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1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध और भारत की स्वर्णिम विजय

Pakistan Surrender after 1971 War

एक ऐसी लड़ाई जो दुनिया के इतिहास में दर्ज सबसे छोटी लड़ाईयों में से एक है, लेकिन सबसे निर्णायक लड़ाई भी है। जो मात्र 14 दिन चली लेकिन इस युद्ध के परिणाम ने दुनिया के भूगोल को बदल कर रख दिया और विश्व के मानचित्र पर एक नया देश उभरकर सामने आया...बांग्लादेश। 1971 में हुए इस युद्ध में भारत ने पाकिस्तान को बुरी तरह पराजित किया। 3 दिसंबर 1971 को शुरू हुआ यह युद्ध 16 दिसंबर को तब खत्म हुआ, जब भारतीय सेना ने 93 हजार से ज्यादा पाकिस्तानी सैनिकों को बंदी बनाते हुए निर्णायक जीत हासिल की। इस जीत की याद में भारत हर साल 16 दिसंबर को विजय दिवस मनाता है। इस वर्ष यह विजय और खास है क्योंकि इस साल 1971 में हुए इस युद्ध को जीते पचास साल पूरे हो गए हैं, और पूरा देश इस स्वर्णिम जीत को विजय पर्व के रूप में मना रहा है। यैसे में 1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बारे में जानना जरूरी हो जाता है। साथ ही यह भी कि वो कौन सी परिस्थितियां थी, जिसकी वजह से भारत बांग्लादेश मुक्ति संग्राम में न सिर्फ शामिल हुआ बल्कि पाकिस्तान को हराने के साथ ही बांग्लादेश को भी पाकिस्तान के जुल्म से आजाद कराया।

वो तारीख थी 3 दिसंबर 1971... शाम के पांच बजकर 40 मिनट हुए थे... तभी पाकिस्तानी वायुसेना के सैबर जेट्स और स्टार फाइटर विमानों ने भारतीय वायु सीमा पार कर पठानकोट, श्रीनगर, अमृतसर, जोधपुर और आगरा के सैनिक हवाई अड्डों पर बम गिराने शुरू कर दिए। पाकिस्तान के इस नापाक हमले ने मार्च 1971 से शुरू तत्कालीन पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश की आजादी की लड़ाई में भारत को भी घसीट लिया। इसके बाद, बांग्लादेश मुक्ति संग्राम के साथ ही भारत-पाकिस्तान के बीच सीधे तौर पर युद्ध छिड़ गया, जिसकी परिणति 13 दिन बाद पाकिस्तान की करारी हार के साथ हुई। 

पश्चिमी पाकिस्तान की दोहरी नीति और बंगाली राष्ट्रीय अस्मिता

दरअसल 1947 में धर्म के नाम पर भारत के बंटवारे के बाद दो देश बने...भारत और पाकिस्तान...लेकिन धर्म पाकिस्तान को लंबे अरसे तक बांध कर नहीं रख सका। पाकिस्तान के जन्म के साथ से ही पश्चिमी पाकिस्तान ने पूर्वी पाकिस्तान यानी बांग्लादेश के साथ भेदभाव शुरू करना शुरू कर दिया। 1948 में उर्दू को पाकिस्तान की राष्ट्रभाषा का दर्जा दिया गया। बांग्लाभाषी लोगों में इसे लेकर गुस्सा भड़क उठा। ढाका में छात्रों के एक बड़े समूह ने बांग्ला को बराबरी का दर्जा दिये जाने की मांग करते हुए विरोध प्रदर्शन किया। पुलिस ने निहत्थे छात्रों पर गोलियां चलाईं। कई निहत्थे लोग इस गोलीबारी में मारे गए। इसके बाद बांग्ला आंदोलन हिंसक हो गया। इस आंदोलन ने भाषाई पहचान को लेकर अलग देश की मांग के बीज बो दिए। इस आंदोलन ने बंगाली राष्ट्रीय अस्मिता को जन्म दिया और फिर शुरू हुई अलग राष्ट्र बनाने की मांग।

