विचारों की आंच पर तपने का नाम है भगत सिंह
“वे सोचते हैं कि मेरे पार्थिव शरीर को नष्ट करके वे इस देश में सुरक्षित रह जाएंगे, यह उनकी भूल है। वे मुझे मार सकते हैं, लेकिन मेरे विचारों को नहीं मार सकते, मेरे शरीर को कुचल सकते हैं, लेकिन वे मेरी भावनाओं को नहीं कुचल सकेंगे। ब्रिटिश हुकूमत के सिर पर मेरे विचार एक अभिशाप की तरह मंडराते रहेंगे। ब्रिटिश हुकूमत के लिए मरा हुआ भगत सिंह जीवित भगत सिंह से ज्यादा खतरनाक होगा। मुझे फाँसी हो जाने के बाद मेरे क्रांतिकारी विचारों की खुशबू हमारे इस मनोहर देश के वातावरण में व्याप्त हो जाएगी|”
जुलाई 1930 के अंतिम रविवार को लाहौर सेंट्रल जेल में बंद अपने कैदी साथियों से कहे गए भगत सिंह के ये शब्द उनकी शहादत के बाद अजर-अमर होकर देश की फिजाओं में उतनी ही शिद्दत से तैरने लगे जितने विश्वास और भरोसे से शहीद-ए-आजम भगत सिंह ने अपने दोस्तों से कहा था।
तेईस साल की उम्र में जब कोई नौजवान सफलता के सपने देखता है, उसके लिए योजनाएं बनाता है, जीवन में आनंद और उत्साह के बारे में सोचता है.... उस उम्र में भगत सिंह ने अपने विचारों, अपने आचरण और अपने कर्म को एक ऐसे लक्ष्य के लिए समर्पित कर दिया जिसमें उन्होंने पराधीन देश की मुक्ति का सपना देखा...गुलामी की बेड़ियों को हमेशा-हमेशा के लिए तोड़ देने का जज़्बा दिल में पैदा किया और उसे साकार करने में अपने प्राणों की आहुति दे दी। भौतिक सुख हासिल करने के बजाय उन्होंने फांसी के फंदे को चूमा और मात्र 23 साल की छोटी सी उम्र में करोड़ों-करोड़ों युवाओं और देशभक्तों के प्रेरणा स्रोत बन गए।
आखिर किसी के दिल में देशभक्ति का यह जज़्बा कैसे नहीं पैदा होगा, जिसका पूरा परिवार देश के लिए अपना सब कुछ हंसते-हंसते न्यौछावर करने को तैयार हो। भगत सिंह का जन्म भी ऐसे ही एक देश भक्त परिवार में हुआ था जो उनके जन्म के पहले से ही आजादी की लड़ाई में सक्रिय भूमिका निभा रहा था। जिस दिन 27 सितंबर 1907 को भगत सिंह का जन्म हुआ, उसी दिन उनके चाचा सरदार अजित सिंह की निर्वासन की अवधि समाप्त होने की सूचना मिली और पिताजी सरदार किशन सिंह और छोटे चाचा सरदार स्वर्ण सिंह जेल की सजा काट कर रिहा हुए थे। राष्ट्र की गुलामी से मुक्ति के लिए हर तरह की कुर्बानी देने की पृष्ठभूमि पहले से ही इस परिवार में तैयार थी, जिसने देश के इस महान क्रांतिकारी और युगपुरुष के निर्माण में अपनी अहम भूमिका निभाई।
परिवार के इस देश-भक्त क्रांतिकारी परिवेश की वजह से ही भगत सिंह का नाम खालसा स्कूल में न लिखा कर डी ए वी स्कूल में लिखवाया गया। पिता सरदार किशन सिंह चाहते थे कि ‘गॉड सेव द किंग’ के माहौल से अलग देशभक्ति से भरे वातावरण में भगत सिंह की शिक्षा हो। ऐसे में डी ए वी स्कूल के आर्यसमाजी परिवेश का प्रभाव भगत सिंह पर पड़े बिना कैसे रह सकता था?
