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अविश्वास प्रस्ताव और पाकिस्तान की बदहाली: महंगाई, मुद्रास्फीति, आतंक और कट्टरता से बर्बाद होता पाकिस्तान

Destitute in pakistan

बड़े-बड़े वादे करने वाले और पाकिस्तान को आर्थिक, सामरिक और वैश्विक ताकत बनाने का खोखला दावा करने वाले इमरान खान के शासनकाल के बमुश्किल अभी तीन साल और सात महीने ही पूरे हुए थे, कि भ्रष्टाचार, महंगाई और पाकिस्तान की बदहाल अर्थव्यवस्था के साथ ही असफल विदेश नीति का हवाला देते हुए विपक्षी पार्टियां पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी और पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज ने 8 मार्च को नेशनल असेंबली में इमरान खान की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश कर दिया। इमरान खान की मुश्किलें तब और बढ़ गईं, जब उनकी ही पार्टी के करीब दो दर्जन सांसदों ने उनका साथ छोड़ दिया। दरअसल पाकिस्तान में लोकतंत्र के अस्थिर होने का खामियाजा न केवल वहां की जनता को भुगतना पड़ा है, बल्कि भारत समेत तमाम पड़ोसी मुल्कों को भी उठानी पड़ी है। अस्थिरता का तकाजा ये रहा कि पाकिस्तान के गठन के बाद से अब तक कोई भी प्रधानमंत्री वहां पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं कर सका।

इमरान खान का सत्ता में आना

18 अगस्त 2018 को जब पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी के मुखिया अहमद खान नियाजी इमरान... जिन्हें क्रिकेट जगत और दुनिया इमरान खान के नाम से जानती है..ने पाकिस्तान के 22वें प्रधानमंत्री के तौर पर शपथ ली थी, तो लगा मानों पाकिस्तान अपने पड़ोसी मुल्क भारत से लोकतंत्र का पाठ सीख कर उसी रास्ते पर चलने की कवायद कर रहा है। क्योंकि यह पाकिस्तान के संसदीय इतिहास में दूसरी मर्तबा था जब लोकतांत्रिक तरीके से सत्ता का हस्तांतरण हुआ था। पहली बार ऐसा 2013 में हुआ था, जब एक लोकतांत्रिक सरकार ने चुनाव के जरिए चुनी हुई, दूसरी सरकार को सत्ता हस्तांतरित किया था। 2013 में नवाज शरीफ की पार्टी पीएमएल(एन) सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी थी और नवाज शरीफ ने 5 जून 2013 को प्रधानमंत्री का पदभार संभाला था।

लेकिन 2018 में पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बनने वाले इमरान खान की सरकार के खिलाफ लाए गए अविश्वास प्रस्ताव ने 65 साल पहले की उस घटना की याद ताजा कर दी, जब पाकिस्तान के छठे प्रधानमंत्री इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर को 1957 में अविश्वास प्रस्ताव की वजह से पद छोड़ना पड़ा था। और ऐसा लगा कि पाकिस्तान के कठपुतली प्रधानमंत्री के नाम से जाने जाने वाले इमरान खान का हस्र भी पाकिस्तान के छठे प्रधानमंत्री इब्राहिम इस्माइल चुंदरीगर के जैसा ही है।

अविश्वास प्रस्ताव और संवैधानिक प्रक्रिया

विपक्ष के नेताओं ने इमरान खान सरकार के खिलाफ पाकिस्तान के संविधान के अनुच्छेद 95 के तहत अविश्वास प्रस्ताव जमा किया। साथ ही अनुच्छेद 54(3) के तहत नेशनल असेंबली का सत्र बुलाने का नोटिस भी दिया ताकि सदन में प्रस्ताव पेश किया जा सके। नियम के मुताबिक अगर नेशनल असेंबली में सत्र नहीं चल रहा हो तो अनुच्छेद 54 की तहत इसकी मांग की जा सकता है। इसके तहत स्पीकर के पास सत्र बुलाने के लिए अधिकतम 14 दिनों का समय होता है। मौजूदा नियम के मुताबिक पाकिस्तान में प्रधानमंत्री के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पर वोटिंग के लिए नेशनल असेंबली के कुल सदस्यों का 20 फीसदी यानी 68 सदस्यों के दस्तखत जरूरी है। जब सत्र बुलाने के लिए 86 सदस्यों के हस्ताक्षर की जरूरत होती है। पीएमएल-एन का दावा है कि सत्र बुलाने के लिए दाखिल किए गए दस्तावेजों पर 102 पर प्रस्ताव पर 152 सदस्यों ने हस्ताक्षर किए हैं।

क्यों पेश हुआ इमरान खान के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव?

