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वास्को डी गामा की अरबों से टकराव और समुद्र में भारतीयों से मुलाकात | वास्को डी गामा- Part-3

Vasco da Gama Part-3

वास्को डी गामा.. काली मिर्च के देश...भारत.. क्यों और कैसे आया?... इस आलेख की सीरीज में अब तक हम आपको वास्को डी गामा के पुर्तगाल से चलकर केप ऑफ गुड होप तक पहुंचने की कहानी सुना चुके हैं। हमने दो पार्ट में इस कहानी की चर्चा की है जो अपने आप में बेहद रोमांचक है। अगर आपने अभी तक उसे नहीं पढ़ा है तो आप उसे पढ़े... बेहद दिलचस्प और इतिहास के एक महत्वपूर्ण कालखंड को खुद में समेटे हुए है वास्को डी गामा की कहानी।  

वास्को डी गामा- पार्ट-1

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बहरहाल, वास्को डी गामा की भारत निमित इस यात्रा की कहानी को आगे जारी रखते हुए अब बात करते हैं तीसरे पार्ट की...जो केप ऑफ गुड होप से शुरू होती है।

केप ऑफ गुड होप से जैसे ही वास्को डी गामा का बेड़ा आगे बढ़ा..वैसे ही इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया। क्योंकि यह पहला मौका था जब कोई यूरोपीय जहाज अफ्रीका के दक्षिणी छोर से आगे की ओर बढ़ा था। आगे के बारे किसी को कुछ भी पता नहीं था इसलिए आगे बढ़ने के साथ ही दुस्वारियां भी बढ़ती गई। अफ्रीका के तटों पर इस्लाम को मानने वाले राजाओं का राज था। वास्को डी गामा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि भारत पहुंचने के लिए मदद कैसे ली जाए और किससे ली जाए। कहीं लड़ाई, कहीं कूटनीति और कहीं झूठे वादों का सहारा लेकर वह आगे की ओर बढ़ रहा था। इसी रास्ते में आगे अरब और मूर व्यापारियों से उसका टकराव भी हुआ और पहली बार भारतीय व्यापारी भी उसे मिले।

इन सभी बातों की चर्चा करेंगे हम - वास्को डी गामा भारत क्यों और कैसे आया? प्रोग्राम के इस तीसरे पार्ट में.... साथ ही यह भी जानेंगे कि कैसे मोजांबिक और मोम्बासा में वास्को डी गामा के बेडे को जब्त करने की कोशिश की गई, पीने का पानी लेने पर आदिवासियों ने कैसे पुर्तगालियों पर हमला कर दिया और आखिर वह कौन व्यक्ति था जिसने केप ऑफ गुड होप के बाद वास्को डी गामा को भारत तक का रास्ता दिखाया।

केप ऑफ गुड होप से चलने के बाद 25 नवंबर की शाम को वास्को डी गामा का बेड़ा सामब्रास खाड़ी में प्रवेश किया। पहले इस खाड़ी का नाम मौंसल खाड़ी था। वास्को डी गामा ने इसका नाम बदल कर सामब्रास कर दिया। अफ्रीका के दक्षिण तट के बीचोबीच स्थित इस घाटी में वास्को डी गामा के बेडे के साथ एक बड़ी दुर्घटना हो गई। इस खाड़ी को पार करते हुए उनका भंडार पोत टूट गया। जहाज पर सवार सभी लोगों के होश उड़ गए। जैसे-तैसे उन लोगों ने जहाज डूबने से पहले उस पर लदे समानों को अन्य जहाजों पर लादा। इस आकस्मिक दुर्घटना की वजह से अगले 13 दिनों तक उन्हें वहीं रूकना पड़ा। इस दौरान वहां के स्थानीय आदिवासी कौतुहल पूर्वक जहाजों को देखने आते थे। शुरू में तो पुर्तगाली और स्थानीय लोगों में सामानो का आदान-प्रदान हुआ लेकिन एक दिन इन स्थानीय टोलियों से वास्को डी गामा के लोगों की भिडंत हो गई। दरअसल, पुर्तगालियों के जहाज पर पानी की कमी हो गई और जब पुर्तगाली जहाज पर पानी भरने लगे तो इसे देखकर वहां के निवासी भड़क गए। उनके लिए पानी शायद बेशकीमति चीज था जिसे वो किसी को देना नहीं चाहते थे। नाराज स्थानीय निवासियों ने वास्को डी गामा के जहाज पर लगे क्रास को छिन्न-भिन्न कर दिया।

खैर, जैसे तैसे वहां से निकलकर वास्को डी गामा और उसके साथी आगे बढ़े। 16 दिसंबर को वास्को डी गामा के दल ने अफ्रीका के दक्षिणी छोर पर बार्थोलोम्यू डियाज के अंतिम स्तंभ को पार किया और रिओ द इन्फांते पहुंच गया। बार्थोलोम्यू यहीं तक पहुंचा था। इससे पहले दूसरा कोई भी यूरोपवासी यहां से आगे यात्रा करने में सफल नहीं हो पाया था। यह पहली बार था जब केप ऑफ गुड होप के आगे की यात्रा पर कोई यूरोपियन जहाज निकल रहा था। और इस तरह इस घटना ने एक नया इतिहास रच दिया।

