्र के लिए पीठासीन अधिकारी यानी प्रेजाइडिंग ऑफिसर होते हैं।
पंचायत और नगर पालिका चुनाव
राज्यों में होने वाले पंचायत और नगर पालिकाओं के चुनाव में निर्वाचन आयोग दखल नहीं देता है। इसके लिए 73वें और 74वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के तहत प्रत्येक राज्य में अलग से राज्य निर्वाचन आयोग की व्यवस्था की गई है... जो राज्य में स्थानीय निकायों के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए उत्तरदायी है। इसकी व्यवस्था संविधान के अनुच्छेद 243(K) और 243 (Z)(A) में की गई है। राज्य निर्वाचन आयोग का प्रमुख राज्य निर्वाचन आयुक्त होता है जिसकी नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है और उसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की तरह अभियोग की प्रक्रिया के तहत ही पद से हटाया जा सकता है।
एक से तीन सदस्यीय बना निर्वाचन आयोग
काम की अधिकता और समय की जरूरत के मुताबिक निर्वाचन आयोग की संरचना में बड़ा बदलाव भी हुआ। 25 जनवरी 1950 से अक्टूबर 1989 तक चुनाव आयोग एक सदस्यीय निकाय बना रहा जिसमें सिर्फ एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त होता था। लेकिन 16 अक्टूबर 1989 को चुनाव आयोग में दो निर्वाचन आयुक्त एस एस धनोवा और वी एस सहगल की नियुक्ति की गई... हालांकि एक जनवरी 1990 को दोनों निर्वाचन आयुक्तों के पद को समाप्त कर दिया गया और स्थिति पहले जैसी हो गई। दूसरी बार फिर एक अक्टूबर 1993 को दो निर्वाचन आयुक्त जी वी जी कृष्णमूर्ति और एम एस गिल को नियुक्त किया गया। इसके बाद से आयोग बहुसदस्यीय संस्था के रूप में काम कर रहा है जिसमें एक मुख्य निर्वाचन आयुक्त और दो निर्वाचन आयुक्त हैं। इसमें निर्णय बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं।
चुनावों को निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए उठाए गए कदम
चुनाव प्रणाली को ज्यादा निष्पक्ष और पारदर्शी बनाने के लिए चुनाव आयोग समय-समय पर अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल भी करता रहा है। यहीं नहीं चुनाव प्रक्रिया को सरल-सहज बनाने के लिए लगातार नए-नए तकनीकों का अपनाता भी रहा है। चुनाव आयोग ने चुनाव सुधार की पहल तो 1960 के दशक से ही शुरू कर दी थी जो बदस्तूर जारी है।
1960 के दशक के आखिरी सालों में चुनाव आयोग ने चुनाव प्रणाली में महत्वपूर्ण सुधार किए। इसके तहत 1968 तक मौजूद सभी राजनीतिक दलों के लिए निर्वाचन आयोग में पंजीकरण कराना अनिवार्य कर दिया। इसके साथ ही आयोग ने - चुनाव चिन्ह (आरक्षण एवं आवंटन) आदेश, 1968 - जारी किया.... देश के अंदर राजनीतिक पार्टियों को मान्यता और उम्मीदवारों को चुनाव चिन्ह इसी के तहत दिया जाता है। वहीं, 1970 के दशक में राजनीतिक दलों और उम्मीदवारों को चुनाव के दौरान अधिक जवाबदेह बनाने के लिए आदर्श आचार संहिता शुरू की, जिसे 1979 में सभी के लिए अनिवार्य कर दिया गया और साल 1991 में और सख्ती से लागू किया गया।
चुनावों में तकनीक का इस्तेमाल
चुनावों की शुचिता को बरकरार रखने के लिए निर्वाचन आयोग ने 80 के दशक से तकनीकी तौर पर कई ऐसे नायाब पहल किए जो न केवल चुनाव प्रणाली और लोकतंत्र को मजबूत करने में सहायक हुआ बल्कि दुनिया के लिए एक मिसाल बन गया। चुनाव आयोग ने साल 1982 में पहली बार प्रयोग के तौर पर इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन यानि ईवीएम का प्रयोग किया। और साल 1998 से विधान सभा चुनावों में और 2004 से लोक सभा चुनावों में ईवीएम का इस्तेमाल करने लगा।
आयोग ने साल 2003 में उम्मीदवारों का शपथ पत्र दाखिल करना अनिवार्य कर दिया और साल 2010 में स्वीप यानी सुव्यवस्थित मतदाता शिक्षा और निर्वाचक सहभागिता की शुरुआत की। साल 2013 में NOTA (NONE OF THE ABOVE) के विकल्प की शुरुआत के साथ ही साल 2013 में ही वीवीपीएटी यानी मतदाता सत्यापन पेपर ऑडिट ट्रेल की भी शुरुआत की और साल 2015 में एनवीएसपी यानि राष्ट्रीय मतदाता सेवा पोर्टल शुरू किया।
इसके साथ ही चुनाव आयोग ने साल 2017 से सभी चुनावों में वीवीपीएटी लागू किया और 2017 में ही सेवा मतदाताओं की सुविधा के लिए ईटीपीबीएस यानि इलेक्ट्रॉनिक ट्रांसमिशन के जरिए वोटिंग शुरू की। चुनाव आयोग ने साल 2018 में निर्वाचक साक्षरता क्लब की शुरुआत की और 2018 में ही प्रत्याशियों को अपना आपराधिक इतिहास सार्वजनिक करने का निर्देश दिया।
मतदाताओं को जागरूक करता ‘सीविजिल’
