मानवता के पुरोधा: दीनदयाल उपाध्याय
मानवता के पुरोधा: दीनदयाल उपाध्याय
भारत में अनेक ऐसे महापुरुष हुए हैं जिन्होंने समाज के मार्गदर्शन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। समाज के आर्थिक, सामाजिक और राजनैतिक विकास में ऐसे महापुरुषों के विचार काफी सहायक रहे हैं। उनसे समाज को एक नई दिशा मिली। ऐसे ही एक महापुरुष थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय। सादगी और ईमानदारी के मिसाल पंडित दीनदयाल उपाध्याय जीवन भर राष्ट्र और जनता की सेवा करते रहे। बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी पंडित दीनदयाल उपाध्याय के व्यक्तित्व में कुशल अर्थचिंतक, संगठनशास्त्री, शिक्षाविद, राजनीतिज्ञ, वक्ता, लेखक और पत्रकार जैसी अनेक प्रतिभाएं छुपी थीं। महान चिंतक और संगठनकर्ता पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद का विचार देकर मानव के कल्याण का एक नया मार्ग समाज के सामने रखा.... जिसकी प्रासंगिकता समय के साथ बढ़ती चली गई।
सरल-सहज और प्रेरणादायी जीवन
राष्ट्र निर्माण और समाज सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य मानने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय का पूरा जीवन सादगी, ईमानदारी और प्रेरणा की मिसाल है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय मात्र एक राजनेता नहीं थे। वे उच्च कोटि के चिंतक, विचारक और लेखक भी थे। उन्होंने शक्तिशाली और संतुलित रूप में विकसित राष्ट्र की कल्पना की थी। पूरी दुनिया को एकात्म मानववाद जैसी प्रगतिशील विचारधारा से परिचित कराने वाले दीनदयाल उपाध्याय भारतीय राजनीतिक और आर्थिक चिंतन के एक वैचारिक दिशा देने वाले पुरोधा थे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय का जन्म 25 सितम्बर,1916 को उत्तर प्रदेश की पवित्र ब्रजभूमि में मथुरा के नगला चंद्रभान नामक गांव में हुआ था। उनके पिता भगवती प्रसाद उपाध्याय रेलवे में कर्मचारी थे। जब ढाई साल के थे तो पिता का देहांत हो गया और 12 साल के हुए तो मां चल बसीं। बचपन मां- बाप के प्यार से महरूम हो गया। अनगिनत कठिनाइयों का दौर शुरू हो गया। नाना और मामा ने पालपोस कर बड़ा किया। छोटी-सी उम्र में ही दीनदयाल उपाध्याय के ऊपर ख़ुद की देख- भाल के साथ-साथ अपने छोटे भाई को संभालने की जिम्मेदारी आ गयी। बचपन से ही पढ़ने में मेधावी दीनदयान जीवन के तमाम झंझावातों को झेलते हुए पढ़ाई का साथ कभी नहीं छोड़ा और इंटरमीडिएट की परीक्षा में विशेष योग्यता के साथ उतीर्ण हुए। सनातन धर्म कॉलेज, कानपुर से 1939 में ग्रेजुएशन की डिग्री फर्स्ट डिवीज़न से हासिल करने के बाद अंग्रेजी साहित्य में एम ए की पढ़ाई के लिए आगरा के सेन्ट जॉन्स कॉलेज में दाखिला लिया। हालांकि ममेरी बहन की अचानक तबीयत बिगड़ने के कारण उन्हें एम ए की पढ़ाई अधूरी छोड़नी पड़ी।
दीनदयाल उपाध्याय ने अपना संपूर्ण जीवन राष्ट्र निर्माण और सार्वजनिक सेवा में लगा दिया। वे जीवन भर अविवाहित रहे। कानपुर में स्नातक करने के दौरान अपने मित्र बलवंत महाशब्दे की प्रेरणा से 1937 में वो राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ में शामिल हो गए। आगरा में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की सेवा के दौरान उनका परिचय नानाजी देशमुख और भाउ जुगडे से हुआ और धीरे-धीरे राष्ट्र सेवा का विचार उनके दिल में जगह बनाने लगा और वे राष्ट्र और समाज सेवा के लिए खुद को समर्पित कर दिए।