दरअसल, अपने शासनकाल के दौरान पूरी तरह से पाक सेना की हाथों खेलने वाले इमरान खान ने भारत के खिलाफ जहर उगलने और कश्मीर का राग अलापने के अलावा, कभी भी अपने मुल्क की आंतरिक समस्याओं और आर्थिक हालात सुधारने को प्राथमिकता नहीं दी। पाकिस्तान पर ध्यान देने के बजाए वे भारत, फलस्तीन, इजरायल, तुर्की पर ही अपने अनर्गल विचार देते रहे। चीन के साथ इमरान का प्रेम किसी से छिपा नहीं है। चाहे वो इस्लामिक देशों का संगठन OIC हो या संयुक्त राष्ट्र संघ का मंच और फिर अन्य कोई भी अंतर्राष्ट्रीय मंच..... हर मंच से वो भारत को कोसते ही नजर आए। और नतीजा ये रहा कि एक देश के तौर पर पाकिस्तान की साख वैश्विक स्तर पर तो गिरी ही... खुद उनका मुल्क पाकिस्तान आर्थिक रूप से कंगाली के हद तक पहुंच गया... और महंगाई इतनी बढ़ गई कि रोजमर्रा की चीजें जैसे दूध, चीनी, आलू, टमाटर, आटा और अन्य सामान्य खाद्य पदार्थ भी जनता की पहुंच से कोसो दूर हो गए। एक तरह से भुखमरी जैसे हालात बन गए पाकिस्तान में।

पाकिस्तान में आसमान छूती महंगाई

पाकिस्तान के फेडरल ब्यूरो ऑफ स्टैटिस्टिक्स (FBS) के मुताबिक अक्टूबर 2018 से अक्टूबर 2021 तक बिजली की दरें 57 फीसदी तक बढ़ गई। पाकिस्तान में महंगाई 70 सालों में अपने सबसे ऊंचे स्तर पर पहुंच गई। और इन सब से बेपरवाह इमरान खान यह गैरजिम्मेदाराना बयान देते रहे कि वे आलू टमाटर के दाम जानने के लिए राजनीति में नहीं आए हैं।

मनी लॉन्ड्रिंग और टेरर फंडिंग की वजह से FATF की ग्रे सूची में पाकिस्तान

यहां तक कि इमरान खान... अपने शासनकाल में पाकिस्तान के आर्थिक हालात को सुधारने के बजाय भारत के खिलाफ आतंकी संगठनों को घरेलू और विदेशों से मिलने वाले धन के जरिए लगातार आर्थिक मदद करते रहे। यही वजह रही कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर मनी लॉन्ड्रिंग और टेरर फंडिंग जैसे वित्तीय मामलों को देखने वाली संस्था FATF यानी FINANCIAL ACTION TASK FORCE ने मनी लॉन्ड्रिंग और टेरर फंडिंग से जुड़ी शर्तों को पूरा नहीं करने के कारण 2018 से अब तक लगातार पाकिस्तान को ग्रे सूची में डाला हुआ है। अक्टूबर 2018, 2019, 2020 और 2021 में हुए रिव्यू में भी पाकिस्तान को राहत नहीं मिली।

इमरान खान का तानाशाही रवैया

क्रिकेट के मैदान में तानाशाही रवैया अपनाने वाले इमरान खान ने राजनीति में भी वही रूख अपनाया। 1992 में जब पाकिस्तान क्रिकेट टीम ने वर्ल्ड कप जीता था, तो इस जीत के हीरो रहे इंजमाम उल हक और वसीम अकरम जैसे खिलाडियों के योगदान को दरकिनार करते हुए इमरान ने जीत का सेहरा सिर्फ अपने सिर बांधा था। और यह एक संयोग ही है कि 1992 में 25 मार्च को मिली इस जीत के पूरे तीस साल बाद 2022 में उस जीत के तानाशाह नायक को राजनीति में अविश्वास प्रस्ताव का सामना भी करना पड़ा।

