महात्मा जिनके अनोखे प्रयोग ने ब्रिटिश सत्ता को उखाड़ फेंका
दुनिया में अब तक जितने भी महापुरुष हुए उनमें मोहनदास करमचंद गांधी का नाम बेहद सम्मान से लिया जाता है। महात्मा गांधी इस सदी के महान व्यक्ति माने गए हैं। महात्मा गांधी ने अपने विचार, सत्य, अहिंसा और शांतिदूत के रूप में भारत ही नहीं पूरे विश्व को आलोकित किया है। राष्ट्रीय आंदोलन का यह महानायक देश की आजादी के लिए जीवन का बलिदान देने के लिए तैयार था लेकिन उनकी आजादी का अर्थ सिर्फ अंग्रेजों से मुक्ति नहीं थी। वे हिंसा, रक्तपात, असत्य, धोखेबाजी की कीमत पर आजादी नहीं चाहते थे क्योंकि वे जानते थे कि नैतिकता के बिना आजादी कोई अर्थ नहीं है। उन्होंने सिर्फ हमें स्वतंत्रता ही नहीं दिलाई बल्कि एक ऐसा वातावरण भी दिया जिसमें हम नैतिक गुणों का विकास कर मनुष्यत्व को पा सकें।
गांधी ने जहां राष्ट्रीय आंदोलन ने एक नई दिशा दी और आजादी के लिए जनता के दिलों में ललक जगाई, वही अपनी कुशल नेतृत्व और रणनीति से अंग्रेजों को भ्रमित, क्रुद्ध और विभाजित कर उन्हें देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया। रोम्यां रोलां ने गांधी का चरित्र-चित्रण करते हुए कहा कि ‘महात्मा गांधी एक के बाद एक क्रियागत प्रयोग करते जाते हैं जिसके साथ उनका चिंतन निश्चित दिशा में ढलता जाता है और वे सीधी लीक पर आगे बढ़ते रहे हैं लेकिन कभी रुकते नहीं है’। रोम्यां रोलां ने लिखा है कि ‘महात्मा गांधी वे मानव थे जिन्होंने तीस करोड़ जनता को विद्रोह करने के लिए आंदोलित किया, जिन्होंने अंग्रेजी साम्राज्य की नींव हिला दी और जिन्होंने मानव-राजनीति में पिछले दो सौ सालों के सर्वाधिक शक्तिमान धार्मिक संवेग का समावेश किया’।
महात्मा गांधी पैदा तो रियासतों के दीवान के घर हुए लेकिन बचपन धनवान के पुत्रों की तरह नहीं बल्कि सामान्य बालकों की तरह बिताया। 2 अक्टूबर 1869 को जन्मे महात्मा गांधी ने 1888 तक शिक्षा भारत में ली और उसके बाद बैरिस्टर बनने के लिए लंदन चले गए। लंदन से वकालत की पढ़ाई पूरी करने के बाद अपने ज्ञान का व्यवहारिक प्रयोग करने का जगह 1893 में उन्होंने दक्षिण अफ्रीका को चुना। वहीं उन्होने अपने अहिंसक विचारों, अनोखी कार्य पद्धति को विकसित किया और कुशल नेतृत्वकर्ता के साथ-साथ कुशल संगठनकर्ता के रूप में अपनी क्षमताओं का विकास किया। महात्मा गांधी के अहिंसक वैचारिकी की शुरुआती स्थल दक्षिण अफ्रीका ही रहा जहां उन्होंने निष्क्रिय प्रतिरोध से शुरुआत कर सत्याग्रह के डोर को पकड़ना सीखा।
दक्षिण अफ्रीका के मेरित्सबर्ग रेलवे स्टेशन पर गांधी के साथ किया गया दुर्व्यवहार ने उन्हें ऐसी ताकत दि कि वह इसका प्रतिकार करने के लिए अहिंसा विज्ञान का विकास कर इस विज्ञान का महानायक बन गए। इस घटना से गांधी के भीतर एक उदात्त मानव का जन्म हुआ जिसने न सिर्फ उन्हें अपने दुख से लड़ने को प्रेरित किया बल्कि लाखों प्रवासियों को उनके हित और अधिकार सुनिश्चित करने के लिए भी संघर्ष करने की प्रेरणा दी।