जनसंघ की स्थापना और पंडित दीनदयाल की भूमिका
एक बार दिल में राष्ट्र सेवा का अलख जगने के बाद दीनदयाल उपाध्याय का राष्ट्र सेवा और सामाजिक सरोकार से इतना गहरा नाता जुड़ गया कि सरकारी नौकरी में चुने जाने के बावजूद उन्होंने राष्ट्र और समाज सेवा को ही अपनी प्राथमिकता दी। 1942 में प्रयाग से बी. टी. का कोर्स पूरा करने के बाद दीनदयाल उपाध्याय ने संघ शिक्षा वर्ग का द्वितीय वर्ष पूरा किया और संघ के पूर्णकालिक प्रचारक होकर उत्तर प्रदेश के लखीमपुर ज़िले में आ गए। अपनी कर्मठता से तीन वर्ष में ही 1945 में वे उत्तर प्रदेश प्रांत के सह प्रांत प्रचारक बन गए। दीनदयाल उपाध्याय ने आरएसएस के माध्यम से देश सेवा को अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। 1950 में श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया और देश में राष्ट्रवाद की अलख जगाने के लिए आंदोलन शुरू किया। दीनदयाल उपाध्याय ने इस आंदोलन में काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। 21 सितंबर 1951 को उन्होंने उत्तर प्रदेश के लखनऊ में एक राजनीतिक सम्मेलन का सफल आयोजन किया। इसी सम्मेलन में देश में एक नए राजनीतिक दल भारतीय जनसंघ की राज्य इकाई की स्थापना हुई। इसके एक महीने बाद 21 अक्टूबर, 1951 को श्यामा प्रसाद मुख़र्जी ने दिल्ली में भारतीय जनसंघ के प्रथम अखिल भारतीय सम्मेलन की अध्यक्षता की। इसी सम्मेलन में भारतीय जनसंघ की स्थापना हुई। जनसंघ की स्थापना के साथ ही दीनदयाल उपाध्याय का जीवन दो भागों में समर्पित हो गया। एक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और दूसरा जनसंघ। भारतीय जनसंघ को देश की राजनीति में स्थापित करने में दीनदयाल उपाध्याय की भूमिका अग्रणी नेताओं में रही। 1952 में वो जनसंघ के महामंत्री बने और 1967 तक लगातार जनसंघ के नीति-निर्धारक और पथ-प्रदर्शक की भूमिका निभाते रहे। इस दौरान वे पार्टी की नीति, रीति, संगठन, चुनाव, आंदोलन सबका संचालन करते रहे। दिसंबर 1967 में कालीकट में हुए जनसंघ के अखिल भारतीय अधिवेशन में उन्हें भारतीय जनसंघ का राष्ट्रीय अध्यक्ष नियुक्त किया गया।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय राजनीति में हमेशा से शुचिता के समर्थक थे। वे खुद कभी भी चुनावी अखाड़े में नहीं उतरना चाहते थे... लेकिन 1963 में हालात कुछ ऐसे बने कि उन्होंने जीवन में पहली और आखिरी बार चुनाव लड़ा। दरअसल 1963 में जौनपुर संसदीय सीट जनसंघ के सदस्य ब्रह्मजीत सिंह के निधन से खाली हो गया। कार्यकर्ताओं के दबाव और खासकर भाऊराव देवरस के आग्रह पर दीनदयाल उपाध्याय 1963 में जौनपुर लोक सभा से उपचुनाव लड़े। वे राजनीति में अवसरवाद और सिद्धांतहीनता के हमेशा खिलाफ रहे। यही वजह थी कि उन्होंने उपचुनाव में जातिगत समीकरणों के आधार पर प्रचार से इनकार कर दिया। हालांकि कांग्रेस के प्रत्याशी राजदेव सिंह से दीनदयाल उपाध्याय हार गए लेकिन उन्होंने राजनीति के उच्च आदर्शों से कभी समझौता नहीं किया।
एकात्म मानववाद
राजनीतिक चिंतक और विचारक के रूप में पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद जैसे प्रगतिशील विचारधारा से दुनिया का परिचय कराया। उनका दर्शन पूंजीवाद और साम्यवाद दोनों की सशक्त समालोचना है। उनका राजनीतिक दर्शन मानव मात्र की आवश्यकताओं के अनुरूप जीवन दर्शन है।