‘इलेक्टेड’ नहीं, ‘सेलेक्टेड’ प्रधानमंत्री

दरअसल, पाकिस्तान आर्मी के इशारों पर काम करने वाले इमरान खान 2018 में सेना की मदद से ही सत्ता में आए थे। यही वजह है कि विपक्ष इमरान खान को ‘सेलेक्टेड’ प्रधानमंत्री कहता हैं। उनके मुताबिक इमरान खान ‘इलेक्टेड’ ना होकर सेना द्वारा सेलेक्टेड हैं। कभी सेना के प्रिय रहे इमरान खान के अमेरिका और यूरोपीय संघ को लेकर अनावश्यक बयानबाजी से सेना भी नाराज हो गई...और स्थितियां उनके लिए बद से बदतर हो गईं।

पाकिस्तान में सियासी दलों की स्थिति

पाकिस्तान की 342 सदस्यीय नेशनल असेंबली में सरकार बनाने के लिए 172 सदस्यों का समर्थन जरूरी होता है। इमरान खान की सत्ताधारी पीटीआई को पास सदन में 155 सदस्य है। साथ ही उन्हें छह अन्य पार्टियों के 22 और दो निर्दलीय सांसदों के साथ कुल 24 सांसदों का समर्थन हासिल है। इस तरह पीटीआई को कुल 179 सांसदों का समर्थन है नेशनल असेंबली में। जो सत्ता में बने रहने से सात ज्यादा है। लेकिन इमरान खान के लिए चिंता की बात यह है कि उनकी ही पार्टी पार्टी पीटीआई के करीब दो दर्जन सांसद बागी हो गए। उन्होंने आरोप लगाया कि इमरान का रवैया तानाशाही है और उनकी आवाज पार्टी में दबा दिया जाता है।

वहीं विपक्षी पार्टियों के सदस्यों की बात करें तो उनकी कुल संख्या 162 है जो बहुमत की संख्या से मात्र दस कम है। इनमें पाकिस्तान मुस्लिम लीग-नवाज के सांसदों की संख्या 84 है जबकि पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के 56 सांसद हैं। वहीं मुताहिदा मजलिस-ए-अमाल के 15, बलोचिस्तान नेशनल पार्टी के 4, अवामी नेशनल पार्टी के एक और निर्दलीय 2 सांसद हैं।

नेशनल असेंबली का गठन और सांसदों का चुनाव

ऐसे में पाकिस्तान की संसदीय स्थिति की बात करें तो, पाकिस्तान की नेशनल असेंबली में कुल 342 सीटें हैं। लेकिन इनमें से सिर्फ 272 सीटों पर ही सीधे चुनाव होता है। जबकि नेशनल असेंबली में 60 सीट महिलाओं और 10 सीट धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित है। महिलाओं के लिए आरक्षित 60 सीटों पर सीधे वोटिंग नहीं होती है। आम चुनाव में प्रदर्शन के आधार पर पार्टियों के बीच इसका बंटवारा होता है। चुनाव आयोग को पार्टियां पहले ही अपनी महिला उम्मीदवारों की वरीयता सूची सौंप देती है। चुनाव के बाद पार्टी को 4.5 सीट के अनुपात में वरीयता के आधार पर एक महिला रिजर्व सीट मिल जाती है। यही तरीका धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए आरक्षित दस सीटों पर भी अपनाया जाता है।

पाकिस्तान की राजनीति में सेना की भूमिका

भारत और पाकिस्तान को आजाद हुए सात दशक से ज्यादा का वक्त गुजर गया है। इस दौरान भारत में जहां लोकतंत्र की जड़ें लगातार मजबूत होती चली गई, वहीं पाकिस्तान में लोकतंत्र का गला बार-बार घोंटा गया। असल में पाकिस्तान के इतिहास में लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई सरकारें कम और सैन्य शासन ज्यादा रहा है। इसे संयोग कहा जाए या कुछ और कि 1947 में गठन के बाद से अब तक पाकिस्तान में कोई भी प्रधानमंत्री पांच साल का अपना कार्यकाल पूरा नहीं सका। दरअसल, पाकिस्तान में असल सत्ता हमेशा से सेना के हाथ में रही। जिस किसी ने भी उससे अलग हटकर चलने की कोशिश की उसे इसका दंड भुगतना पड़ा।

