हिन्दी: कैसे बनेगी वैश्विक भाषा और क्या है चुनौतियां? हिन्दी का इतिहास और प्रचार-प्रसार
हिन्दी, दुनिया की सबसे ज्यादा बोली जाने वाली भाषाओं में से एक है। भारत की करीब 57 फीसदी से ज्यादा आबादी हिन्दी बोलती और समझती है। आजादी के आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के खिलाफ पूरे देश को एकजुट करने में हिन्दी की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही। संविधान सभा में भी हिन्दी को लेकर काफी लंबी बहस के बाद इसे राजभाषा के रूप में अपनाया गया। आजादी के बाद से हिन्दी का प्रचार-प्रसार लगातार बढ़ता ही जा रहा है। बावजूद इसके हिन्दी अभी तक राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं पा सकी है।
हिन्दी के पक्ष में तमाम तर्कों के बावजूद यह एक कटु सत्य यह भी है कि देश में तकनीकी और आर्थिक समृद्धि के साथ-साथ अंग्रेजी ने पूरे देश को अपने वस में कर लिया है। हिन्दी देश की राजभाषा होने के बावजूद देश भर में अंग्रेजी का वर्चस्व कायम है। हिन्दी जानते हुए भी ज्यादातर लोग हिन्दी में बोलने, पढ़ने या काम करने में हिचकिचाते है।
हालांकि सरकारी और संस्थागत प्रयासों की वजह से बीते कुछ दशकों में, भारत और दुनिया में हिन्दी को लेकर, लोग संजीदा हुए हैं। आज हिन्दी पूरी दुनिया में बोली जाने वाली, चौथी बड़ी भाषा है, बावजूद इसके, हिन्दी बदलते समाज के संवाद की भाषा, नहीं बन पाई है। हिन्दी का, रोजगार से न जुड़ पाना, भूमंडलीकरण के दौर में चुनौतियों का सामना न कर पाना, हिंदी और हिन्दी भाषियों के लिए मुश्किलें पैदा कर रहा है।
हालांकि तमाम चुनौतियों के बावजूद दुनिया के दूसरे कोने में पहुंच बनाने में हिंदी कामयाब हुई है। आज दुनिया भर में 100 करोड़ से ज़्यादा लोग हिंदी बोल या समझ लेते हैं। इससे हिन्दी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एक नई पहचान बनाने में कामयाब हुई है। यूनेस्को की सात भाषाओं में हिन्दी को भी मान्यता प्राप्त है। इसके साथ ही हिंदी सिर्फ भाषा ही नहीं बल्कि एक बाज़ार बन चुकी है जिसमें साहित्य से लेकर टीवी और फिल्म जैसे बड़े कारोबार शामिल है। लेकिन इन तमाम उपलब्धियों के बावजूद हिंदी की स्वीकार्यता उतनी नहीं है जितनी इसकी गौरवशाली इतिहास, व्याकरणिक शुद्धियां और शानदार उपलब्धियां है। और इसके लिए अभी लंबी लड़ाई जरूरी लग रही है। खासकर भूमंडलीकरण के दौर में अंग्रेजी से प्रतिस्पर्धा हिंदी को काफी पीछे ले जा रही है।
दरअसल हिन्दी को दो तरफा प्रतिस्पर्धा झेलनी पड़ रही है। वैश्विक स्तर पर प्रतिस्पर्धा तो हैं ही, हिन्दी को देश में भी प्रतिस्पर्धा का सामना करना पड़ता है। रोजनामचा, जमा तलाशी, फौजदारी, दरियाफ्त, मौजा, हुकम, हिकमत, अमली, मुखबिर, मजमून, फिकरा, तहरीर, शहादत... आदि अनेक यैसे शब्द हैं जिसे हिंदुस्तान का ज्यादातर व्यक्ति जानता है, और जीवन में कभी न कभी पुलिस थानों और कचहरी में उसका पाला भी इनसे पड़ता है। हर रोज हजारों लाखों बार ये शब्द काम में आते हैं। जरूरी नहीं है कि इन शब्दों को हटा दिया जाए या खत्म कर दिया जाए। लेकिन इनके साथ कम से कम हिन्दी के वैकल्पिक शब्दों के इस्तेमाल पर भी तो जोर दिया जा सकता है, ताकि इनके साथ-साथ इनके समानार्थक हिन्दी के शब्दों को लोग जान पाएं और उसका प्रचार-प्रसार हो सके।