मानवीयता के उत्कर्ष की स्थापना यदि किसी राजनैतिक सिद्धांत में हो पाई है... तो वह है पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद का सिद्धांत। इसमें उन्होंने भारत को देश से बहुत अधिक आगे बढ़कर एक राष्ट्र के रूप में और इसके निवासियों को नागरिक नहीं बल्कि एक परिवार के सदस्य के रूप में माना है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद को सैद्धांतिक रूप में नहीं बल्कि आस्था के स्वरूप में स्वीकार किया।
दरअसल, उन्नीसवीं शताब्दी में अलग-अलग विचारधाराओं के परस्पर तनाव ने पूरी दुनिया को प्रभावित किया था। जिस समय पूरा विश्व पूंजीवाद और साम्यवाद की अच्छाई और बुराई की बहस में उलझा हुआ था, उसी वक्त पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने इन दोनों विचारधाराओं को नकारते हुए एकात्म मानववाद की अवधारणा दी। दरअसल एकात्म मानववाद भारतीय संस्कृति, विचार और दर्शन के बीच से ही उपजा है। पंडित दीनदयाल ने कभी भी इस बात का दावा नहीं किया कि उन्होंने दुनिया के सामने कोई नया वाद रखा है। वे बार-बार कहते रहे कि एकात्म मानववाद के जरिए वे भारत की सनातन संस्कृति की ही बात कर रहे है। उनका मानना था कि समाज का आधार संघर्ष नहीं सहयोग है।
देश की आजादी के बाद के तत्कालीन परिस्थितियों को ध्यान में रखते हुए मानव कल्याण के लिए ही पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने एकात्म मानववाद की अवधारणा को समाज के सामने रखा। इसके जरिए उन्होंने आम इंसान की गरिमा को स्थापित करने का प्रयास किया। सबसे पहले 1964 में ग्वालियर में आयोजित भारतीय जनसंघ के अधिवेशन में उन्होंने एकात्म मानववाद का विचार पेश किया था। उन्होंने अप्रैल 1965 में पूना में आयोजित जनसंघ के अधिवेशन में एकात्म मानववाद के बारे में विस्तार से बताया भी था।
पूंजीवाद ने जहां मानव को एक आर्थिक इकाई माना और साम्यवाद ने व्यक्ति को एक राजनीतिक और कार्मिक इकाई माना वहीं इन सबसे अलग दीनदयाल उपाध्याय ने अपने एकात्म मानववाद में व्यक्ति से परिवार, परिवार से समाज, समाज से राष्ट्र और फिर मानवता को सबसे प्रमुखता से जगह दी। एकात्म मानववाद इन सब इकाइयों में समाहित परस्पर पूरक संबंधों पर ज्यादा जोर देता है। एकात्म मानववाद के अनुसार व्यक्ति केवल शरीर नहीं है। इसलिए शरीर पर ठीक से विचार किया जाना चाहिए। इसके अनुसार मनुष्य का शरीर, मन, बुद्धी और आत्मा का मिलन है। इसलिए मानव को समग्र रूप में देखना चाहिए और यही समग्रता उसे समाज के लिए उपयुक्त और उपयोगी बनाती है। पंडित दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि शरीर हमारे धर्म जीवन और सभी कार्यों और लक्ष्यों का साधन है और भारतीय चिंतन में धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की अवधारणा का विचार ही एकात्म मानववाद में समाहित है। उनके इस सिद्धांत के मुताबिक संपूर्ण रूप से मानव का निर्माण करने वाले इन चार तत्वों में एकात्मकता जरूरी है क्योंकि यही एकात्मकता मानव को कर्मठता की ओर प्रेरित कर उद्यमी बना सकती है जिससे पूरे समाज का कल्याण होगा।
दीनदयाल उपाध्याय का मानना था कि आर्थिक प्रजातंत्र के बिना राजनीतिक प्रजातंत्र सफल नहीं हो सकता। जो देश आर्थिक दृष्टि से स्वतंत्र होगा वही राजनीतिक दृष्टि से अपना मत खुलकर सामने रख सकेगा। वे मानते थे कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था पहले आर्थिक क्षेत्र पर कब्जा जमाती है। फिर बाद में राज्य पर अधिकार कर लेती है।
