राजनीतिक
कर्म और विचार दोनों में अटल थे वाजपेयी

‘जीवन बंजारों का डेरा... आज यहाँ कल कहां कूच है... कौन जानता किधर सबेरा’... कविता की इन दार्शनिक पंक्तियों में जीवन का फलसफा छुपा हुआ है जिसे अटल बिहारी वाजपेयी अक्सर कहा करते थे। बिना किसी भय के पूरी निडरता के साथ भविष्य में घटने वाली हर अनहोनी के लिए तैयार रहना उसे स्वीकार करना किसी सामान्य व्यक्ति के बस की बात नहीं होती.... इसीलिए तो विशेष और असामान्य थे अटल बिहारी वाजपेयी.... जिन्होंने अपनी सौम्यता, सहजता और सहृदयता से करोड़ों भारतीयों के दिलों में घर बनाई।
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अनूठी शैली और विराट व्यक्तित्व के धनी थे अटल बिहारी वाजपेयी

इतिहास के एक लंबे कालखंड को खुद में समेटे अटल बिहारी वाजपेयी का सफर कई मायने में ऐतिहासिक रहा। ये सफर शुरू हुआ 25 दिसंबर 1924 को, जब वे ग्वालियर में पैदा हुए। इसके बाद तो ग्वालियर की गलियों से जनसंघ के संस्थापक तक का सफ़र...। दिल्ली दरबार से संयुक्त राष्ट्र संघ तक का सफर... और बीजेपी के संस्थापक अध्यक्ष से लेकर प्रधानमंत्री तक का सफर। हर सफर अपने आप में बेजोड़ और एक अनोखी दास्तां लिखते हुए गुज़रा। हां, एक बात ये भी रही कि इस पूरे सफर के दौरान हिन्दी प्रेम और राष्ट्रवाद की चमक भी उनके चेहरे पर हमेशा बनी रही।
सम्पूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण को संन्यास लेने के बाद वापस राजनीति में क्यों आना पड़ा?

अपने जीवन में संतों जैसा सम्मान केवल दो नेताओं ने प्राप्त किया। एक महात्मा गांधी थे तो दूसरे जयप्रकाश नारायण। इसलिए जब सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बाद जेपी ने 1974 में ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ के नारे के साथ मैदान में उतरे तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ा, जैसे किसी संत महात्मा के पीछे चल रहा हो।
मानवता के पुरोधा: दीनदयाल उपाध्याय

राष्ट्र निर्माण और समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय का पूरा जीवन सादगी, ईमानदारी और प्रेरणा की मिसाल है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय मात्र एक राजनेता नहीं थे। वे उच्च कोटि के चिंतक, विचारक और लेखक भी थे। उन्होंने शक्तिशाली और संतुलित रूप में विकसित राष्ट्र की कल्पना की थी। पूरी दुनिया को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा से परिचित कराने वाले दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीतिक और आर्थिक चिंतन के एक वैचारिक दिशा देने वाले पुरोधा थे।
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