दरअसल, हिन्दी अनुवाद की नहीं संवाद की भाषा है। किसी भी भाषा की तरह हिन्दी भी मौलिक सोच की भाषा है।
ये भी सही है कि समय के साथ-साथ हिन्दी पहले के मुकाबले बहुत बदल गई है। एक ज़माने में जिस तरह की हिंदी बोली, और लिखी जाती थी वो अब चलन से बाहर हो गई है। ज़रूरत के हिसाब से, इसमें कई बदलाव आए हैं। हिन्दी में ये बदलाव, दशक दो दशक की बात नहीं है बल्कि हिंदी भाषा, एक हजार से ज्यादा सालों का इतिहास, समेटे हुए है।
भाषा वैज्ञानिकों के मुताबिक हिन्दी साहित्य का इतिहास वैदिक काल से आरम्भ होता है। हालांकि समय-समय पर इसका नाम बदलता रहा। कभी 'वैदिक', कभी ‘संस्कृत’, कभी 'प्रकृत', कभी 'अपभ्रंश' और अब हिंदी। हिंदी भाषा के उद्भव और विकास की प्रचलित धारणाओं के मुताबिक प्राकृत की अंतिम अपभ्रंश अवस्था से ही हिंदी का उद्भव माना जाता है। इसे ही विद्यापति ने देसी भाषा कहा।
हिंदी साहित्य का आरंभ आठवीं शताब्दी से माना जाता है। बौद्ध धर्म की वज्रयान शाखा के सिद्धों ने जनता के बीच उस समय की लोकभाषा में अपने मत का प्रचार किया। हिन्दी का प्राचीन साहित्य इन्हीं सिद्धों ने पुरानी हिंदी में लिखा। इसके बाद नाथपंथी साधुओं ने बौद्ध, शांकर, तंत्र, योग और शैव मतों को मिलाकर नया पंथ चलाया। इन्होंने लोक प्रचलित पुरानी हिन्दी में अनेक धार्मिक ग्रंथों की रचना की। इसके बाद जैनियों की रचनाएं भी मिलती हैं। इसी काल में अब्दुल रहमान का काव्य "संदेशरासक' भी लिखा गया, जिसमें परवर्ती बोलचाल के निकट की भाषा मिलती है।
ग्यारहवीं सदी में देशी भाषा हिंदी का रूप साफ हुआ। इस काल में राजाओं के संरक्षण में चारणों और भाटों ने रासो के रूप में प्रचलित वीरगाथा लिखी। इसी दौरान मैथिल कोकिल विद्यापति हुए, जिनकी पदावली में मानवीय सौंदर्य और प्रेम की अनुपम व्यंजना मिलती है। अमीर खुसरो का भी यही समय है। इन्होंने ठेठ खड़ी बोली में अनेक पहेलियां, मुकरियाँ और दो सखुन की रचना की। इनके गीतों, दोहों की भाषा ब्रजभाषा है।
वहीं, तेरहवीं सदी में धर्म के क्षेत्र में फैले अंधविश्वास को तोड़ने के लिए भक्ति आंदोलन के रूप में भारत व्यापी सांस्कृतिक आंदोलन शुरू हुआ, जिसने सामाजिक और वैयक्तिक मूल्यों की स्थापना की। इस तरह विभिन्न मतों का आधार लेकर हिन्दी में निर्गुण और सगुण नाम से भक्ति काव्य की दो शाखाएं साथ-साथ चलीं। इस दौरान कई बड़े ग्रंथों की रचना हुई।
18वीं सदी के आसपास हिंदी कविता में नया मोड़ आया, जो रीतिकाल के नाम से मशहूर हुआ। इसे तात्कालिक दरबारी संस्कृति और संस्कृत साहित्य से बढ़ावा मिला। तो वहीं आधुनिक काल यानी 19 वीं सदी में भारतीयों का यूरोपीय संस्कृति से संपर्क हुआ। नए युग के साहित्य की प्रमुख संभावनाएं खड़ी बोली गद्य में भी थी, इसलिए इसे गद्य-युग भी कहा गया। हिन्दी का प्राचीन गद्य राजस्थानी, मैथिली और ब्रजभाषा में मिलता है। खड़ी बोली की परंपरा प्राचीन है। अमीर खुसरो से लेकर मध्यकालीन भूषण तक के काव्य में इसके उदाहरण हैं।
