Skip to main content

चुनाव और जाति की राजनीति: क्या जाति के बिना चुनाव संभव नहीं है?

Caste in Politics

जहाँ नाम से पहले जाति की पहचान जरूरी

भारत एक बहुसंख्यक लोकतांत्रिक देश है जहाँ विभिन्न धर्मों के लोग एक साथ रहते हैं। इन धर्मों में कई तरह की जाति, उपजाति के लोग भी साथ रहते हैं जिन्हें अलग-अलग वर्गों में बांटा गया है। दरअसल हमारे देश में शुरू से ही जाति एक बहुत बड़ा चर्चा का विषय रहा है। यहाँ किसी का भी नाम पूछने से पहले जाति जरूर पूछी जाती है। जाति के आधार पर राजनीति भी हमारे देश में खूब खेली जाती है। चुनाव के दौरान तो अक्सर राजनीतिक दलों का मुद्दा विकास और प्रगति से हटकर जाति पर अटक जाता है।

2024 में होना वाला आम चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है। यैसे में एक बार फिर से जाति का मुद्दा राजनीतिक दलों के लिए सबसे प्रमुख चुनावी मुद्दा बनता नजर आ रहा है। एक तरफ बीजेपी के नेतृत्व में एनडीए गठबंधन है तो दूसरी तरफ कांग्रेस समेत दो दर्जन से ज्यादा पार्टियों से बना इंडिया गठबंधन।

2024 के लोकसभा चुनाव में जाति बड़ा मुद्दा

2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन जहाँ धर्म और हिंदुत्व के मुद्दे पर तीसरी बार केंद्र की सत्ता में वापस आना चाहता है, वहीं इंडिया गठबंधन जातिगत जनगणना और सेक्युलरिज्म को प्रमुख चुनावी मुद्दा बनाना चाहता है। लेकिन तमाम चुनावी मुद्दों के बीच इन दोनों गठबंधनों में जो एक मुद्दा कॉमन है... वह है जाति का मुद्दा... विशेषकर ओबीसी यानी Other Backward Class और अति पिछड़े वर्ग का मुद्दा। 

ओबीसी और अति पिछड़े वर्गों की संख्या को देखते हुए इन राजनीतिक दलों को लगता है कि इनके समर्थन के बिना सत्ता हासिल नहीं हो सकती है... और इसे देखते हुए ही हर पार्टी खुद को इन जातियों का सबसे बड़ा शुभचिंतक और पैरोकार बताकर उन्हें अपने साथ जोड़ना चाहती है। ताकि चुनाव में उसकी नैया पार लग जाए और वो सत्ता को गहन कर सके। चाहे वो जातिगत जनगणना की बात हो, कोई पुरस्कार देने की बात हो या जाति आधारित क्षेत्रीय दलों को अपने साथ जोड़ने की बात हो... या चुनाव में टिकट बांटने की बात हो या उम्मीदवार तय करने की बात हो...सब के मूल में कहीं न कहीं जाति की राजनीति समायी हुई है। मजे की बात तो यह है सभी पार्टियां इस तरह के समीकरण बनाने में जुटी हैं लेकिन सभी एक-दूसरे पर जाति की राजनीति करने का आरोप भी लगा रही हैं।

भारतीय समाज में जाति का महत्व

दरअसल, भारत में जाति और संप्रदाय के बिना समाज की कल्पना नहीं की जा सकती है। जाति यहां के सामाजिक ढांचे में रची-बसी है और ज्यादातर राजनीतिक-सामाजिक निर्णय जाति के आधार पर ही तय किए जाते हैं। भले ही हम औपचारिक रूप से उसे स्वीकार नहीं करते हैं लेकिन उसके मूल में जाति होती ही है। जब भी कोई चुनाव आता है.. चाहे वो आम चुनाव हो या राज्य स्तरीय चुनाव या फिर कहें कि स्थानीय स्तर पर होने वाला कोई भी चुनाव हो...उस दौरान जाति का महत्व और भी ज्यादा बढ़ जाता है। हर राजनीतिक पार्टी या नेता अपने-अपने फायदे के हिसाब से जातियों की महता और उनके गुणगान में कसीदे पढ़ने लगते हैं और अलग-अलग जातियों को लुभाने के लिए हर तरकीब और जोर आजमाइश में जुट जाते हैं। जिन जातियों को इन चुनावी चालबाजी में कोई रस नहीं आता है उन्हें भी ये राजनीतिक दल हर तरह के रसास्वादन कराने और अपने पक्ष में लामबंद करने में रात-दिन एक कर देते हैं। चूंकि अलग-अलग राज्यों और क्षेत्रों में अलग-अलग जातियों की संख्या पर्याप्त मात्रा में है जिनके एकमुश्त वोट, चुनाव के परिणाम को न केवल प्रभावित करते हैं बल्कि अपने चहेते राजनीतिक दलों को सत्ता तक पहुंचाने का सामर्थ्य भी रखते है। और बस, इसी बात को ध्यान रखते हए तमाम राजनीतिक दलों को यह लगता है कि चुनावी नैया किसी भी अन्य मुद्दों के बरक्श जातियों को रिझाकर अपने पक्ष में करने से पार लगेगी।