घटना जिसने बांग्लादेश की नींव ड़ाली

जिस घटना ने बांग्लादेश के लोगों को अलग राष्ट्र बनाने पर मजबूर कर दिया, वह था 1970 में हुए पाकिस्तान का आम चुनाव। इस चुनाव के नतीजों ने पाकिस्तान का विघटन तय कर दिया। इस चुनाव में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी अवामी लीग को पूर्वी पाकिस्तान की 169 में 167 सीटों पर जीत मिली। वहीं, पश्चिम में ज़ुल्फिक़ार अली भुट्टो की पीपीपी को ज़्यादा सीट हासिल हुईं। हालांकि शेख मुजीबुर्रहमान को जितनी सीट मिली थी वह पाकिस्तान का प्रधानमंत्री बनने के लिए पर्याप्त था, लेकिन भुट्टो ने चुनाव परिणाम को ही मानने से ही इंकार कर दिया। इसके ख़िलाफ 7 मार्च 1971 को ढाका में एक विशाल रैली का आयोजन किया गया। इसके बाद शुरू हुआ बांग्ला मुक्ति संग्राम। जिसके बाद बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी का गठन हुआ और 26 मार्च 1971 को बंगबंधु शेख मुजीबुर रहमान ने पाकिस्तान से बांग्लादेश की स्वतंत्रता की घोषणा की कर दी। यही वजह है कि आजादी मिलने के बाद से हर साल बांग्लादेश 26 मार्च को अपनी स्वतंत्रता दिवस के रूप में मनाता है। इसके बाद शेख मुजीबुर्रहमान को गिरफ्तार कर पश्चिमी पाकिस्तान के जेल में नज़रबंद कर दिया गया।

‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ और पाकिस्तानी सेना का कत्ले-ए-आम

पाकिस्तान ने भारत पर पूर्वी पाकिस्तान के नेताओं को बरग़लाने का आरोप लगाया। बांग्ला मुक्ति संग्राम को कुचलने के लिए पाकिस्तानी फौज ने 25 मार्च 1971 को ‘ऑपरेशन सर्चलाइट’ शुरू किया। इसके तहत पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान के आम लोगों पर जुल्म ढाने शुरू किए। पाकिस्तानी फौजों की जुल्म से तंग आकर लाखों की तादाद में पूर्वी पाकिस्तान के लोग भारत की सीमाओं में घुसने लगे। दरअसल, पश्चिमी पाकिस्तान के नेता पूर्वी पाकिस्तान यानी आज के बांग्लादेश के लोगों को हेय  दृष्टि से देखते थे और सत्ता में उन्हें किसी भी तरह से भागीदार बनाने को तैयार नहीं थे। साथ ही उन्हें इस बात का डर भी सता रहा था कि अगर अवामी लीग के नेता और बांग्लाभाषी शेख मुजीबुर्रहमान पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बन गए तो वे फरवरी 1966 की अपनी छह सूत्री कार्यक्रम को लागू कर सकते हैं, जिसके तहत संघीय राजनीति के एक भाग के रूप में पूर्वी पाकिस्तान को राजनीतिक और वित्तीय स्वायत्ता देने की बात कही गई थी।

बांग्लादेश को भारत की मदद

पाकिस्तानी सेना के कत्ल-ए-आम और लगातार बढ़ते अत्याचार की वजह से बड़ी संख्या में बांग्लादेशी भारत में शरण लेने पर मजबूर हो गए। देखते-देखते भारत में बांग्लादेशी शरणार्थियों की संख्या एक करोड़ के पार पहुंच गई। तत्कालीन भारत सरकार ने न केवल इन शरणार्थियों की मदद की बल्कि उनके लिए बिहार, बंगाल, असम, त्रिपुरा में राहत अनेक शिविर भी लगवाए। पाकिस्तानी सेना के आतंक से बचने के लिए बड़ी संख्या में बांग्लादेशियों के भारत आने से शरणार्थी संकट बढ़ने लगा। इससे भारत पर पाकिस्तान के खिलाफ कार्रवाई करने का दबाव बढ़ गया। हालात की गंभीरता को देखते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने मार्च 1971 में भारतीय संसद में भाषण देते हुए पूर्वी बंगाल के लोगों की मदद की बात कही और जुलाई, 1971 में भारतीय संसद में सार्वजनिक रूप से पूर्वी बंगाल के लड़ाकों की मदद करने की घोषणा की गई। इसके बाद भारतीय सेना ने मुक्तिवाहिनी के सैनिकों को मदद और प्रशिक्षण देना शुरू कर दिया।