वास्को डी गामा- पार्ट-2

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20 दिसंबर को वास्को डी गामा का बेड़ा क्रौस द्वीप पहुंचा। यहां पर अगुलहास नामक समुद्री धारा बहुत ही तेज गति से उत्तर से दक्षिण की ओर बहती है। वह धारा तब वास्को डी गामा के जहाजों के विपरीत बह रही थी। इसे देख उसके दल के सभी सदस्य घबड़ा गए। धारा की वेग इतनी थी कि उसे पार करना नामुमकि सा था। साथ ही समुद्री तूफाने भी चल रही थीं। यह वास्को डी गामा के लिए कठिन परीक्षा की घड़ी थी। उसने जहाजों को वहीं रोक दिया और भगवान से प्रार्थना करने लगा कि धारा अनुकूल बहने लगे ताकि जहाज उसे पार कर सकें। यदि वास्को डी गामा को उस समय सफलता नहीं मिलती तो भारत पहुंचने का उसका सपना अधूरा हीं रह जाता। लेकिन भाग्य उसके पक्ष में था और अचानक से हवा उनके अनुकूल बहने लगी। और हवा की मदद से वो इस विपरीत धारा को पार करने में सफल रहा।

क्रौस द्वीप में विपरीत धारा को पार कर वास्को डी गामा का जहाज 25 दिसंबर को क्रिसमस के दिन धीरे-धीरे हिन्द महासागर में प्रवेश कर गया। हिन्द महासागर में प्रवेश करने के बाद जो सरजमीं उन्हें दिखाई दी, उसका नाम उन्होंने यीशु के जन्म पर नेटल या नेटाल रखा। इस यात्रा के दौरान उनके जहाज पर पानी खत्म होने लगा लेकिन पीने का पानी उन्हें दूर दूर तक कहीं दिखाई नहीं दे रहा था। लिहाजा खुद को बचाए रखने के लिए उन लोगों ने कम पानी पीना शुरू कर दिया। समुद्र के खारे पानी में ही खाना बनाकर खाने लगे।

करीब 14 दिन चलने के बाद वे फिर से तट के पास पहुंचे। और 11 जनवरी 1498 को वास्को डी गामा और उसके साथी पूर्वी अफ्रीका के तट पर पानी लेने के लिए रूके। स्थानीय लोगों ने वास्को डी गामा और उसके लोगों का जमकर स्वागत किया। करीब एक महीने तक वास्को डी गामा अपने दल के साथ वहां रूका रहा।

इसी बीच एक गंभीर संकट आन पड़ा। वास्को डी गामा के दल के अनेक सदस्य बीमार पड़ गए। उनके हाथ और पैरों में सूजन आ गई थी मसूड़े फूल गए थे और वो खाना भी नहीं खा पाते थे। वास्को डी गामा और उसके भाई पाओलो ने सभी का हौंसला बढ़ाया और देखभाल की। जब सब ठीक हो गए तो 24 फरवरी को जहाज आगे बढ़ा।

मार्च को वास्को डी गामा का बेड़ा मोजांबिक द्वीप पर पहुंचा। वहां पुर्तगालियों ने अपने जहाजों का लंगर डाल दिया। ये द्वीप अरब साम्राज्य के आधिपत्य में था और वहां का राजा एक मुसलमान था। वहां के लोग अरबी भाषा बोलते थे। ये इलाका भारतीय महासागर में उनके ट्रेड रूट का महत्वपूर्ण हिस्सा था।

शुरु में मोजांबिक के राजा और उसके लोगों ने वास्को डी गामा और उसके दल के सदस्यों के साथ काफी अच्छा वर्ताव किया। इस दौरान वास्को डी गामा ने मोजांबीक के सुल्तान से मुलाकात भी की। वास्को डी गामा और सुल्तान ने कई सारे उपहारों का आदान—प्रदान भी किया। लेकिन जल्द ही वास्को डी गामा को वहां को लोगों से खतरा महसूस होने लगा। पीने की पानी की तलाश में स्थानीय लोगों से उसकी झड़प भी हो गई। एक बार वहां के स्थानीय लोगों ने वास्को डी गामा को घेर लिया तब उसने अपने जहाज से उन लोगों पर गोलियां चलवाई और तोप से गोले दगवाए। काफी मुश्किल से पुर्तगालियों की जान बची। इन घटनाओं की वजह से वास्को डी गामा जल्द से जल्द वहां से आगे निकलने में ही भलाई समझी।

रास्ते में छोटी-मोटी मुश्किलें और कई जगहों पर स्थानीय लोगों के विरोध को झेलते हुए 7 अप्रैल को पुर्तगाली बेड़ा मोम्बासा द्वीप पहुंच गया। यहां पहुंचने पर पता चला कि मोजाम्बीक का सुल्तान उन्हें मोम्बासा बंदरगाह पर कैद करना चाहता था। इसे जानने के बाद पुर्तगाली जहाज भगाकर आगे निकल गए और उत्तर की ओर बढ़ते हुए 14 अप्रैल को अफ्रीका के पूर्वी तट पर बसे हुए नगर मालिन्दी के तट पर पहुंच गया।

