सरफ़रोश क्रांतिकारी: पंडित रामप्रसाद ‘बिस्मिल’
“महसूस हो रहे हैं, बादे फ़ना के झोंके।
खुलने लगे हैं मुझ पर ‘असरार’ ज़िन्दगी के।।
बारे अलम उठाया, रंगे निशात देखा।
आए नहीं हैं यूं हीं, अंदाज बेहिसी के।।
उम्र कुल जमा तीस साल पाई...उसमें 11 साल क्रांतिकारी जीवन में बीत गए। इस दौरान कुल मिलाकर 11 पुस्तकें प्रकाशित हुईं... लेकिन उनमें से एक भी अंग्रेजों के कोप से बच नहीं सकीं और सारी जब्त कर ली गईं। इतनी छोटी सी उम्र में ही हर दुख-दर्द को झेला लेकिन देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त कराने की भूख और जिद ऐसी कि अपनी जिंदगी को फांसी के फंदे पर लटकाकर खत्म कर दी.....ऐसे ही थे पंडित राम प्रसाद बिस्मिल....।
बिस्मिल भारत तो क्या संभवत: दुनिया के पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने क्रांतिकारी के तौर पर अपने लिए जरूरी हथियार अपनी लिखी पुस्तकों की बिक्री से मिले रुपयों से खरीदे थे।
आजादी के गुमनाम नायक में आज बात इसी सरफरोश क्रांतिकारी के बारे में... जिसके बहुआयामी व्यक्तित्व में देश प्रेम के साथ ही एक संवेदनशील कवि, शायर, साहित्यकार और इतिहासकार के साथ-साथ एक बहुभाषी अनुवादक भी निवास करता था।
“यदि देशहित मरना पड़े मुझको अनेकों बार भी,
तो भी न मैं इस कष्ट को निज ध्यान में लाऊँ कभी।
हे ईश! भारतवर्ष में शत बार मेरा जन्म हो,
कारण सदा ही मृत्यु का देशोपकारक कर्म हो।“
“आज 16 दिसंबर 1927 को निम्नलिखित पंक्तियों का उल्लेख कर रहा हूँ, जबकि 19 दिसंबर 1927 ईस्वी, सोमवार को 6 बजे प्रातः: काल इस शरीर को फांसी पर लटका देने की तिथि निश्चित हो चुकी है। अतएव नियत समय पर इहलीला संवरण करनी ही होगी।“
ये कथन अमर शहीद पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में फांसी से तीन दिन पहले लिखा था।
क्या हिंदी संसार में शहीद के स्वयं अपने खून से फांसी की कोठरी में मौत की छाया में कोई अन्य साहित्यिक कृति भी है? जो अमर शहीद राम प्रसाद बिस्मिल ने देशवासियों से अपनी कुछ ‘अंतिम बात’ के रूप में अपनी आत्मकथा गोरखपुर जेल की फांसी की कोठरी में फांसी पर झूलने के तीन दिन पहले तक अधिकारियों से नजर बचा कर लिखी थी। तो इसका जवाब है... शायद नहीं...।
....और जब नियत दिन और समय आया यानी 19 दिसंबर 1927 को प्रात: 6 बजे... तब वंदे मातरम और भारत माता की जय कहते हुए वे फांसी के तख्ते के निकट गए। चलते समय वह कह रहे थे-
“मालिक तेरी रजा रहे और तू ही तू रहे,
बाक़ी न मैं रहूँ, न मेरी आरजू रहे।
जब तक कि तन में जान, रगों में लहू रहे.
तेरी ही ज़िक्र या तेरी ही जुस्तजू रहे।“
और जब आखिरी समय आया यानी फांसी के तख्ते पर झूलने का तब ज़ोर-ज़ोर से चिल्लाकर कहा...