पाकिस्तान में चुनावी इतिहास और सफ़र

इन परिस्थितियों के बीच पाकिस्तान के चुनावी इतिहास की बात करें तो, पहला आम चुनाव 1970 में हुआ था और तब से अब तक वहाँ 11 चुनाव हो चुके हैं। पाकिस्तान में पहला आम चुनाव 7 दिसंबर 1970 को जनरल याह्या खान के नेतृत्व में हुआ था। इसके दस दिन बाद यानी 17 दिसंबर 1970 को प्रांतीय चुनाव भी संपन्न हुए। इस चुनाव के दौरान पूर्वी पाकिस्तान और पश्चिमी पाकिस्तान के बीच टकराव के मुद्दे सबसे ज्यादा हावी थे। चुनाव कुल 313 सीटों पर लड़ा गया। इसमें 13 सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित थी। शेख मुजीबुर रहमान के नेतृत्व वाली अवामी लीग ने 167 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत प्राप्त किया। लेकिन पाकिस्तान के तत्कालीन गवर्नर जनरल याह्या खान को अवामी लीग की जीत रास नहीं आई और सुरक्षा के नाम पर पूर्वी पाकिस्तान में सैनिक कार्रवाई शुरू कर दी। इसके बाद जनरल याह्या खान के नेतृत्व में ही पाकिस्तान को 1971 में भारत के हाथों करारी हार का सामना करना पड़ा और बांग्लादेश के रूप में एक नया राष्ट्र बना।

14 अगस्त 1973 को पाकिस्तान में संविधान लागू किया गया। इसमें 1970 में हुए चुनाव को वैधता प्रदान की गई। 1970 में चुनी गई संसद ने याह्या खान के इस्तीफे के बाद जनवरी 1972 से काम करना शुरू किया और 1973 में जुल्फिकार अली भुट्टो के नेतृत्व में पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी की सरकार बनी। चूकि संविधान में पांच साल के बाद चुनाव का प्रावधान था इसलिए पाकिस्तान में दूसरा चुनाव मार्च 1977 में हुआ। जिसमें जुल्फीकार अली भुट्टो के नेतृत्व में पीपीपी सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी। लेकिन ये सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चल सकी। 5 जुलाई 1977 को तत्कालीन सेना प्रमुख जनरल जियाउल हक ने भुट्टों की सरकार के खिलाफ बगावत कर उन्हें पद से हटा दिया और देश में मिलिट्री शासन लगा दिया। जियाउल हक ने 1973 में लागू की गई संविधान को भी निरस्त कर दिया।

इसके बाद फरवरी 1985 में सैनिक शासन के दौरान पाकिस्तान में चुनाव हुआ, लेकिन इस चुनाव में किसी भी राजनीतिक पार्टी को हिस्सा नहीं लेने दिया गया। ऐसा पहली बार नहीं हुआ था। इससे पहले 1962 में जनरल अयूब खान के मिलिट्री शासन में भी बिना राजनीतिक पार्टी के व्यक्तिगत स्तर पर चुनाव कराए गए थे। दरअसल, सैन्य शासन को जनता में लोकप्रिय बनाने और छवि सुधार के नाम पर ये चुनाव कराए गए।

जनरल जिया उल हक की 17 अगस्त 1988 को एक हवाई दुर्घटना में मौत हो गई। 11 साल बाद पाकिस्तान में एक बार फिर नवंबर 1988 में चौथा आम चुनाव हुआ। 1985 के चुनाव के समान ही इस चुनाव में भी मुस्लिम मतदाताओं को मुस्लिम उम्मीदवार और गैर मुस्लिम मतदाताओं को गैर मुस्लिम उम्मीदवार के लिए वोट करना था। इस चुनाव में पीपीपी ने बेनजीर भुट्टो के नेतृत्व में चुनाव लड़ा और सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। चुनाव के बाद पीपीपी ने अन्य दलों के साथ गठबंधन कर सरकार बनाई और बेनजीर भुट्टो पाकिस्तान की पहली महिला प्रधानमंत्री बनीं। लेकिन ये सरकार भी ज्यादा दिनों तक नहीं टिक पाई। साल 1990 में बेनजीर भुट्टो को भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त कर दिया गया।