गांधीजी मात्र 24 साल के थे जब नटाल में उनकी राजनीतिक पहचान बननी शुरू हो गई थी। नटाल में भारतीयों के मताधिकार की रक्षा करने के दौरान ही उन्होंने तत्कालीन हुकूमत को इस सवाल पर घेरा था कि सभ्य व्यक्ति की परिभाषा आखिर क्या होनी चाहिए। उन्होंने दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के साथ हो रहे सौतेले व्यवहार और भेदभाव के खिलाफ 1894 में दक्षिण अफ्रीका में ‘इंडियन कांग्रेस’ की स्थापना की। दक्षिण अफ्रीका में रंगभेद के आधार पर गिरमिटिया मजदूरों के साथ हो रहे अन्याय को समाप्त करने और नागरिक अधिकारों को दिलाने के लिए ही महात्मा गांधी ने 1903 में ‘इंडियन ओपिनियन’ अखबार निकालना शुरू किया।
दक्षिण अफ्रीका में ही भारतीयों के अधिकारों के लड़ाई के दौरान ही गांधीजी ने स्व शुद्धिकरण और सत्याग्रह जैसे सिद्धांतों की शुरुआत की, जो उनके अहिंसा के आधार थे। इसी दौरान गांधीजी ने ब्रह्मचर्य का व्रत लिया और धोती पहननी शुरू कर दी। 1913 में गांधीजी ने गिरमिटिया हिन्दुस्तानियों पर लगाए गए 3 पाउंड टैक्स के खिलाफ आंदोलन शुरू किया। गांधीजी ने दो हजार से ज्यादा लोगों के साथ नटाल से ट्रांसवाल तक की सविनय अवज्ञा पदयात्रा निकाली। गांधीजी को गिरफ्तार किया गया और नौ महीने की सजा सुनाई गई लेकिन बड़े पैमाने पर विरोध फैलने के डर से उन्हें रिहा करना पड़ा साथ ही अंग्रेज हुकूमत को भारतीयों पर लगाए गए टैक्स को भी वापस लेना पड़ा। दक्षिण अफ्रीका में ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ गांधीजी की इस जीत ने उन्हें अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर पहचान दिलाई।
दक्षिण अफ्रीका में गांधी भले ही नौजवान थे और राजनीतिक रूप से बहुत परिपक्व भी नहीं थे लेकिन उनका जीवन बदलाव का प्रतीक था। दक्षिण अफ्रीका प्रवास के दौरान गांधीजी सिर्फ एक राजनीतिक संगठन के सचिव बनकर नहीं रहे बल्कि उन्होंने ऐसा माहौल तैयार किया जिसमें जेल जाना लोगों के लिए लोकलज्जा नहीं बल्कि बड़ाई का प्रतीक बन गया। दक्षिण अफ्रीका में रहने के दौरान वे कैदी बने, पत्रकार बने, किसान बने, शिक्षक बने, खाद्य सुधारक बने। गोरों के खिलाफ लड़ाई के लिए भरपूर ऊर्जा उन्हें नटाल में नौसिखिए याचिकाकर्ता के रूप में ही मिला। इस दौरान उन्होंने वकालत की नौकरी त्याग दी जिससे वे लाखों रुपये कमा सकते थे।
भारत आने से पहले ही गांधी उन क्रियाकलापों और नेतृत्व के गुण को भली भांति दक्षिण अफ्रीका में अजमा चुके थे। इन आंदोलनों के दौरान कई में उन्हें जीत मिली थी वहीं कई में वे हारे भी। लेकिन आंदोलन के दौरान उपजी परिस्थितियों ने गांधी को हर बार पहले से ज्यादा कर्मठ और मजबूत बनाया। अब गांधी भारत आकर इन्हीं सत्य, अहिंसा और सत्याग्रह के जरिए भारतीय जनमानस का नेतृत्व करने वाले थे और सदियों से गुलामी की त्रासदी झेल रही भारतीय जनता के मुक्तिवाहक बनने वाले थे।
गांधीजी 1915 में दक्षिण अफ्रीका से भारत वापस लौटे। लेकिन गांधीजी के भारत आने से पहले ही दक्षिण अफ्रीका में भारतीयों के लिए किए गए उनके शानदार कामों की खबर यहां के लोगों तक पहुंच चुकी थी और गांधीजी, भारत आने से पहले ही कमोबेश यहां की जनता में लोकप्रिय हो चुके थे।