“I wish the downfall of the British Empire”
साथ में संस्कृत का श्लोक पढ़ते-पढ़ते फांसी के फंदे पर झूल गए।
वह शानदार मौत जो ‘बिस्मिल’ को प्राप्त हुई, शायद लाखों में दो-चार को हीं मिल सकती है।
बचपन में ही चक्रवर्ती बनने की भविष्यवाणी की थी ज्योतिष ने
राम प्रसाद बिस्मिल का जन्म 11 जून 1897 को उत्तर प्रदेश के शाहजहाँपुर के खिरनी बाग मोहल्ला में हुआ था। ‘बिस्मल’ उनका तखल्लुस यानी उपनाम था जिसका अर्थ होता है ‘आत्मिक रूप से आहत’। उनके पूर्वज ब्रिटिश भारत के ग्वालियर राज्य के निवासी थे। बिस्मिल के दादा पारिवारिक कलह की वजह से अपना गांव छोड़कर शाहजहाँपुर में आकर बस गए थे। यहीं 11 जून 1897 को राम प्रसाद का जन्म हुआ। राम प्रसाद अपने पिता मुरलीधर और मां मूलवती की दूसरी संतान थे। प्यार से घर में सभी उन्हें राम नाम से पुकारते थे।
बिस्मिल के जन्म के बाद ही ज्योतिषी ने भविष्यवाणी की थी कि “ इस बालक के बचने की उम्मीद काफी कम है लेकिन अगर जिंदा रह गया तो इसे चक्रवर्ती सम्राट बनने से दुनिया की कोई भी ताकत नहीं रोक पाएगी।
पांच बहने और चार भाइयों में से एक राम प्रसाद बिस्मिल बचपन में अपने सभी भाई बहनों में सबसे खुराफाती और शरारती थे। अपनी शरारतों की वजह से बचपन में उन्हें पिता से काफी मार भी पड़ती थी।
बचपन में हिन्दी के साथ उर्दू की तालिम भी मिली। लेकिन पढ़ाई में ज्यादा मन नहीं लगता था और बुरी संगतों की वजह से छोटे उम्र में ही जमाने की हर बुरे ऐब की आदत लग गई। हालांकि पढ़ाई में ध्यान नहीं देने और बुरी संगतों की वजह से पिता से खूब मार भी पड़ती थी। इसी बुरी आदतों की वजह से उर्दू मिडिल की परीक्षा में लगातार दो बार फेल हुए... तब मां के कहने पर पिता ने अंग्रेजी पढ़ने के लिए भेज दिया।
आर्य समाज से संपर्क ने जीवन की धारा बदल दी
हालांकि नवीं कक्षा में जाने के बाद राम प्रसाद बिस्मिल आर्य समाज के संपर्क में आ और इसके बाद तो उनके जीवन की दशा ही बदल गई। इसके बाद तो ज्यों ज्यों उम्र बढ़ी राम प्रसाद की बुद्धि प्रखर होती चली गई। और जब उम्र बढ़ने के साथ यह विश्वास बन गया कि अंग्रेज हिंदुस्तान और उनकी जनता को लूट रहे हैं तब तो राम प्रसाद की सोच के साथ-साथ इरादों ने भी करवट ले ली। और बस एक ही बात जेहन में घूमने लगी कि किसी भी कीमत पर अंग्रेजों को देश से भगाना है।
मात्र 19 साल के उम्र में क्रांतिकारी बन गए
बिस्मिल जब मात्रा 19 साल के थे तभी उन्होंने क्रांतिकारी जीवन में कदम रख दिया। 1913 में जब स्वाधीनता सेनानी और गदरी क्रांतिकारी भाई परमानन्द को ब्रिटिश सरकार ने फांसी की सजा सुनाई तो यह खबर सुनकर बिस्मिल काफी विचलित हो गए। उन्होंने ‘मेरा जन्म’ शीर्षक से एक कविता लिखी। साथ ही ब्रिटिश साम्राज्य के समूल विनाश की प्रतिज्ञा कर क्रांतिकारी बनने का फैसला कर लिया। हालांकि बाद में भाई परमानंद की सजा को आजीवन कारावास में बदल दिया गया और फिर 1920 में उन्हें रिहा भी कर दिया गया। लेकिन राम प्रसाद बिस्मिल तो अपने प्रतिज्ञा पथ पर चल पड़े थे।
अपनी लिखी किताबें बेचकर क्रांति के लिए हथियार खरीदी
अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए हथियार की जरूरत महसूस हुई लेकिन उसके लिए उनके पास पैसे नहीं थे। तब बिस्मिल ने अंग्रेजों के खिलाफ आग उगलते मजमूनों से भरी किताबें खुद लिखी... फिर उन्हें चोरी छिपे छापकर बेचा भी और उनसे मिले पैसों से बम और बंदूक खरीद ड़ाली। ताकि हथियारबंद ब्रिटिश हुकूमत को उनके तरीके से ही हराया जा सके।