सोवियत रूस को छोड़कर किसी ने नहीं की भारत की मदद

भारत ने पूर्वी पाकिस्तान पर पश्चिमी पाकिस्तान के दमनकारी कार्रवाई और मानवाधिकारों के उल्लंघन का मामला संयुक्त राष्ट्र संघ में जोर-शोर से उठाया और हस्तक्षेप की मांग की। हालांकि, कई देश इसके खिलाफ थे लेकिन भारत ने फिर भी बांग्लादेश की मदद की। भारत ने बांग्लादेश को न सिर्फ व्यक्तिगत स्तर पर मदद की बल्कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी समर्थन जुटाने की कोशिश की। तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने अमेरिका समेत कई देशों का दौरा कर पाकिस्तानी सेना द्वारा बांग्लादेश में किए जा रहे जुल्म और नरसंहार के बारे में बताया। अमेरिका ने तब भारत की मांगों को मानने और पाकिस्तान को रोकने के लिए कोई ठोस उपाय नहीं किया। उस वक्त तत्कालीन सोवियत रूस को छोड़कर किसी ने भारत की मदद नहीं की।

‘ऑपरेशन चंगेज खान’ और युद्ध की शुरुआत

बांग्ला मुक्ति संग्राम को भारत द्वारा दिए गए समर्थन से नाराज होकर पाकिस्तान ने ‘ऑपरेशन चंगेज खानके नाम से 3 दिसंबर 1971 को भारत के 11 एयरबेस पर हवाई हमला कर दिया। इस हमले के बाद भारत और पाकिस्तान के बीच आधिकारिक तौर पर युद्ध शुरू हो गया। पाकिस्तान के भारत पर हमले के बाद भारतीय सेना के जांबाजों ने जिस शौर्य और बहादुरी का परिचय दिया, वह इतिहास के स्वर्णिम पन्नों में दर्ज हो गया। भारतीय सेना के तीनों अंगों ने मिलकर पाकिस्तान को हर मोर्चे पर करारी शिकस्त दी।

हंटर विमानों ने पाक के टैंकों को बर्बाद कर दिया

पाकिस्तान के हवाई हमले का भारतीय वायुसेना ने माकूल जवाब देते हुए अगले दो हफ्ते तक पाकिस्तानी बेसों पर जमकर हमला किया। पूर्वी सीमा से लेकर पश्चिमी सीमा तक भारतीय पायलटों ने जिस वीरता का प्रदर्शन किया वह बेहद प्रेरक है। वायुसेना के हंटर विमानों ने राजस्थान के लोंगेवाला में पाकिस्तान की एक पूरी हथियारबंद रेजिमेंट को खत्म कर दिया। यही नहीं, वायुसेना ने पश्चिमी पाकिस्तान में दुश्मन के रेल संचार को भी पूरी तरह तबाह कर दिया। इसके बाद दुश्मन उस तरह से हमला करने की दोबारा हिम्मत नहीं कर सका।

14 दिसंबर को भारतीय वायुसेना के मिग 21 विमानों ने ढाका के गवर्नमेंट हाउस पर ऐसी बमबारी की, कि पूर्वी पाकिस्तान के तत्कालीन गवर्नर डॉक्टर ए एम मलिक को काँपते हाथों से अपना इस्तीफा लिखकर एयर रेड शेल्टर में शरण लेने पर मजबूर होना पड़ा। 14 दिसंबर को ही श्रीनगर एयरबेस की रक्षा करते हुए फ्लाइंग ऑफिसर निर्मलजीत सिंह सेखों ने अपने नैट विमान से अकेले ही दुश्मन के छह-छह लड़ाकू विमानों को मार भगाया। सेखों को उनकी बहादुरी के लिए मरणोपरांत परमवीर चक्र से सम्मानित किया गया। 1971 के युद्ध में भारतीय वायु सेना को भारत का सर्वोच्च शौर्य पुरस्कार प्राप्त करने का गौरव हासिल हुआ।