गांधी जी ने भारत आने के बाद सबसे पहले अपने राजनीतिक गुरु गोपाल कृष्ण गोखले की सलाह पर पूरे देश का दौरा किया। इस दौरान उन्होंने देश और देश की जनता के हालत को करीब से देखा। जनता की कठिनाइयों और ब्रिटिश सरकार के जुल्म को भी देखा।
गांधीजी ने भारत में अपने सत्याग्रह का पहला प्रयोग 1917 में चंपारण में नील आंदोलन के दौरान किया। जिसमें दशकों से अंग्रेज निलहे किसान पर जुल्म ढाते आ रहे थे। गांधीजी के नेतृत्व में किसानों को कठोर तीनकठिया प्रथा से मुक्ति मिली। इस तरह भारत में चंपारण, गांधीजी के सत्याग्रह का पहला प्रयोगशाला बना। दरअसल, गांधीजी के नेतृत्व में हुआ चंपारण सत्याग्रह महज एक राजनीतिक आंदोलन नहीं था। वह समाज के आत्मसम्मान का भी आंदोलन था जिसे संयोग से गांधीजी का कुशल नेतृत्व मिला। यह पहला आंदोलन था जो कांग्रेस की पारंपरिक राजनीति से अलग था और जमीन से उठा था। इसके बाद तो गांधीजी ने खेड़ा के किसान और अहमदाबाद के मिल मजदूरों के आंदोलन का सफल नेतृत्व किया। भारत को जानने-समझने और अपने अहिंसा और सत्याग्रह के प्रयोगों को आजमाने के बाद गांधीजी भारतीय जनता में लोकप्रिय हो गए। छोटे-छोटे आंदोलनों से शुरुआत कर वे राष्ट्रीय आंदोलन की मुख्यधारा के अगुआ बन गए।
गांधीजी ने पहली बार अंग्रेजों के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आह्वान 1919 में किया जब अंग्रेजों ने रौलेट एक्ट लागू किया। गांधीजी के आह्वान पर पूरे देश में इस कानून का विरोध होने लगा। इसी बीच 13 अप्रैल 1919 को रौलेट एक्ट के विरोध में जलियांवाला बाग में प्रदर्शन कर रही निहत्थी जनता पर अंग्रेजों ने गोलियों की बौछार कर दी। पूरा देश उबलने लगा अंग्रेजों की इस नापाक हरकत से।
इस वक्त तक गांधी अपनी बढ़ती लोकप्रियता की वजह से भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के प्रमुख चेहरा बन चुके थे और भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन की अगुवाई करने के लिए तैयार भी हो चुके थे। जलियांवाला बाग हत्याकांड के विरोध में गांधीजी ने असहयोग आंदोलन की शुरुआत की। गांधीजी की अपील पर भारतीय जनता ने ब्रिटिश सामानों का बहिष्कार करना शुरू कर दिया। अंग्रेजी सरकार ने गांधी जी को गिरफ्तार कर लिया और उन्हें दो साल जेल में बिताने पड़े।
गांधीजी ने अपनी दूरदृष्टि और कुशलता से भारत के प्रश्न का अंतर्राष्ट्रीयकरण कर दिया। जबकि ब्रिटिश इसे घरेलू विवाद के रूप में देखना चाहते थे। 1930 में अंग्रेजों के नमक कानून के खिलाफ गांधीजी ने सत्याग्रह कर न सिर्फ इस कानून को तोड़ा बल्कि मुट्ठी भर नमक से अंग्रेजी हुकूमत को जितना सशक्त संदेश दिया... उतना शायद शब्दों से नहीं दिया जा सकता था। गांधीजी के इस कदम की प्रशंसा जहां पूरी दुनिया में होने लगी वहीं नमक सत्याग्रह ने पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ व्यापक जन संघर्ष को जन्म दे दिया। इससे एक चिंगारी भड़की जो आगे चलकर सविनय अवज्ञा आंदोलन में बदल गई।