...और बढ़ती गई जाति की राजनीति

भारत में हुए चुनावी इतिहास पर अगर नजर डाले तो चुनाव दर चुनाव, राजनीति में जाति की अहमियत बढ़ती ही चली गई और जाति प्रमुखता से चुनाव जीतने या हारने का कारण बन गई। जबकि हमारे संविधान निर्माताओं ने इस बात पर जोर दिया था कि जैसे-जैसे भारतीय समाज शिक्षित और परिपक्व होगा वैसे-वैसे समाज में व्याप्त जाति की खाई पटती जाएगी और धीरे-धीरे जात-पात समाज से खत्म हो जाएगा। संविधान निर्माताओं ने राजनीतिक दलों से यह उम्मीद भी जताई थी और आह्वाहन भी किया था कि वो इसके लिए भविष्य में लगातार कोशिश करते रहेंगे। लेकिन हुआ इसके बिलकुल उलट...। जिन राजनीतिक दलों के कंधों पर समाज और देश के विकास में अवरोध बने जाति की इस खाई को खत्म करने का बोझ था, उन्होंने ही राजनीतिक सत्ता पाने के लिए जातियों की लामबंदी को न केवल बढ़ावा दिया बल्कि इसे खूब पुष्पित और पल्लवित भी किया।

और इसी का नतीजा है कि आज हर चुनाव से पहले राजनीतिक पार्टियां संख्या के आधार पर जातियों को अपने पाले में लाने के लिए साम-दाम-दंड-भेद हर तरह के हथकंडे अपनाती हैं। इसका परिणाम यह हुआ कि आजादी के बाद से जातियों की प्रमुखता और उन्हें राजनीति से दूर रखने के लिए चला हमारा समाज और तत्पर्यता (तेजी) से जाति और उपजाति में बंटता चला गय़ा और समाज में जाति की खाई चौड़ी होती चली गई।

राजनीतिक दलों का पसंदीदा मुद्दा जाति 

एक बार फिर 2024 के आम चुनाव से पहले ही इंडिया गठबंधन की तमाम पार्टियां जातिगत जनगणना का मुद्दा पूरे जोर शोर से उठाने में लग गई हैं। कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने तो अप्रैल 2023 में हुए कर्नाटक विधानसभा चुनाव में प्रचार के दौरान ही जातिगत जनगणना का मुद्दा उठाया था। उन्होंने इस दौरान नारा दिया था- जितनी आबादी, उतना हक।

बिहार में जातिगत जनगणना

जातिगत जनगणना में बाजी मारी बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने जो तब महागठबंधन के साथ थे। इस जातीय आधारित जनगणना के पीछे तर्क यह दिया गया कि इससे वंचित समूहों की पहचान करने और उन्हें नीति निर्माण की मुख्यधारा में लाने में मदद मिलेगी। इससे सामाजिक असमानता दूर करने में मदद मेलेगी। साथ ही इसके तहत OBCs और अन्य समूहों की जनसंख्या के सटीक आंकड़ों का पता चलने से संसाधनों का समान वितरण सुनिश्चित हो सकेगा। जबकि इसके विरोधियों का कहना है कि इससे जाति व्यवस्था और मजबूत होगी जो समाज के लिए सही नहीं है। खैर, तमाम दलीलों के बीच दो चरणों में हुए बिहार में जातीय जनगणना के आंकड़े अक्टूबर 2023 में जारी कर दिए गए। इस आंकड़े के मुताबिक बिहार में कुल आबादी 13 करोड़ से ज्यादा है। इनमें 27 फीसदी अन्य पिछड़ा वर्ग और 36 फीसदी अत्यंत पिछड़ा वर्ग है यानी ओबीसी की कुल आबादी 63 फीसदी है। जबकि अनुसूचित जाति की आबादी 19 फीसदी और जनजाति 1.68 फीसदी है। वहीं सामान्य वर्ग 15.52 फीसदी है।