इसके बाद अक्टूबर 1990 में आम चुनाव हुए और नवाज शरीफ देश के प्रधानमंत्री बने। हालांकि 1993 में नवाज शरीफ को सेना के दबाव में इस्तीफा देना पड़ा। और अक्टूबर 1993 में एक बार फिर से आम चुनाव हुए। इस चुनाव में जीत दर्ज कर बेनजीर भुट्टो दूसरी बार पाकिस्तान की प्रधानमंत्री बनीं। लेकिन 1996 में तत्कालीन राष्ट्रपति फारुख अहमद लेघारी ने बेनजीर सरकार को भ्रष्टाचार के आरोप में बर्खास्त कर दिया। इसके बाद फरवरी 1997 में सातवां आम चुनाव हुआ। इस चुनाव में नवाज शरीफ के नेतृत्व वाली पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) ने चुनाव जीता और नवाज शरीफ प्रधानमंत्री बने। साल 1999 में कारगिल युद्ध में हार झेलने के बाद जनरल परवेज मुशर्रफ ने नवाज शरीफ को सत्ता से बेदखल कर पाकिस्तान की कमान अपने हाथ में ले ली।

साल 2002 में पाकिस्तान में आठवां आम चुनाव और 2008 में नौवां आम चुनाव हुए। चुनाव प्रचार के लिए 2007 में पाकिस्तान लौटीं बेनजीर भुट्टों की चुनाव प्रचार के दौरान हत्या कर दी गई। 2008 के आम चुनाव में पीपीपी और पीएमएल (एन) के गठबंधन ने चुनाव जीता और युसुफ रजा गिलानी प्रधानमंत्री बने। साल 2012 में पाकिस्तान की सुप्रीम कोर्ट ने प्रधानमंत्री यूसुफ रजा गिलानी को अयोग्य ठहरा दिया। जिसके बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा। इसके बाद साल 2013 में पाकिस्तान में फिर से आम चुनाव करवाना पड़ा। इस चुनाव में नवाज शरीफ की पाकिस्तान मुस्लिम लीग (एन) को बहुमत मिली और नवाज शरीफ पाकिस्तान के प्रधानमंत्री बने। लेकिन पनामा पेपर में उनका नाम आने के बाद उन्हें इस्तीफा देना पड़ा।

25 जुलाई 2018 को एक बार फिर पाकिस्तान में आम चुनाव हुए। पाकिस्तान के इतिहास में ये दूसरा मौका था जब कोई चुनी हुई सरकार ने अपना कार्यकाल पूरा किया था। 2018 के चुनाव में इमरान खान की पाकिस्तान तहरीक-ए-इंसाफ पार्टी सबसे बड़े दल के रूप में उभरी और 18 अगस्त को इमरान खान पाकिस्तान के 22वें प्रधानमंत्री बने।

प्रधानमंत्री के तौर पर इमरान खान असफल

दरअसल, अपने शासनकाल के दौरान इमरान खान किसी भी मोर्चे पर एक सफल प्रधानमंत्री नहीं साबित हुए। ना ही वे पाकिस्तान की आर्थिक हालात को ठीक कर पाए.. ना ही आतंक पर लगाम लगा पाए... और ना ही अपने पड़ोसियों संबंध ही सुधार पाए। चुनाव में किए अपने वादों को भी वे भूल गए। उनके शासन काल में पाकिस्तान की जनता महंगाई और भ्रष्टाचार से त्रस्त हो गई। वो यह भूल गए कि भ्रष्टाचार को लेकर ही उन्होंने 2014 में नवाज शरीफ सरकार के खिलाफ आजादी का मार्च निकाला था। यहां तक कि अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी पाकिस्तान कोई साख नहीं बना पाया। और सबसे बढ़कर उनके आका पाकिस्तानी सेना उनके कामकाज से नाराज हो गई। कुल मिलाकर कहें तो इमरान खान भले ही एक क्रिकेटर के रूप में मैदान पर अपनी छाप छोड़ने में सफल रहे हों लेकिन एक राजनेता के रूप में राजनीति के पिच पर वो पूरी तरह से बोल्ड हो गए।

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