भारतीय दर्शन को उन्होंने सबसे सर्वश्रेष्ठ माना और इस बात पर हमेशा जोर देते रहे कि भारत को चलाने के लिए भारतीय दर्शन ही सबसे सही है। चाहे राजनीति का सवाल हो या अर्थव्यवस्था का या फिर समाज का। भारतीय अर्थनीति के स्वरूप और विकास को भी उन्होंने इसी दृष्टि से देखा। अपने लेख - भारतीय अर्थनीति विकास की दशा – में उन्होंने लिखा है कि शासन का उद्देश्य अंत्योदय की परिकल्पना के अनुरूप होना चाहिए। उनका मानना था कि शासन को व्यापार नहीं करना चाहिए और व्यापारी के हाथ में शासन नहीं आना चाहिए। आजादी के बाद से ही उन्होंने इस बात पर जोर दिया कि भारत के विकास के लिए ग्रामीण-विकास और लघु-उद्योगों को बढ़ावा देने की जरूरत है। आज ‘सबका साथ, सबका विकास’ जैसा नारा भी उन्हीं की अंत्योदय यानि समाज के अंतिम व्यक्ति के उत्थान की अवधारणा पर आधारित है।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय हमेशा विकेंद्रीकृत व्यवस्था के पक्षधर रहे। वे तमाम सामाजिक क्षेत्रों के राष्ट्रीयकरण के खिलाफ थे। वे कहते थे कि मेहनतकश लोगों को अपनी बुनियादी जरूरतों के लिए राज्य पर आश्रित रहने की जरूरत नहीं है। शिक्षा के सरकारीकरण के भी वो हमेशा से विरोधी रहे। उनके मुताबिक शिक्षा देने का काम सरकार के हाथों में नहीं दिया जा सकता। यह काम समाज पर छोड़ा जाना चाहिए। सरकार उन्हीं क्षेत्रों में उतरे और काम करे जिन क्षेत्रों में समाज या निजी क्षेत्र जोखिम नहीं लेते। आर्थिक और राजनीतिक ताकत का एक जगह जमा होने का वे हमेशा विरोध करते रहे और इसे लोकतंत्र के खिलाफ बताते रहे।
दरअसल पंडित दीनदयाल उपाध्याय का एकात्म मानववाद महज एक वैचारिक अनुष्ठान नहीं था बल्कि इसमें राज-नीति, समाज-नीति, लोक-नीति, अर्थव्यवस्था, उद्योग, शिक्षा, पर व्यापक और व्यावहारिक नीति-निर्देश भी शामिल थे। इसके जरिए उन्होंने जीवन में अनेकता और विविधता को स्वीकार करते हुए इसके मूल में निहित एकता को खोजा। उनका एकात्म मानववाद का दर्शन समग्र विकास की एक नई अवधारणा को साकार करता है।
अंत्योदय
आजादी के बाद समाज के सबसे कमजोर और निचले पायदान पर खड़े व्यक्ति को सहारा देने और समाज का चहुंमुखी विकास की जिस कल्पना को गांधी जी ने सर्वोदय कहा था बाद में उसके सबसे प्रबल प्रवक्ता दीनदयाल उपाध्याय ही बने। महात्मा गांधी के इस विचार को दीनदयाल ने अंत्योदय कहकर पुकारा। पंडित दीनदयाल ने समाज के अंतिम पंक्ति में खड़े लोगों के आर्थिक विकास की केवल चिंता ही नहीं की बल्कि भारतीय दृष्टिकोण के साथ किस तरह से वह अंतिम व्यक्ति समाज के साथ एकरस हो, उसके लिए रास्ता भी बताया।
दरअसल अंत्योदय शब्द का प्रयोग सबसे पहले प्रयोग गांधी जी ने किया था। उन्होंने मशहूर विचारक ‘जॉन रस्किन’, की पुस्तक ‘अनटू दी लास्ट’ शीर्षक का अनुवाद अंत्योदय शब्द के जरिए किया था। लेकिन गांधी जी के इस अंत्योदय से सबसे प्रखर और प्रबल वाहक बने दीनदयाल उपाध्याय।
दीनदयाल उपाध्याय के अंत्योदय का मतलब था कि आर्थिक संपन्नता के लिए किए जाने वाले प्रयास समाज के आर्थिक दृष्टि से सबसे निचले और पिछड़े लोगों से शुरू किया जाना चाहिए। एक अर्थशास्त्री के रूप में उनका मानना था कि देश के हर व्यक्ति को उसकी योग्यता, रुचि और दक्षता के अनुसार काम मिले। ऐसा काम जिससे कम से कम उसकी प्राथमिक जरूरतों की पूर्ति सहज रूप से हो सके। उनका मानना था कि संपत्ति का अधिकार समाज निरपेक्ष नहीं हो सकता।