भगत सिंह जब केवल आठ साल के थे उन्ही दिनों गदर पार्टी के किशोर नेता कर्तार सिंह सराभा को प्रथम विश्व युद्ध के दौरान 1915 में फाँसी दे दी गई। सराभा की शहादत ने भगत सिंह को बहुत गहरे तक प्रभावित किया। उनके अंदर की क्रांतिकारी भावनाएं उसी वक्त से पनपने लगीं। इसी तरह भगत सिंह के किशोर मन को जलियाँवाला बाग हत्याकांड ने झकझोर कर रख दिया। जलियाँवाला बाग हत्याकांड के वक्त उनकी उम्र मात्र बारह साल थी। इस जघन्य नरसंहार की जानकारी मिलते ही भगत सिंह स्कूल नहीं गए बल्कि सीधे घटना स्थल पर गए। मन में गहरी वेदना और पीड़ा लिए उन्होंने वहां की खून से रंगी मिट्टी को माथे से लगाया और एक शीशी में भरकर घर ले लाए। भगत सिंह शीशी में बंद जलियाँवाला बाग की मिट्टी पर नियमित रूप से फूल चढ़ाते थे। जब किशोर उम्र में ही देशभक्ति और क्रांतिकारी भावनाओं की ऐसी ज्वाला दिल में जगी हो, उसे भला इतिहास बनाने से कौन रोक सकता था और भगत सिंह ने इसे सिद्ध कर दिया।
प्रथम असहयोग आंदोलन की विफलता ने देश के तमाम युवा क्रांतिकारियों के साथ ही भगत सिंह को काफी छुब्ध कर दिया था। महात्मा गांधी के आह्वान पर जिस आंदोलन में भाग लेने के लिए भगत सिंह ने स्कूली जीवन का त्याग कर दिया उसे गांधी जी द्वारा अचानक से वापस लेने पर वे विचलित हो गए। 1917 की रूसी समाजवादी क्रांति की सफलता और असहयोग आंदोलन की असफलता से दुखी भगत सिंह इस नतीजे पर पहुंचे कि अहिंसा से देश को आजादी नहीं मिल सकती और इसके लिए सशस्त्र क्रांति ही एक मात्र सही मार्ग है।
इसके बाद राष्ट्रीय कॉलेज में दाखिला होने और कॉलेज में सुखदेव, यशपाल, भगवतीचरण वोहरा जैसे क्रांतिकारियों और भाई परमानंद और जयचंद विद्यालंकार जैसे योग्य शिक्षकों से संपर्क संबंध ने भगत सिंह को उस राग का राहगीर बना दिया, जो भारत की भावी मुक्ति और क्रांति की मंज़िल की ओर जाती थी।
देश को गुलामी से मुक्ति दिलाने की लालसा ऐसी थी जब कॉलेज के दिनों में ही परिवार वालों ने शादी का दबाव डाला तो भगत सिंह ने लाहौर छोड़ने का फैसला कर लिया। यह फरारी जीवन उनके विद्यार्थी जीवन की समाप्ति और सक्रिय क्रांतिकारी जीवन की शुरुआत के रूप में हुई। भगत सिंह लाहौर से सीधे महान पत्रकार और क्रांतिकारियों के दोस्त गणेश शंकर विद्यार्थी के पास कानपुर पहुंचे। वहां वे गणेश शंकर विद्यार्थी की संपादकत्व में निकलने वाली हिन्दी साप्ताहिक ‘प्रताप’ के संपादन विभाग में नाम बदलकर बलवंत सिंह के नाम से काम करने लगे। कानपुर में ही उनकी मुलाकात बटुकेश्वर दत्त, विजय कुमार सिन्हा, योगेश चन्द्र चटर्जी, सुरेश चन्द्र भट्टाचार्य, अजय घोष जैसे युवा क्रांतिकारियों से हुई। यहीं उनकी क्रांतिकारी गतिविधियों के साथ-साथ वैचारिक संघर्ष की भी शुरुआत हुई।
अपने क्रांतिकारी गतिविधियों को संगठित रूप से एक दिशा देने के लिए 1926 में भगत सिंह, भगवतीचरण वोहरा, सुखदेव, अहसान इलाही और धनवंतरी ने ‘नौजवान भारत सभा’ की स्थापना की। समाजवादी विचारों को और ज्यादा पैनी धार देने के लिए 8 और 9 सितंबर 1927 को दिल्ली के फिरोजशाह कोटला में क्रांतिकारियों की बैठक हुई और भगत सिंह की पहल पर ‘हिन्दुस्तान रिपब्लिकन एसोसिएशन’ में सोशलिस्ट शब्द जोड़ा गया और इसके बाद इसका नाम बदलकर ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’ हो गया। भगत सिंह ने क्रांतिकारियों की सोच में समाजवादी विचारधारा का प्रवेश कराकर क्रांतिकारी आंदोलन की धारा को ही बदल दिया, जिसमें भारतीय समाज की मुक्ति की एक नई आशा जगी।
हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन के घोषणा पत्र में क्रांति के संबध में उनकी अवधारणाओं स्पष्ट करते हुए कहा गया कि- “ क्रांति एक ऐसा करिश्मा है जिसे प्रकृति स्नेह करती है और जिसके बिना कोई प्रगति नहीं हो सकती, न प्रकृति में, न ही इंसानी कारोबार में। क्रांति निश्चय ही बिना सोची-समझी हत्याओं और आगजनी की दरिंदा मुहिम नहीं है और न यहां वहां चंद बम फेंकना और गोलियां चलाना है, और न ही यह सभ्यता के सारे निशान मिटाने और समयोचित न्याय और समता के सिद्धांत को खत्म करना है। क्रांति कोई मायूसी से पैदा हुआ दर्शन भी नहीं और न ही सरफरोशों का कोई सिद्धांत है। क्रांति ईश्वर विरोधी हो सकती है, पर मनुष्य विरोधी नहीं। यह एक पुख्ता और जिंदा ताकत है। नए और पुराने के, जीवन और मौत के, रोशनी और अंधेरे के आंतरिक द्वन्द का प्रदर्शन है, कोई संयोग नहीं है, न कोई संगीतमय एकसरता है और न ही कोई ताल है, जो क्रांति के बिना तय हो-गोलियों का राग, जिसके बारे में कवि गाते आए हैं-सच्चाई रहित हो जाएगा अगर क्रांति को समूची दृष्टि में से खत्म कर दिया जाए। क्रांति एक नियम है, क्रांति एक आदेश है और क्रांति एक सत्य है|”
इस बयान से ही स्पष्ट है कि भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों का दृष्टिकोण कितना व्यापक और विस्तृत था। वे सिर्फ भारत की आजादी, भारत की जनता की पूंजीवादी-साम्राज्यवादी बंधनों से छुटकारे की बात नहीं करते थे, बल्कि विश्व सर्वहारा के नेतृत्व में विश्व की शोषित-पीड़ित मानवता की मुक्ति की बातें करते थे।
भगत सिंह के क्रांतिकारी सोच और दूरदृष्टि के साथ मानवता को समर्पित उनके विचारों को आकार देने में पुस्तकों की भूमिका भी बेहद महत्वपूर्ण रही। जब भी वे जेल गए, कारावासों को उन्होंने अपने अध्ययन का जरिया बना लिया। जेलों के भीतर स्वाध्याय के क्रम में उन्होंने राजनीति, धर्म, दर्शन, इतिहास सब क्षेत्रों में इनसे जुड़े महान विचारकों का वह सब कुछ पढ़ा जो उनके सपने और लक्ष्य को सही दिशा दे सके, उन्हें विचारों को सफल और सार्थक बना सके। क्रांतिकारियों के लिए पठन-पाठन के महत्व को उजागर करते हुए उन्होंने कहा था कि “क्रांति परिश्रमी विचारकों और परिश्रमी कार्यकर्ताओं की पैदावार होती है। दुर्भाग्य से भारतीय क्रांति का बौद्धिक पक्ष हमेशा दुर्बल रहा है, इसलिए क्रांति की आवश्यक चीजों और किए कामों के प्रभाव पर ध्यान नहीं दिया जाता रहा। इसलिए एक क्रांतिकारी को अध्ययन-मनन अपनी पवित्र जिम्मेदारी बना लेनी चाहिए|”
भगत सिंह भारत का मुक्ति संग्राम को मजदूरों, किसानों और सामान्य जन के पक्ष में लड़े जाने के पक्षधर थे। इसलिए वे बार-बार अपने बयानों और लेखों में आमूलचूल सामाजिक बदलाव की बात करते थे, और यही वजह थी कि जब ब्रिटिश सरकार ने 1928-29 में मजदूर विरोधी ‘ट्रेड डिस्प्यूट बिल’ और ‘पब्लिक सेफ्टी बिल’ पेश किया तब उसके विरोध में भगत सिंह ने बटुकेश्वर दत्त के साथ असेम्बली में बम फेंका जिसका मकसद किसी को नुकसान पहुंचाना नहीं बल्कि बहरों को विरोध की आवाज सुनानी थी। बम फेंकने के बाद समय भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने इंकलाब ज़िंदाबाद और सर्वहारा की तानाशाही ज़िंदाबाद के नारे लगाए। साथ ही लाल पर्चे असेम्बली कक्ष में फेंक कर अपने स्थान पर खड़े रहे और गिरफ्तारी दे दी।
यह बम धमाका भगत सिंह और उनके साथियों के वैचारिक संघर्ष की उद्घोषणा थी। लाल पर्चे पर अपने उद्देश्यों का खुलासा करते हुए उन्होंने शीर्षक दिया था-“बहरों को सुनाने के लिए बहुत ऊंची आवाज की आवश्यकता होती है”।