हालांकि पिछड़े वर्गों के उन्नति का तर्क दे कर कराए गए इस सर्वे- जैसा कि बिहार सरकार इसे बताती रही-..के पीछे भी जातियों को आनुपातिक आरक्षण देकर उन्हें अपनी तरफ लुभाना ही है ताकि चुनाव में उनका वोट मिल सके। जातीय जनगणना को जारी करने के बाद बिहार में आरक्षण की सीमा को बढ़ाकर 75 फीसदी कर भी दिया गया।

हो सकता है नीतीश कुमार या अन्य पार्टियों की मंशा ओबीसी और पिछड़े वर्गों के उत्थान की हो लेकिन इससे भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि इसके जरिए वो इन जातियों में अपनी पैठ बनाकर बीजेपी को चुनाव में शिकस्त देने के एक मजबूत हथियार के रूप में इस्तेमाल भी करना चाह रहे थे। नीतीश कुमार के साथ ही महागठबंधन के राजद और उनके अन्य साथी भी बार-बार इस बात को दोहरा रहे थे कि बीजेपी ओबीसी और अन्य पिछड़े का कल्याण नहीं चाहती है इसलिए बीजेपी जातीय जनगणना का विरोध कर रही है।

लेकिन कहते हैं न कि राजनीति में जनता बाद में... खुद को पहले रखा जाता है... और इसके सटीक उदाहरण बने नीतीश कुमार जो इस जातीय जनगणना के सबसे बड़े पैरोकार थे और तब महागठबंधन के साथ थे। लेकिन जब लगा कि महागठबंधन में उनकी राजनीतिक महत्वकांक्षा की पूर्ति नहीं होगी तो अब बीजेपी के साथ एक बार फिर से जुड़ गए।

न जात पर न पात पर’....

यह तो समय के साथ राजनीति में जाति का बढ़ता महत्व ही है कि जाति की राजनीति के चलते नुकसान झेल चुकी कांग्रेस भी जाति जनगणना के आधार पर केंद्र में वापसी की उम्मीद कर रही है। जिस कांग्रेस का कभी एक नारा हुआ करता था कि ‘न जात पर, न पात पर, इंदिरा जी की बात पर, मुहर लगेगी हाथ पर’। उस कांग्रेस में फैसला लेने वाली सबसे बड़ी कमेटी CWC यह निर्णय लेती है कि सत्ता में लौटे तो जातिगत जनगणना कराएंगे। चुनाव में जातिगत समीकरण का फायदा देखते हुए ही कांग्रेस के पूर्व अध्यक्ष राहुल गांधी और मौजूदा अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे अपनी चुनावी रैलियों में जाति जनगणना को प्रमुख मुद्दा बनाकर मोदी सरकार पर निशाना साध रहे हैं। इसका एक कारण यह भी है कि सॉफ्ट हिंदुत्व का मुद्दा आजमाने के बाद कांग्रेस पार्टी को भी अब जातीय जनगणना में फायदा दिखता है।

जाति की राजनीति में बीजेपी भी पीछे नहीं

वैसे ही, अगर बीजेपी की बात करे तो वह हमेशा से इस बात से इंकार करती रही है कि बीजेपी जाति आधारित राजनीति नहीं करती है। लेकिन दिखता कुछ और ही है। बीजेपी ने भी पारंपरिक पहचान आधारित सामाजिक न्याय की राजनीति का मुकाबला करना सीख लिया है। उसने न केवल राजनीति में ओबीसी के प्रतिनिधित्व को बढ़ाया है बल्कि विभिन्न योजनाओं के माध्यम से कल्याण प्रदान करने पर भी खूब ध्यान दिया है।

एक तरफ प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी विपक्ष की जाति की राजनीति का विरोध करते हैं और बार-बार यह दुहराते हैं कि उनके लिए देश में सिर्फ चार जातियां हैं- गरीब, किसान, युवा और महिलाएं। वहीं दूसरी तरफ केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह खुल कर कहते हैं कि बीजेपी जातिगत जनगणना कराने के खिलाफ नहीं है।