गांधीजी जहां देश में अपनी नीतियों और रणनीतियों से अंग्रेजों को छकाते और चौकाते रहे उसी तरह वैश्विक मंच पर भी वे उन्हें लगातार परेशान करते रहे। 1930 के दांडी मार्च के बाद 1931 में गांधीजी गोलमेज सम्मेलन में भाग लेने के लिए लंदन गए। भारतीय परिधान में पहुंचकर उन्होंने गोलमेज सम्मेलन के दौरान भारत की एक दमदार और ताकतवर छवि पेश की। उनकी बढ़ती लोकप्रियता से घबराकर कर ही तत्कालीन ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल ने उन्हें अध नंगा फकीर तक कह दिया था। लेकिन इन सब से बेफिक्र गांधीजी ने अपने लंबे अनशनों, निरंतर पत्राचार और विश्व मीडिया के सामने अपनी बात रखने की तत्परता की बदौलत पूरी दुनिया का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया। इस बात ने अंग्रेजों को काफी परेशान कर दिया था और वे गांधीजी को एक अत्याचारी के चित्रित करने लगे थे।
गांधीजी पूरे राष्ट्रीय आंदोलन के दौरान भारतीय जनमानस को नई स्फूर्ति और ऊर्जा के साथ तैयार करते रहें ताकि आजादी के आंदोलन के दौरान उनकी सक्रियता और सहभागिता लगातार बनी रहे। क्रिप्स मिशन की विफलता और दूसरे विश्व युद्ध में भारतीयों को बिना उनकी मर्जी के घसीटने के विरोध में गांधीजी ने अंग्रेजों के खिलाफ 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन छेड़ दिया। अंग्रेजों के खिलाफ यह विद्रोह पूरे देश में फैल गया। अंग्रेजों ने गांधीजी को राजद्रोही के रूप में देखा। गांधीजी को गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया। जेल में रहने के दौरान ही कस्तुरबा बाई का निधन हो गया। गांधीजी के गिरफ्तारी के खिलाफ राष्ट्रव्यापी आंदोलन के दबाव में आकर ब्रिटिश सरकार को उन्हें 1944 में जेल से रिहा करना पड़ा।
उधर, 1945 में आजाद हिंद फौज के गिरफ्तार अधिकारियों पर लाल किला में मुकदमा चलाए जाने से पूरा देश छुब्ध और क्रोध में था और 1946 में रॉयल इंडियन नेवी में भी विद्रोह छिड़ गया। इन सबके बीच बढ़ती आजादी की मांग लगातार तेज होती जा रही थी। आखिरकार, मजबूर होकर ब्रिटिश सरकार ने भारत की आजादी का रूपरेखा तैयार करनी शुरू कर दी। और, माउंटबेटन प्लान के तहत अंग्रेजों ने देश को दो हिस्सों- भारत और पाकिस्तान- में बांटकर आजादी दे दी। गांधीजी के कठिन और लंबे संघर्ष ने जहां देश को मुक्ति दिलाई वहीं भारत के विभाजन ने उन्हें कभी न मिटने वाली टिस भी दे गया। आजादी तो मिली लेकिन एकजुट देश का गांधी का सपना अधूरा ही रह गया।
धार्मिक आधार पर हुए देश के बंटवारे के बाद बड़े पैमाने पर दंगे और खून-खराबा हुआ। विश्व को इतिहास का सबसे बड़ा विस्थापन देखने को मिला जहां एक करोड़ से अधिक लोगों को अपना घर छोडऩे पर मजबूर होना पड़ा।
30 जून 1948 के दिल्ली के बिड़ला हाउस में एक प्रार्थना सभा में जा रहे महात्मा गांधी की गोली मारकर हत्या कर दी गई। गांधीजी की हत्या एक राष्ट्रीय आपदा थी। राष्ट्र इसके लिए तैयार नहीं था। जीवन भर अहिंसा और शांति का पाठ पढ़ाने वाले गांधी इस दुनिया से इस तरह विदा होंगे, कोई सोचा न था। लेकिन गांधीजी के विचार हमेशा-हमेशा के लिए अमर हैं और दुनिया को शांति के पथ पर चलने का राह दिखाते रहेंगे।