गिरफ्तारी के बाद भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त पर दिल्ली के सेशन जल मिस्टर लियोनाई मिडिलटन की अदालत में मुकदमा चलाया गया। भगत सिंह और उनके साथियों ने अदालत की कार्रवाई का भरपूर उपयोग अपने विचारों को जन-जन तक पहुंचाने के लिए किया। सेशन कोर्ट में भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त ने ऐतिहासिक बयान दिए जिसने भारतीय जनमानस को गहराई तक प्रभावित किया। इस बयान के बाद भगत सिंह और उनके साथी क्रांतिकारियों की लोकप्रियता अपने चरम पर पहुंच गई। उस समय बच्चे-बच्चे की जुबान पर भगत सिंह और उनके साथियों का नाम था।
8 अप्रैल, 1929 को गिरफ्तारी के बाद से 23 मार्च 1931 फाँसी के दिन तक करीब दो साल तक भगत सिंह का जेल-जीवन अनके गंभीर अध्ययन, चिंतन-मनन और वैचारिक संघर्ष का काल रहा। इस दौर में उन्होंने अपने समय के भारतीय समाज की संरचना का गहरा विश्लेषण किया और इस निष्कर्ष पर पहुंचे कि इंकलाब के बगैर भारत की मुक्ति संभव नहीं है। यही वजह थी कि उन्होंने सामाजिक परिवर्तन की आवश्यकता को बार-बार उजागर किया और समाजवादी क्रांति का रास्ता अपनाने का निश्चय किया।
अपने समाजवादी विचारों पर बाबा सोहन सिंह भाकना से चर्चा करते हुए भगत सिंह ने कहा था कि “हमारी पुरानी विरासत के दो पक्ष होते हैं, एक सांस्कृतिक और दूसरा मिथकीय। मैं सांस्कृतिक गुणों जैसे- निष्काम देश-सेवा, बलिदान, विश्वासों पर अटल रहना- को पूरी सच्चाई से अपनाकर आगे बढ़ने की कोशिश में हूं, लेकिन मिथकीय विचारों को, जो कि पुराने समय की समझ के अनुरूप हैं, वैसे का वैसा मानने के लिए बिल्कुल तैयार नहीं हूं, क्योंकि विज्ञान ने ज्ञान में खूब वृद्धि की है और वैज्ञानिक विचार अपनाकर ही भविष्य की समस्याएं हल हो सकती हैं”। भगत सिंह के दो लेख ‘मैं नास्तिक क्यों हूं?’ और ‘ड्रिमलैण्ड’ की भूमिका में समाज-व्यवस्था, जीवन, क्रांति और भावी समाज के बारे में उनके वैज्ञानिक दृष्टिकोण देखे जा सकते हैं।
देश को गुलामी से मुक्ति दिलाने की चाह कितनी प्रबल थी उनके दिल में, इसे एक वाकया से समझा जा सकता है। भगत सिंह जब लाहौर जेल में थे, तब गदर पार्टी से सम्पर्क रखने के जुर्म में भाई रणधीर सिंह भी कैद भुगत रहे थे। भाई रणधीर सिंह की अपनी रिहाई से कुछ दिन पहले भगत सिंह से भेंट हुई। गदरी-बाबाओं- बाबा हरनाम सिंह, काला सन्धिया और तेजा सिंह चूहड़काना ने यह भेंट करवाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी। लेकिन एक बार भाई रणधीर सिंह ने यह कहकर कि भगत सिंह ने केश कटा दिए हैं, उनसे मिलने से इंकार कर दिया था। इसके उत्तर में पत्र लिखकर भगत सिंह ने कहा था कि “मैं सिख धर्म की अंग-अंग कटवाने की परंपरा का कायल हूं। अभी तो मैंने एक ही अंग (केश) कटवाया है- यह भी पेट के लिए नहीं, देश के लिए- जल्दी ही गर्दन भी कटवाऊंगा|” लेकिन एक सिख की तंगनजरी और तंगदिली का गिला जरूर रहेगा। भगत सिंह के इस पत्र को पढ़ने के बाद भाई रणधीर सिंह उनसे मुलाकात करने चले आए थे।
देश की आजादी का सपना अपने दिल में पाले भगत सिंह ने 3 मार्च 1931 के अपने छोटे भाई कुलतार को लिखे अंतिम पत्र में लिखा था-
“हवा में रहेगी मेरे ख्याल की बिजली,
ये मुश्ते-खाक है फानी, रहे रहे न रहें।
अच्छा रुखसत, खुश रहो अहले वतन,
हम तो सफ़र करते हैं”।
लाहौर षडयंत्र केस के इस मामले में 23 मार्च 1931 के भारत मां के इस महान सपूत को फाँसी पर लटका दिया गया। उनके साथ ही उनके दो साथी सुखदेव और राजगुरू को भी फाँसी हुई। भगत सिंह और उनके क्रांतिकारी साथियों ने देश की आजादी के लिए हथियार उठाया। ब्रिटिश साम्राज्यवाद के खिलाफ खुले जंग का ऐलान किया, संघर्ष किया, अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया और देश की भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणास्रोत बन गए।