सितंबर 2023 में लोकसभा में महिला आरक्षण बिल पर बोलते हुए केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने बताया कि नरेंद्र मोदी सरकार में 29 ओबीसी मंत्री हैं जबकि बीजेपी में 85 सांसद ओबीसी है। अमित शाह ने कहा कि बीजेपी में 27 फीसदी विधायक और 40 फीसदी एमएलसी ओबीसी जाति से आते हैं।

आम चुनाव में बढ़ता बीजेपी का ओबीसी वोट बैंक

दरअसल, बीजेपी को पिछले आम चुनावों में ओबीसी के वोट का फायदे भी देखने को मिला है। सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज (सीएसडीएस) ने 2019 के आम चुनाव के बाद एक सर्वे कराया था जिसमें ओबीसी के मोर्चे पर बीजेपी को मिले फायदे को बताया गया था। इस सर्वे में पाया गया कि 2009 के लोकसभा चुनाव में करीब 22 फीसदी ओबीसी ने बीजेपी को और 42 फीसदी ने क्षेत्रीय दलों को वोट दिया था। जबकि 2019 के लोकसभा चुनाव में स्थिति काफी बदल गई। और 2009 की तुलना में 2019 में बीजेपी को लोकसभा चुनाव में दोगुना यानी 44 फीसदी ओबीसी का वोट मिला। जबकि क्षेत्रीय पार्टियों को मात्र 27 फीसदी।

बिहार में तो यह आंकड़ा और भी ज्यादा था जहां ओबीसी वोटर्स ने एनडीए के पक्ष में जमकर वोट किए। 2019 में बिहार में एनडीए को 70 फीसदी से ज्यादा ओबीसी के वोट मिले थे। एनडीए में उस समय बीजेपी के अलावा जेडीयू और एलजेपी भी थी।

बीजेपी और ओबीसी-दलित की राजनीति

जातियों के महत्व और उनको मिलने वाले आरक्षण के खिलाफ बोलने का अंजाम संघ और बीजेपी देख चुकी है। 2015 में बिहार विधानसभा चुनाव के दौरान जब संघ प्रमुख मोहन भागवत ने जाति आधारित आरक्षण व्यवस्था की समीक्षा की बात कही थी। तब उस चुनाव में बीजेपी को करारा झटका लगा था और इससे बीजेपी और संघ दोनों ने सबक सीख लिया।

यही वजह है कि हिंदुत्व की व्यापक राजनीति के साथ-साथ बीजेपी और संघ जातियों को साधने की बारीक राजनीति भी करते रहे हैं और किसी न किसी रूप में बीजेपी भी हर राज्य में यह राजनीति कर रही है।

इसके तहत उत्तर प्रदेश में ब्राह्मण, राजपूत के साथ गैर यादव पिछड़ा समीकरण साधा जा रहा है तो बिहार में गैर यादव पिछड़ा और सवर्ण का समीकरण बना है। झारखंड और छत्तीसगढ़ में आदिवासी व पिछड़ा समीकरण बनाया गया है तो मध्य प्रदेश में यादव मुख्यमंत्री और दलित और ब्राह्मण उप मुख्यमंत्री के जरिए समूचे पिछड़ा, दलित और सामान्य वर्ग को साथ लाने का प्रयास हुआ है। राजस्थान में भी बदले हुए रूप में मध्य प्रदेश वाला प्रयोग हुआ है। यहां तक कि कर्नाटक में लिंगायत और वोक्कालिगा दोनों को साधने का प्रयास हुआ है तो आंध्र प्रदेश में कापू और कम्मा दोनों को साथ लाने की कोशिश हो रही है।

क्या है जातिगत जनगणना का इतिहास?

अब अगर देश में ओबीसी की संख्या और उनके इतिहास की बात करें तो साल 1931 तक भारत में जातिगत जनगणना होती थी। साल 1941 में जनगणना के समय जाति आधारित डाटा जुटाया जरूर गया था लेकिन उसे प्रकाशित नहीं किया गया।

वहीं 1951 से 2011 तक की जनगणना में हर बार अनुसूचित जाति और जनजाति का डाटा दिया गया लेकिन ओबीसी और दूसरी जातियों का नहीं।

1980 में मंडल कमीशन की रिपोर्ट में ओबीसी का देश की जनसंख्या में 52 फीसदी हिस्सा माना गया। हालांकि मंडल कमीशन ने भी साल 1931 के जनगणना को ही आधार माना था।