उन दिनों मालिन्दी एक सम्पन्न शहर था। वहां के बंदरगाह पर बहुत से विदेशी जहाज व्यापार के लिए आते-जाते रहते थे। मालिंदी और भारतीय राज्यों के बीच व्यापारिक संबंध भी थे। मालिंदी में ही पहली बार वास्को डी गामा की भारतीय व्यापारियों और नाविकों से भेंट हुई। जिन्हें गलति से वास्को डी गामा ईसाई समझ बैठा था। मालिंदी के सुल्तान की मोम्बासा से दुश्मनी थी। इसलिए जब उसे पुर्तगालियों के साथ हुए व्यवहार का पता चला तो उन्होंने पुर्तगालियों का स्वागत किया। मालिंदी के राजा और वास्को डी गामा के बीच कई बार मुलाकात हुई और अनेक वस्तुओं का आदान-प्रदान भी हुआ।

यहीं पर वास्को डी गामा को वह व्यक्ति मिला जो मालिंदी से कालीकट तक पहुंचने के समुद्री रास्तों को जानता था। उस व्यक्ति को वास्को डी गामा के कहने पर मालिंदी के राजा ने उसे दिया था। वह गुजरात का निवासी था और उसका नाम था मालिम काना। मालिम काना एक अनुभवी नाविक भी था। मालिम काना के मिलने से वास्को डी गामा के लिए आगे का रास्ता आसान हो गया। और पुर्तगालियों को मालिंदी से आगे के रास्ते का मार्गदर्शन मालिम काना ने ही किया।

वीओ--  नौ दिनों तक मालिंदी में रूकने के बाद 24 अप्रैल को वास्को डी गामा और उसका बेड़ा आगे चल पड़ा अपने आखिरी पड़ाव के लिए... जिसके लिए वो पुर्तगाल से चले थे.. यानी सोने की चिडिया और काली मिर्च के देश भारत तक पहुंचने के लिए। मालिंदी से आगे की यात्रा के लिए वास्को डी गामा ने मालिम काना के साथ कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने साथ ले लिया था। ये लोग मानसून की हवाओं का रूख जानते थे। इसलिए आगे की यात्रा में मददगार साबित हुए।

दरअसल, मालिंदी से चलने के बाद पुर्तगाली कालीकट जाना चाहते थे क्योंकि कालिकट काली मिर्च, अन्य मसालों और विदेशी वस्तुओं के व्यापार का सबसे बड़ा केंद्र था। वास्को डी गामा के आने के समय कालीकट एक समृद्ध नगर हुआ करता था और लिस्बन से बड़ा था।

मालिंदी से चलने के बाद अगले 23 दिनों तक पुर्तगाली जहाज अरब सागर में आगे बढ़ते रहे। अरब सागर पार कर 20 मई को पुर्तगालियों का यह बेड़ा कालीकट से कुछ दूर कपूआ या कप्पड पहुंच कर वहां अपना लंगर डाल दिया। दरअसल वे कुपआ को ही कालिकट समझ बैठे थे। जबकि कालिकट.. कपूआ से सात मील दक्षिण में था। कपुआ में ही कुछ भारतीय नाविकों ने उनकी मदद करते हुए उन्हें कालिकट तक का रास्ता बताया। उन भोले-भाले व्यापारियों को क्या पता था कि जिन पुर्तगालियों को वो रास्ता बता रहे हैं उनके इस भलाई के बदले ये यूरोपीय एक दिन उनके ही देश पर कब्जा कर सारी संपत्ति लूट ले जाएंगे। इस तरह कपुआ या कप्पड वह जगह है जहां सबसे पहला यूरोपीय जहाज उतरा। इसकी स्मृति में वास्को डी गामा ने वहां पत्थर भी गाड़ दिया।

कपुआ या कप्पड पहुंचने का मतलब यह था कि जिस मकसद से वास्को डी गामा लिस्बन से भारत के लिए चला था यानी समुद्री मार्ग का पता लगाने... उसमें उसे सफलता मिल चुकी थी। लेकिन यह सफलता अब भी अधूरी थी। अभी उसे कालीकट के राजा जमोरिन से मिलना बाकी था। कालीकट में मौजूद अरबी और मूर व्यापारियों के षडयंत्रों से दो चार होना बाकी था।

इन सारी बातों की चर्चा इस सीरीज के अगले और आखिरी भाग-  वास्को डी गामा भारत क्यों और कैसे आया?- के पार्ट-4 में करेंगे.. जिनमें ये भी जानेंगे कि क्यों वास्को डी गामा से पूछा गया कि आदमी ढूंढने आए हो या पत्थर.... और क्यों वास्को डी गामा को कालीकट बंदरगाह पर अपने जहाजों से तोप के गोले बरसाने पड़े? इन बातों को जानने के लिए वास्को डी गामा भारत क्यों और कैसे आया?- कहानी का आखिरी हिस्सा.. पार्ट-4 को पढ़ना नहीं भूलिएगा।

                                                               

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