सात दिनों तक जलता रहा कराची

भारतीय नौसेना ने भी इस युद्ध में कमाल का शौर्य और पराक्रम दिखाया। 4 और 5 दिसंबर की दरम्यानी रात को भारतीय नौसेना ने ‘ऑपरेशन ट्राइडेंट’ के तहत कराची बंदरगाह के निकट पाकिस्तानी नौसेना के अड्डे पर हमला बोल दिया। भारतीय नौसेना ने अपना यह हमला तीन मिसाइल वोट ‘निपात’, ‘निर्घट’ और ‘वीर’ के जरिए किया। इस दौरान भारतीय नौसेना ने पहली बार एंटी शिप मिसाइल बोट्स का इस्तेमाल करते हुए पाकिस्तान के 4 पोत को डूबा कर नष्ट कर दिया, जिसमें पाकिस्तानी जहाज पीएनएस खैबर और एमवी वीनस चैलेंजर शामिल था। इस हमले में पांच सौ से ज्यादा पाकिस्तानी नौ सैनिक मारे गए।

8 दिसंबर को भारतीय नौसेना ने ‘ऑपरेशन पाइथन’ कोड नाम से एक और हमला किया। इस हमले में भारतीय मिसाइल ने कराची स्थित कीमारी तेल डिपो को पूरी तरह बर्बाद कर दिया। कराची के तेल डिपो में लगी आग को सात दिनों तक बुझाया नहीं जा सका। कराची के ऊपर इतना धुआं था कि तीन दिनों तक वहां सूरज की रोशनी नहीं पहुंच सकी। इस हमले ने पाकिस्तानी नौसेना की कमर तोड़ दी। इस दौरान एक भी भारतीय जहाज को नुकसान नहीं पहुंचा। युद्ध के दौरान भारतीय नौसेना ने अरब सागर पर पूरा नियंत्रण हासिल कर लिया था। कराची की जल सीमा से भारत सरकार की अनुमति के बिना न तो किसी जलपोत को अंदर आने दिया गया और न ही बाहर निकलने दिया गया। अपने इस पराक्रम के बाद से ही भारतीय नौसेना हर साल 4 दिसंबर को नौसेना दिवस के रूप में मनाती है।

जिन्होंने जान पर खेल कर दिलाई जीत

भारतीय थल सेना के रणबांकुरों ने अप्रतिम शौर्य का परिचय देते हुए पूर्वी सीमा पर पूरे पराक्रम के साथ पाकिस्तान के खिलाफ अभियान शुरू किया। भारतीय सेना के नायक जनरल सैम मानेकशॉ, लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा, मेजर जनरल जेएफआर जैकब और मेजर जनरल सुजान सिंह उबन, मेजर होशियार सिंह, सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाललांस नायक अलबर्ट एक्का जैसे शूरवीर योद्धाओं ने भारत को ऐसी शानदार जीत दिलाई कि उनके नाम भी इतिहास में हमेशा के लिए स्वर्ण अक्षरों में अंकित हो गए।

कौन भूल सकता है... गंगा सागर की लड़ाई जितवाने वाले परमवीर चक्र विजेता लांस नायक अल्बर्ट एक्का की बहादुरी को...। अपने साहस और वीरता से बासंतार की जंग में दुश्मनों के हौसले को पस्त करने वाले परमवीर चक्र विजेता सेकेंड लेफ्टिनेंट अरुण खेत्रपाल को...। जरवाल का मोर्चा फतह करने वाले परमवीर चक्र विजेता मेजर होशियार सिंह के शौर्य को...। सिलहट में लड़ाई के दौरान अपने घालय पैर को खुद काटने वाले मेजर इयान कारडोजो के हिम्मत को...। लोंगेवाल के लड़ाई के नायक ब्रिगेडियर कुलदीप सिंह चांदपुरी को...जिन्होंने अपनी कमांड के सिर्फ 120 सैनिकों के साथ पाकिस्तान की पूरी टैंक रेजिमेंट- जिसमें 45 टैंक शामिल थे और भारी गोलाबारी कर रहे थे- को रात भर रोके रखा और भारतीय वायु सेना के लड़ाकू विमानों के पहुंचने तक उन्हें आगे नहीं बढ़ने दिया। लोंगेवाला की लड़ाई दुनिया के सबसे खतरनाक टैंक युद्धों में गिनी जाती है। ऐसे अनेक वीरों ने अपनी जान पर खेलकर भारत को विजय दिलाई।