लेकिन सही मायने में कहा जाए तो भारत में ओबीसी की आबादी कितनी प्रतिशत है इसका कोई ठोस प्रमाण फिलहाल नहीं है।

हां, 2021 में एनएसओ यानी राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय द्वारा किए गए एक सर्वेक्षण के आंकड़ों से पता चलता है कि देश भर में अनुमानित 17.24 करोड़ ग्रामीण परिवारों में 44.4 फीसदी ओबीसी, 21.6 फीसदी अनुसूचित जाति और 12.3 फीसदी अनुसूचित जनजाति और 21.7 फीसदी अन्य समूहों से हैं।

ओबीसी की इन संख्याओं को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि लोकसभा के चुनाव में सैकड़ों सीटों पर ओबीसी का वोट निर्णायक होता है। और यही वजह है कि सभी राजनीतिक पार्टियां ओबीसी को अपनी तरफ लुभाने और उनका वोट पाने के लिए जम कर जाति की राजनीति करती हैं।

ओबीसी का इतिहास और सफ़र

अब अगर ओबीसी के इतिहास की बात करें 1870 के दशक में मद्रास प्रेसीडेंसी में ओबीसी शब्द के प्रयोग का संदर्भ मिलता है। ब्रिटिश प्रशासन ने निम्न जाति समूहों की पहचान करने के लिए शूद्र वर्ग और अछूत जातियों को पिछड़े वर्गों के लेबल के तहत जोड़ा। 1935 के भारत शासन अधिनियम में अछूतों को अनुसूचित जाति के रूप में पुनर्वगीकृत किया गया और आजादी के बाद भारत सरकार ने इस वर्गीकरण का उपयोग करना जारी रखा। आजादी के बाद 1950 में भारत सरकार ने अस्पृश्यता को खत्म किया और केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर एससी और एसटी के लिए राजनीतिक प्रतिनिधित्व अनिवार्य कर दिया। संविधान ने ओबीसी के लिए प्रावधान करने का भी संकल्प लिया था। और इसके लिए 1953 में काका कालेलकर और 1979 में बी पी मंडल की अध्यक्षता में पिछड़ी जाति के लिए दो केंद्रीय स्तर के आयोग गठित किए गए। इसके बावजूद 1980 के दशक के अंत तक ओबीसी एक अमूर्त प्रशासनिक श्रेणी ही बना रहा, जब तक मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू नहीं कर दिया गया।

मंडल कमीशन और आरक्षण

मंडल कमीशन की सिफारिश पर तत्कालीन प्रधानमंत्री वीपी सिंह ने 1990 में ओबीसी को सरकारी नौकरियों में सभी स्तर पर 27 फीसदी आरक्षण देने का फैसला किया। इस फैसले ने भारत, खासकर उत्तर भारत की राजनीतिक बदल कर रख दिया। इसके परिणामस्वरूप 90 के दशक में ओबीसी के राजनीतिक प्रतिनिधित्व में काफी वृद्धि हुई। ओबीसी को एकजुट करने वाली राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी जैसी पार्टियां राजनीति के इस मंडलीकरण के साथ महत्वपूर्ण रूप से आगे बढ़ीं और भारतीय राजनीति में जाति का बोलबाला बढ़ता ही चला गया।

मंडल कमीशन और जातियों की लामबंदी 

जिस मंडल कमीशन की रिपोर्ट को पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने अपने कार्यकाल के दौरान कभी सार्वजनिक नहीं होने दिया।1980 में मंडल कमीशन ने अपनी रिपोर्ट इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली तत्कालीन कांग्रेस सरकार को सौंपी थी और 1984 में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद राजीव गांधी ने भी अपने पूरे पांच साल के कार्यकाल के दौरान इस रिपोर्ट को नहीं छुआ। लेकिन उनके जाने के बाद जाति की राजनीति करने वाले दलों के साथ सरकार बनाने वाले वी पी सिंह ने मंडल कमीशन की रिपोर्ट को लागू कर दिया। इसका सबसे ज्यादा नुकसान कांग्रेस को ही हुआ। कांग्रेस ने पारंपरिक ऊंची जाति का वोट बैंक खो दिया। वहीं विभिन्न जातियों के वोट जाति की राजनीति करने वालों दलों के साथ चले गए। इसका नतीजा ये हुआ कि कई बड़े राज्यों में कांग्रेस का पूरी तरह से सफाया हो गया। और 1989 के बाद से कांग्रेस कभी भी बहुमत का आंकड़ा नहीं छू सकी। गठबंधन के सहारे उसे तीन बार सत्ता में रहने का मौका जरूर मिला। वही कांग्रेस अब जाति की राजनीति कर एक बार फिर से केंद्र की सत्ता में वापस आना चाहती है।