इस तरह एक लंबी यात्रा और हजारों साल का इतिहास खुद में समेटे हिन्दी की राह चुनौतियों के साथ ही बेहद ही गौरवशाली और ऐतिहासिक रही है। बावजूद इसके समय के साथ हिन्दी का प्रचार-प्रसार धीरे-धीरे कम होने लगा और हिन्दी बोलचाल के साथ ही साहित्यिक रूप से भी सिमटने लगी। हिन्दी की इस स्थिति को देखते हुए ही 70 के दशक से हिन्दी के प्रचार-प्रसार को लेकर बहस मुबाहिसों का दौर चर रहा है। शायद यह अकेली ऐसी भाषा है, जिसके लिए अलग राजभाषा विभाग और विश्व हिंदी सम्मेलनों जैसी कवायदें चल रही हैं। हिंदी को जिंदा रखने के लिए हर साल इन्हीं सम्मलनों और सेमिनारों की खाद डालनी पड़ती है। इन सम्मेलनों की सफलता या असफलता भी हिन्दी के प्रचार-प्रसार में बड़ा मायने रखती है।
आज दुनिया में 6000 से ज्यादा भाषाएं बोली जाती हैं, इनमें से अकेले एशिया में ही 22 सौ से ज्यादा भाषाएं हैं। इन भाषाओं के बीच में खड़ी हिंदी को एक धारणा, जो चुनौती दे रही है, वो है करियर की। हिंदी न पहले और न अब लोगों को रोजगार से जोड़ पाई है। बीते वर्षों में ये समझ मजबूत हुई है कि हिंदी को अगर जेब और भविष्य से जोड़ दिया जाए, तो ये अपने आप लोगों के दिल से जुड़ जाएगी।
ये भी सच है कि अपनी उत्पत्ति के बाद से तमाम चुनौतियों का सामना करते हुए हिन्दी लगातार समृद्ध भी हुई है आगे भी बढ़ी है। हिन्दी को और ज्यादा विस्तार के लिए उसे नए दौर के नए कलेवर में ढालना भी बहुत जरूरी है।
मोबाइल, एप्स, इंटरनेट और गैजेट्स के जमाने में अगर हिंदी को भी उसी तरीके में ढाला जाए तो हिन्दी का विस्तार ज्यादा से ज्यादा और जल्द से जल्द होगा। वैसे, आज सोशल मीडिया के इन टूल्स और नए-नए तकनीकों में हिन्दी का प्रयोग खूब हो भी रहा है। तमाम वैश्विक चुनौतियों के बावजूद हिन्दी अखबारों का प्रसार भी बहुत तेजी से बढ़ा है। साथ ही फेसबुक से लेकर ट्विटर पर हिन्दी करोड़ों लोगों द्वारा पढ़ी और लिखी जा रही है। युवा पीढ़ी को इस माध्यम में ज्यादा से ज्यादा जोड़ने की जरूरत है ताकि हिन्दी को सिर्फ भावनात्मक समर्थन ही नहीं, बल्कि ऐसे उपयोगी और वास्तविक समर्थन मिले जो इसकी दशा और दिशा को तय करने में कारगर साबित हो।
भाषा वही जीवित रहती है जिसका प्रयोग जनता करती है। भारत में लोगों के बीच संवाद का सबसे बेहतर माध्यम हिन्दी है। इसलिए इसे ज्यादा से ज्यादा एक-दूसरे में प्रचारित करने की जरूरत है। अपने बोलचाल में हिन्दी के उपयोग करने की जरूरत है ताकि उसकी जीवंतता और उपयोगिता बनी रहे।
हिन्दी आम आदमी की भाषा के रूप में देश की एकता का सूत्र है। सभी भारतीय भाषाओं की बड़ी बहन होने के नाते हिन्दी अलग-अलग भाषाओं के उपयोगी और प्रचलित शब्दों को अपने में समाहित कर सही मायने में भारत की संपर्क भाषा होने की भूमिका निभा रही है। हिन्दी जन-आंदोलनों की भी भाषा रही है और सबसे बढ़कर हिन्दी के प्रसार से पूरे देश में एकता और राष्ट्रीयता की भावना मजबूत होगी।