अंग्रेजों के देश से खदेड़ने के लिए बिस्मिल ने प्रसिद्ध क्रांतिकारी पंडित गेंदालाल दीक्षित के साथ मातृदेवी संगठन बनाया। दोनों ने मिलकर मैनपुरी, इटावा, आगरा और शाहजहांपुर के नवयुवकों को देश की आन पर मर मिटने के लिए संगठित किया। अपने संगठन को मजबूत करने और हथियार खरीदने के लिए उन्होंने डकैती भी डाली। जनवरी 1918 में बिस्मिल ने देशवासियों के नाम संदेश नाम का एक पैम्फलेट प्रकाशित किया और अपनी कविता मैनपुरी की प्रतिज्ञा भी प्रकाशित की। यहां तक कि दिसंबर 1918 में जब दिल्ली में कांग्रेस अधिवेशन हुआ तो उसके दौरान पुस्तकें बेच कर भी पैसा इकट्ठा करने की कोशिश की। लेकिन उन्हीं दिनों उनके संगठन पर मैनपुरी में मुकदमा चला जिसे बाद में अंग्रेजों ने मैनपुरी षड्यंत्र कहा। इस केस में नाम आने के बाद बिस्मिल दो वर्षों के लिए भूमिगत हो गए।
जिंदा रहने के लिए बंदूक और रिवाल्वर तक बेचनी पड़ी
अपने दो साल के भूमिगत जीवन में राम प्रसाद बिस्मिल ने हर तरह के कष्ट झेले। अंग्रेजों से बचने के लिए एक जगह से दूसरे जगह भागते रहे, भेष बदल-बदल कर अंग्रेजों के कोप से बचते रहे। कभी खेती की, तो कहीं गाय-भैंस चराई, साधु बनकर मंदिर में रहे, आश्रमों में महीने गुजारे, पुस्तकें लिखी, अनुवाद किया लेकिन बावजूद इसके जीवन यापन बेहद कठिन हो गया और खाने तक के लाले पड़ गए तब हारकर अपनी बंदूकें और रिवाल्वर तक बेचनी पड़ी। यहां तक पिताजी को अंग्रेजों के कोप से बचने के लिए शाहजहांपुर का मकान तक बेचना पड़ा। हालांकि तमाम कठिनाई और मुश्किलों को झेलने के बावजूद वो अंग्रेजों के हाथ नहीं लगे और जब फरवरी 1920 में ब्रिटिश सरकार ने मैनपुरी षड्यंत्र के सभी बंदियों को रिहा कर दिया तब बिस्मिल भी शाहजहांपुर वापर लौट आए। इसके बाद उन्होंने कांग्रेस के 1920 में कोलकाता और 1921 में अहमदाबाद में हुए अधिवेशनों में हिस्सा लिया।
जुलाहे का काम किया और कपड़े का कारखाना भी चलाया
शाहजहांपुर वापस लौटने के बाद सोचा जीवन को अब नए सिरे से शुरू किया जाए। इसके लिए जुलाहे का काम किया और कपड़ा बुनने का काम सीखा। फिर एक कारखाने में मैनेजरी का काम किया और आखिरकार रेशमी कपड़ा बनाने का कारखाना खोला। धंधा अच्छा चल निकला और जिंदगी थोड़ी सुकून में बीतने लगी लेकिन नियति को तो कुछ और ही मंजूर था। भाग्य ने तो उन्हें गुलामी की बेड़ियों को काटने के लिए पैदा किया था। इसी दौरान कई क्रांतिकारी पुस्तकें भी लिखी। साथ अनेक मासिक पत्रिकाओं में राम और अज्ञात के नाम से लेख भी लिखते रहे।
जिंदगी अभी पटरी पर आ ही रही थी कि चौरी चौरा कांड के बाद अचानक गांधीजी ने असहयोग आंदोलन वापस ले लिया। इससे देशभर के क्रांतिकारियों में भारी निराशा घर कर गई और कांग्रेस के आजादी के अहिंसक प्रयासों से उनका मोहभंग हो गया।
एचआरए का गठन
तब अक्टूबर 1924 में क्रांतिकारियों ने कानपुर में एच आर ए यानी हिंदुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन की स्थापना की। जिसमें राम प्रसाद बिस्मिल, शचीन्द्रनाथ सान्याल, योगेश चंद्र चटर्जी आदी प्रमुख सदस्य शामिल हुए।
काकोरी कांड के मास्टर माइंड थे ‘बिस्मिल’
इन क्रांतिकारियों का मानना था कि आजादी मांगने से नहीं मिलने वाली है। इसके लिए लड़ना होगा। और इसके लिए बम, बंदूकों और हथियारों की जरूरत थी... और हथियार खरीदने के लिए पैसा चाहिए था। लेकिन सवाल यह था कि इसके लिए धन कहां से आएगा। तब पंडित राम प्रसाद बिस्मिल ने नौ अगस्त 1925 को अपने प्रिय दोस्त अशफाक उल्लाह खां और आठ क्रांतिकारी साथियों के साथ सहारनपुर से लखनऊ जाने वाली पैसेंजर ट्रेन को काकोरी में जबरदस्ती रूकवाकर सरकारी खजाना लूट लिया।