पत्रकार के रूप में दीनदयाल उपाध्याय
बहुआयामी व्यक्तित्व के धनी पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक प्रखर पत्रकार और बहुत ही गंभीर लेखक भी थे। जितने सक्रिय वे राजनीति में थे उतने ही सक्रिय रूप से वे पत्रकारिता और लेखन से भी जुड़े रहे। उन्होंने राजनीति के साथ-साथ सामाजिक, आर्थिक विषयों पर भी खूब लिखा। उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे।
पंडित दीनदयाल उपाध्याय की दृष्टि एक पत्रकार की थी तो लेखनी एक साहित्यकार की तरह। जितनी पैनी नजर से वह मुद्दों को उठाते थे उतना ही संवेदनशील और सहजता से अपने लेखों में उसे व्यक्त भी करते थे।
वो सामाजिक विषयों में हस्तक्षेप करने के लिए कई तरीकों से अपने विचारों को रखते थे। सामाजिक विचारक के तौर पर, अर्थशास्त्री के तौर पर, शिक्षाविद की भूमिका में, बतौर राजनेता या वक्ता के रूप में तो कभी संजिदा लेखक और पत्रकार के तौर पर। उन्होंने हर भूमिका में समाज को एक नई दिशा देने की कोशिश की। पत्रकारिता के क्षेत्र में उनकी भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही। उन्होंने उस दौर में पत्रकारिता को एक मिशन के रूप में अपनाया जब स्वतंत्रता आंदोलन में पत्रकारिता की राह चुनना बेहद मुश्किल फैसला माना जाता था, लेकिन दीनदयाल उपाध्याय के मन में कोई दुविधा नहीं थी। वो जानते थे कि देश को आजाद कराने और एक नए भारत के निर्माण के लिए अपने विचारों को लेखन के जरिए जनता के बीच ले जाना ही होगा।
बतौर पत्रकार वो सबकी नजर में तब आए जब लखनऊ से 1947 में राष्ट्रधर्म का प्रकाशन शुरू हुआ। भारत बंटवारे के बाद उन्हें इस मासिक पत्रिका के प्रकाशन की जिम्मेदारी सौंपी गई। राष्ट्रधर्म में पंडित दीनदयाल उपाध्याय का नाम बतौर संपादक तो नहीं छपता था लेकिन हर कोई राष्ट्रवाद पर उनकी धारधार लेखनी और विचारों की छाप आसानी से देख सकता था। उन्होंने उस दौर में उसी सामग्री को छापने का फैसला लिया जिसमें सकारात्मक पहलू हो। दरअसल वो अपनी विचारधारा की आलोचना से कभी परहेज नहीं करते थे। वो मानते थे कि अगर भाषा संयमित और आलोचना स्वस्थ हो तो विरोधी पक्ष को भी सुना जाना चाहिए। पंडित जी के पास पत्रकारिता की कोई औपचारिक पढ़ाई या अनुभव नहीं था लिहाजा उन्होंने राष्ट्रधर्म से ही पत्रकारिता और संपादन के गुर न सिर्फ सीखे बल्कि उस दौर के कई महत्वपूर्ण लोगों को प्रेरणा भी दी। बाद में साप्ताहिक पान्चजन्य और दैनिक स्वदेश भी छपने लगे जिनमें पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी को संपादक की जिम्मेदारी दी गई। वाजपेयी जी ने दीन दयाल उपाध्याय से शुरुआती दौर में काफी कुछ सीखा था। दीनदयाल उपाध्याय जब राजनीति के क्षेत्र में चले गए तब भी उन्होंने अपने लेखों के जरिए जनता से संवाद बनाए रखा।
पान्चजन्य में उनके लगातार लेख छपते थे। वहीं साप्ताहिक ऑर्गनाइजर में भी उनका नियमित कॉलम छपता। इस कॉलम का नाम था पॉलिटिकल डायरी। उनके लेखों को पढ़कर ये साफ तौर पर समझा जा सकता है कि नेहरू काल की तमाम नीतियों के प्रखर आलोचक होने के बावजूद उनकी भाषा में उच्च कोटि का संयम और संतुलन रहता था। खबर को विकृति के स्तर पर नहीं ले जाने की वो पुरजोर वकालत करते और यही उनका मंत्र भी था। वो किसी व्यक्ति या विचारधारा के प्रति पूर्वाग्रह बनाकर चलने के खिलाफ थे। आज के दौर के पत्रकार और पत्रकारिता को दीनदयाल उपाध्याय से बहुत कुछ सीखने की जरूरत है। पत्रकारिता के क्षेत्र में दीनदयाल उपाध्याय ने भाषा के जिस संयम पर जोर दिया... उसकी सबसे ज्यादा जरूरत आज के दौर में महसूस होती है।