पाकिस्तान ने 30 मिनट में कर दिया सरेंडर

हर मोर्चे पर हारने और भारतीय सेनाओं द्वारा चारों तरफ से घिर जाने के बाद, पाकिस्तानी फौज ने भारतीय सेना के आगे घुटने टेक दिए और 16 दिसंबर 1971 को आधिकारिक रूप से भारत के पूर्वी कमान के कमांडर-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने, पाकिस्तान के पूर्वी कमान के कमांडर-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल ए ए के नियाजी ने अपने 93 हजार सैनिकों के साथ आत्मसमर्पण कर दिया। यह दूसरे विश्व युद्ध के बाद किसी भी सेना द्वारा किया गया सबसे बड़ा आत्मसमर्पण था।

हालांकि पाकिस्तानी फौज की इस आत्मसमर्पण की कहानी भी बड़ी दिलचस्प है, जो भारतीय सेना की कुशल रणनीति और शौर्य से जुड़ी हुई है। मेजर जनरल जेएफआर जैकब उस समय पूर्वी कमान के स्टाफ ऑफिसर थे। उन्होंने न केवल 1971 की लड़ाई में अपना पराक्रम दिखाया, बल्कि पाकिस्तानी फौज के आत्मसमर्पण में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका भी निभाई। दरअसल, 16 दिसंबर की सुबह भारतीय सेनाध्यक्ष जनरल मानेकशॉ ने जनरल जैकब को ढाका जाकर पाकिस्तान से आत्मसमर्पण कराने की तैयारी करने का आदेश दिया। जनरल जैकब जब आत्मसमर्पण का दस्तावेज लेकर पाकिस्तानी जनरल नियाजी के पास पहुंचे तो नियाजी ने आत्मसमर्पण करने में आनाकानी की। इसके बाद जनरल जैकब ने उन्हें तीस मिनट का समय देते हुए कहा कि ‘अगर आप आत्मसमर्पण करेंगे और हथियार डाल देंगे तभी हम आपका और आपके परिवार वालों की सुरक्षा करेंगे।‘ इसके बाद ही डर कर जनरल नियाजी ने पूर्वी कमान के कमांडर-इन-चीफ लेफ्टिनेंट जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने आत्मसमर्पण दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए और अपना बेल्ट और पिस्टल जनरल जगजीत सिंह अरोड़ा के सामने रख दिया।

हालांकि, उस वक्त ढाका में पाकिस्तानी सैनिकों की संख्या कोई साढ़े छब्बीस हजार हजार के आस-पास थी, जबकि भारतीय सैनिक मात्र तीन हजार थे, वो भी ढाका से करीब तीस किलोमीटर की दूरी पर। लेकिन भारतीय फौज और जनरलों की कुशल रणनीति, अप्रतिम शौर्य और हिम्मत के आगे पाकिस्तान चारो खाने चीत हो चुका था और उसके सामने आत्मसमर्पण करने के अलावा और कोई विकल्प नहीं था।

पाकिस्तान की आधी नौसेना खत्म हो गई

1971 के भारत-पाकिस्तान युद्ध में भारत की जीत विश्व इतिहास की सबसे महत्वपूर्ण जीत में से एक है। पाकिस्तान ने इस युद्ध में अपनी एक तिहाई थलसेना, आधी नौसेना और एक चौथाई वायुसेना को गंवा दिया। भारत ने 1971 के युद्ध में निर्णायक जीत हासिल की। इसके साथ ही इस युद्ध के बाद बांग्लादेश नामक एक नए मुल्क का उदय हो गया।

धर्म के आधार पर बने राष्ट्र का सिद्धांत खारिज

1971 का भारत-पाकिस्तान युद्ध मानवीय इतिहास में एक अनोखी घटना के रूप में दर्ज रहेगा। इसने न केवल दक्षिण एशिया में भारत को एक महाशक्ति के रूप में स्थापित कर दिया बल्कि भारत के विभाजन के लिए धार्मिक आधार पर बने दो राष्ट्रों के सिद्धांत को भी सिरे से खारिज कर दिया।

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