काकोरी कांड का ऐतिहासिक मुकदमा करीब 10 महीने तक लखनऊ की अदालत रिंग थियेटर में चला। अप्रैल 1927 में इस मुकदमे का फैसला हुआ। इस मुकदमे में राम प्रसाद बिस्मिल, राजेन्द्रनाथ लाहिड़ी, ठाकुर रोशन सिंह और अशफाक उल्लाह खां को फांसी की सजा सुनाई गई।
फांसी से तीन दिन पहले लिखी आत्मकथा
फांसी की सजा सुनाने के बाद बिस्मिल को जिला कारागार लखनऊ से 10 अगस्त 1927 को गोरखपुर जेल लाया गया और कोठरी नंबर सात में रखा गया था। उस समय इसे तन्हाई बैरक कहा जाता था। बिस्मिल ने अपने अंतिम चार महीने 10 दिन इसी कोठरी को साधना केंद्र के रूप में इस्तेमाल करते काटा। और यहीं उन्होंने ब्रिटिश अधिकारियों ने नजर बचाकर फांसी से तीन दिन पहले अपनी आत्मकथा जेल के रजिस्टर के कागजों पर पेंसिल से लिखी। जो चोरी छिपे तीन खेपों में जेल से बाहर आई। बिस्मिल ने अपनी आत्मकथा में न केवल क्रांतिकारी घटनाओं और अपने जीवन का वर्णन किया है बल्कि देश के नवयुवकों से बंदूक छोड़कर पूर्ण स्वाधीनता को ध्येय बनाकर सच्ची देश सेवा करने का आह्वान करते हैं।
यह एक शहीद की देश के लोगों के नाम वसीयत की गई अमूल्य धरोहर है... जिसकी शुरुआत ही बिस्मिल इस पंक्ति से करते हैं कि
“क्या ही लज्जत है कि रग रग से यह आती है सदा,
दम न ले तलवार जब तक जान बिस्मिल में रहे।“
और अंत इस शब्दों से किया---
“मरते बिस्मिल, रोशन, लाहिड़ी, अशफाक अत्याचार से,
होंगे पैदा सैकड़ों इनके रुधिर की धार से।“
मरते-मरते ब्रिटिश साम्राज्य के विनाश का नारा लगा गए बिस्मिल
19 दिसंबर 1925 को फांसी से ठीक पहले जब मां जेल में मिलने पहुंची तो मां को देखकर बिस्मिल की आंखें डबडबा गई। वीर माता ने कलेजे पर पत्थर रखते हुए बेटे से कहा कि “तूझे ऐसे ही रोकर फांसी पर चढ़ना था तो तूने क्रांति की राह चुनी ही क्यों? तब तो तूझे इस रास्ते पर कदम ही नहीं रखना चाहिए था।“
बिस्मिल ने बरबस अपनी आंखे पोछते हुए कहा कि ये आंसू मौत के डर से नहीं, बल्कि अपनी बहादुर मां से बिछड़ने के शोक में आए हैं।
और इसके बाद भारत माता का यह वीर सपूत “I WISH THE DOWNFALL OF BRITISH EMPIRE”... “मैं ब्रिटिश साम्राज्य का विनाश चाहता हूँ” कहते हुए फांसी के फंदे पर झूल गया।
वो फांसीघर आज भी मौजूद है। लकड़ी का फ्रेम और लीवर भी सुरक्षित है। जो पंडित राम प्रसाद बिस्मिल की देशभक्ति और बहादुरी की गवाही देते हैं।
‘बहरे फना में जल्द या रब लाश बिस्मिल की
कि भूखी मछलियां हैं जौहरे शमशीर कातिल की
समझ कर कूकना इसको जरा ऐ दागे नादानी
बहुत से घर भी हैं आबाद इस उजड़े हुए दिल से’
देश की आजादी की चाह दिल में लिए इस दुनिया से कूच करने वाले पंडित राम प्रसाद बिस्मिल किसी धनाढ्य घर में पैदा नहीं हुए थे। कोई बहुत बड़ी शिक्षा-दीक्षा का आडंबर भी उनके साथ नहीं था। वे स्वाधीनता के लिए छटपटाती हुई आम जनता और उसके वीरता के लिए जान न्योछावर कर सकने वाले बहादुर नौजवानों के सच्चे प्रतिनिधि थे। वे एक सीधे-साधे वीर देशभक्त थे। कोई प्रौढ बुद्धि विचारक भी नहीं थे लेकिन भारत माता के एक सच्चे वीर सिपाही जरूर थे जिन्होंने देश के लिए अपना प्राण होम कर दिया। देश के हर नौजवान को रामप्रसाद बिस्मिल की आत्मकथा पढ़नी चाहिए ताकि भावी पीढ़ी इसे पढ़कर उन कठिनाइयों और जज्बे को समझ सके कि देश को गुलामी की बेड़ियों से मुक्त करने के लिए हमारे वीर क्रांतिकारियों ने कितनी बड़ी कुर्बानियां दी है।