सामाजिक सरोकारों से भटकी हुई पत्रकारिता को वे बहुत खतरनाक मानते थे। उनकी सोच थी कि पत्रकार समाज का मार्गदर्शन करें और समाज के सामने नया विचार पेश करें। पान्चजन्य में उनके स्तंभ विचार-वीथी में हमेशा उनका प्रयास एक नया और संतुलित विचार देने का रहा। अपने लेखों में वो सरकार के प्रति नरम दृष्टिकोण कतई नही रखते थे लेकिन उनकी भाषा सौम्य रहती और बातों में सच्चाई और दृढ़ता। उनका मत था कि पत्रकार को केवल और केवल सत्य ही लिखना चाहिए। वो ये भी मानते थे कि कटु सत्य को सौम्य तरीके से ही लिखा जाए और समाचार चयन में कभी पक्षपात न हो। वो सत्ता पक्ष की कमियों को उजागर करने से कभी चूके नहीं लेकिन व्यक्तिगत कटुता या किसी का अनादर करने की कोशिश कभी नहीं की। साथ ही भाषा की मर्यादा को कभी लांघा नहीं। पत्रकारिता को राजनीति की चाटुकारिता करने का वो पूरजोर विरोध करते रहे। उनकी पत्रकारिता का मूल था कि पत्रकारिता किसी एक आयाम की पक्षधर नहीं हो बल्कि उसमें साहित्य, संस्कृति और धर्म से लेकर समाज के हर आयाम समाहित होने चाहिए।
आज भी प्रासंगिक है दीनदयाल उपाध्याय के विचार
देश सेवा और समाज सेवा के लिए खुद को समर्पित कर देने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय के विचार आज भी बेहद प्रासंगिक हैं। समाज के चौमुखी विकास और सबसे कमजोर वर्ग के उत्थान के साथ ही राष्ट्रप्रेम की जो विचारधारा उन्होंने रखा वो आज भी बेहद मौंजू हैं। उन्होंने उस दौर में राजनीतिक, आर्थिक और सामाजिक अवधारणा की परिकल्पना समाज के सामने रखी वो आज भी समाज की जरूरत बनी हुई है। उन्होंने राजनीति को सिर्फ सत्ता का अखाड़ा बनाने का हमेशा विरोध किया। वो राजनीति में आदर्श और विचारधारा के समर्थक थे।
अपने साहित्य के जरिए उन्होंने भारत के गौरवशाली इतिहास को भी दुनिया के सामने रखा। दरअसल उनकी सोच थी कि साहित्य के जरिए राष्ट्रीय सरोकारों को महत्व दिया जाए। 1946 में उन्होंने सम्राट चन्द्रगुप्त के जीवन पर आधारित किताब ‘सम्राट चन्द्रगुप्त’ लिखी। एक ही रात में लिखी गई ये किताब इतनी लोकप्रिय हुई कि इसका कई भाषाओं में अनुवाद हुआ। इसी तरह आदिगुरू शंकराचार्य की जीवनी भी उन्होंने रेल यात्रा के दौरान बेहद कम समय में लिख डाली। सामाजिक जीवन में रहते हुए भी समय निकालकर समाज के हित में साहित्य सृजन की उनकी कला आज भी साहित्य कर्मियों के लिए एक मिसाल है।
देश की नीतियों और अर्थजगत पर भी उनकी गहरी नजर थी। वो चाहते थे कि सत्ता पक्ष की हर नीति की मंजिल देश की अंतिम पंक्ति में खड़ा नागरिक हो। अंत्योदय की ये सोच आज भी देश के नीति नियंताओं के लिए प्रेरणादायक और प्रासंगिक है। ‘द टू प्लांस’ पुस्तक के जरिए विदेशों से आयातित अर्थनीति का जमकर विरोध किया तो ‘भारतीय अर्थ नीति: दशा और दिशा’ की रचना कर भारत के अनुकूल अर्थनीति का स्वरूप पेश किया।
दुनिया को एकात्म मानववाद के वैज्ञानिक सोच से परिचित कराने वाले पंडित दीनदयाल उपाध्याय ने राजनीति हो, साहित्य हो, अर्थव्यवस्था हो या मानव कल्याण की बात... हर विषय पर मौलिक विचार प्रस्तुत किया और उनके आधार पर भविष्य का जो खाका पेश किया वो आज भी अहमियत रखते हैं। उन्होंने राजनीतिक और सार्वजनिक जीवन में व्यक्तिगत शुचिता और गरिमा के जो उंचे आयाम स्थापित किये वो आज भी अनुकरणीय है।