दरअसल आजादी के बाद देश में अनुसूचित जातियों और जनजातियों के लिए जाति आधारित आरक्षण इस आधार पर शुरू किया गया था कि बड़ी संख्या में जातियां लंबे समय से शैक्षिक और आर्थिक रूप से वंचित हैं और उन्हें आरक्षण दे कर समाज की मुख्यधारा में लाया जा सकता है। हालांकि जाति आधारित आरक्षण लागू करने का निर्णय सामाजिक सोच से ज्यादा राजनीतिक मजबूरी से लिया गया था। और इसके लिए संविधान के अनुच्छेद 15 और 16 में सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया गया है।

बहरहाल, मंडल आयोग की रिपोर्ट के बाद ओबीसी के लिए शुरू किए गए आरक्षण को भी सामाजिक विचार से अधिक राजनीतिक मजबूरी से प्रेरित कहा जा सकता है। लोगों को एकजुट करने के बजाय इसने लोगों को जाति के आधार पर विभाजित करने का काम ज्यादा किया। जातियों को खत्म करने में मदद करने के बजाय इसने वास्तव में जाति की पहचान को और मजबूत किया। इसको आधार बनाकर ही राजनीतिक दलों और नेताओं ने जाति की कीमत पर राजनीतिक सीढ़ी चढ़ने और अपने लिए जाति निर्वाचन क्षेत्रों को बनाने में इस्तेमाल किया।

देश में ओबीसी की जनसंख्या को देखते हुए ही तमाम राजनीतिक दल विशेषकर इंडिया गठबंधन 2024 के लोकसभा चुनावों में इस मुद्दे को केंद्र में लाने की कोशिश कर रहा है ताकि चुनाव में उन जातियों का वोट हासिल किया जा सके।

जातिगत जनगणना की मांग नया नहीं

हालांकि सिर्फ इंडिया गठबंधन या कांग्रेस ही ऐसी मांग कर रही हो, ऐसा भी नहीं है। आज भले ही बीजेपी संसद में इस तरह के जातिगत जनगणना पर अपनी राय कुछ और रख रही हो लेकिन 2010 में जब बीजेपी विपक्ष में थी तब उसके नेता खुद इसकी मांग करते थे।

2011 की जनगणना से ठीक पहले 2010 में बीजेपी के तत्कालीन नेता गोपीनाथ मुंडे ने संसद में कहा था कि “अगर इस बार भी जनगणना में हम ओबीसी की जनगणना नहीं करेंगे, तो ओबीसी को सामाजिक न्याय देने में और 10 साल लग जाएंगे और हम उन पर अन्याय करेंगे।“

इतना ही नहीं, पिछली सरकार में जब राजनाथ सिंह गृह मंत्री थे उस वक्त 2021 की जनगणना की तैयारियों का जायजा लेते समय 2018 में एक प्रेस विज्ञप्ति में सरकार ने माना था कि ओबीसी पर डेटा नई जनगणना में एकत्रित किया जाएगा। लेकिन अब सरकार अपने पिछले वादे से संसद में ही मुकर गई।

कुल मिलाकर कहें तो चुनाव में धर्म की तरह ही जाति की भी हमेशा से भूमिका रही है और आज भी है। सभी राजनीतिक दल अपने उम्मीदवार चुनते समय चुनाव क्षेत्र में किस धर्म और जाति की कितनी आबादी है इसका ख्याल हमेशा रखते हैं। दरअसल चुनावों में कई जाति समूह एक ब्लॉक के रूप में मतदान करते हैं और चुनावी लाभ की तलाश में राजनेता उन्हें हर तरह से लुभाने की कोशिश करते हैं। परिणामस्वरूप जो मूल रूप से वंचित समूहों की स्थिति में सुधार करने के लिए एक अस्थायी सकारात्मक कार्य योजना थी वह अब राजनेताओं और राजनीतिक दलों के लिए वोट-हथियाने की कवायद बन गई है।

 

 

 

टैग श्रेणी