चुनाव आयोग ने मतदाताओं को चुनावों में सशक्त और जिम्मेदार भूमिका निभाने के लिए 2018 में सी-विजिल एप लॉन्च किया। इस एप के जरिए कोई भी वोटर अपने क्षेत्र में हो रहे आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन की फोटो या वीडियो बनाकर आयोग को भेज सकता है। आयोग मामले की जांच कर तुरंत कार्रवाई करता है। सी-विजिल एप चुनावों में आदर्श आचार संहिता के उल्लंघन को रोकने और बिना किसी गड़बड़ी के चुनाव कराने में काफी असरदार साबित हुआ है।
चुनाव आयोग ने तकनीकों के इस्तेमाल में मतदाताओं के सहुलियत के लिए सबसे नया ऐप केवाईसी यानी ‘नो योर कैंडीडेट’ लॉन्च किया है। इस ऐप के जरिए कोई भी वोटर मोबाइल पर उम्मीदवारों का रिकॉर्ड देख सकता है। इसके जरिए वह पता कर सकता है कि किसी उम्मीदवार की छवि क्या है। इसमें उम्मीदवार से जुड़ी सभी जानकारियां दी गई हैं।
इन तकनीकों के इस्तेमाल ने जहां दुनिया के सबसे विशाल लोकतंत्र में चुनाव प्रक्रिया को सरल, सुगम और सजह बनाया है वहीं इसे निष्पक्ष, स्वतंत्र और बिना किसी गड़बड़ी के जल्दी और भरोसेमंद परिणाम देने वाला भी साबित किया है।
मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की भूमिका
निर्वाचन आयोग को सशक्त और प्रभावशाली बनाने में अनेक मुख्य निर्वाचन आयुक्तों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। 1951-52 में देश का पहला आम चुनाव और 1957 में दूसरा आम चुनाव तत्कालीन मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुकुमार सेन के नेतृत्व में ही हुआ था। इस दौरान लोक सभा के साथ-साथ विधान सभाओं के चुनाव भी हुए थे। भारत में सफल चुनाव कराने के बाद 1953 में सूडान सरकार ने उन्हें अपने यहां होने वाले प्रथम चुनाव की निगरानी का जिम्मा सौंपा था। वहीं भारत के दसवें मुख्य निर्वाचन आय़ुक्त टी एन शेषण ने एक संवैधानिक संस्था के रूप में निर्वाचन आयोग की कार्य और शक्ति से पहली बार राजनीतिक दलों के साथ-साथ जनता को भी परिचित कराया। देश के हर वाजीब वोटर के लिए मतदाता पहचान पत्र उन्हीं की पहल का नतीजा था। जबकि भारतीय चुनाव में इलेक्ट्रॉनिक वोटिंग मशीन की शुरुआत 11वें मुख्य निर्वाचन आयुक्त एम एस गिल के कार्यकाल में शुरू हुआ। वहीं सीविजिल की शुरुआत 22वें मुख्य निर्वाचन आयुक्त रहे ओम प्रकाश रावत के कार्यकाल में हुई, जबकि केवाईसी यानी ‘नो योर कैंडीडेट’ ऐप की शुरुआत वर्तमान मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुशील चंद्रा के कार्यकाल में शुरू की गई है।
दुनिया के लिए एक नज़ीर है निर्वाचन आयोग और निर्वाचन प्रणाली
भारत में चुनावों के सफल आयोजन ने दुनिया के मंच पर निर्वाचन आयोग के दमदार छवि को पुरजोर तरीके से स्थापित किया है। निर्वाचन आयोग की सफलता दुनिया के अनेक देशों के लिए एक नजीर होने के साथ ही कौतूहल का विषय भी है। यही वजह है कि दुनिया के अनेक देशों के प्रतिनिधि हमारे निर्वाचन आयोग का कौशल और निर्वाचन पद्धति देखने और सीखने भारत आते हैं और भारत निर्वाचन आयोग के सदस्य दुनिया के दर्जनों देशों में चुनाव संपन्न कराने और वहां के चुनाव अधिकारियों को प्रशिक्षण देने जाते हैं।
कोविड महामारी के चुनौती भरे दौर में भी चुनाव आयोग, तमाम सावधानियों को बरतते हुए जिस तरह से राज्यों में विधान सभा के चुनावों को संपन्न कराने में जुटा है, वह चुनाव आयोग की कर्मठता, तत्परता और लोकतंत्र के प्रति उसकी जिम्मेदार जवाबदेही को दर्शाता है।
पिछले सात दशकों में 17 आम चुनाव, 15 राष्ट्रपति चुनाव, 15 उपराष्ट्रपति चुनाव और 400 बार से ज्यादा विधान सभा चुनावों को स्वतंत्र और निष्पक्ष तरीके से संपन्न कराना चुनाव आयोग की कुशलता, क्षमता और लोकतंत्र को मजबूत बनाने में उसकी भूमिका को खुद बयां करता है।
1947 में आजादी के साथ ही भारत में मतदाताओं की संख्या की दृष्टि से दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र की स्थापना हुई, और एक संवैधानिक निकाय के तौर पर इस लोकतांत्रिक व्यवस्था और संस्कृति को बनाए रखने में निर्वाचन आयोग की भूमिका बेहद महत्वपूर्ण है, जो लोकतंत्र के महापर्व में हर मतदाता की भागीदारी सुनिश्चित करने में लगातार जुटा हुआ है।
कोविड महामारी के चुनौती भरे दौर में भी चुनाव आयोग, तमाम सावधानियों को बरतते हुए जिस तरह से राज्यों में विधान सभा के चुनावों को संपन्न कराने में जुटा है, वह चुनाव आयोग की कर्मठता, तत्परता और लोकतंत्र के प्रति उसकी जिम्मेदार जवाबदेही को दर्शाता है।