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दंगा रोकने की जिम्मेदारी किसकी? और लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए संविधान राज्य को क्या अधिकार देता है?

Mewat Nuh Riots

क्या राज्य की जिम्मेदारी सिर्फ यह कह देने से खत्म हो जाती है कि हर नागरिक की सुरक्षा पुलिस नहीं कर सकती?

क्या राज्य में सद्भाव और मेल-मिलाप का माहौल कायम करने की जिम्मेदारी सरकार, प्रशासन और पुलिस की नहीं होती है?

क्या राज्य में सरकार और उसका पूरा कुनबा सिर्फ और सिर्फ सत्ता सुख भोगने के लिए होता है?

क्या किसी राज्य का सरकारी तंत्र और प्रशासन जनता को उसके हाल पर छोड़ देने के लिए नियुक्त होता है?

और अगर राज्य में कोई अप्रिय घटना या दंगा होता है और उसमें सैकड़ों निर्दोष लोगों की जान चली जाती है तो क्या उसके लिए राज्य की सरकार और प्रशासन जिम्मेदार नहीं होने चाहिए?

तो फिर हरियाणा के मेवात और नूंह में हुए दंगों का जिम्मेदार कौन है? सरकार, प्रशासनिक तंत्र, पुलिस, भड़काऊ भाषण देने वाले लोग या दंगा में शामिल भीड़?

जिस संविधान की दुहाई देकर राजनेता, मंत्री या मुख्यमंत्री पद की शपथ लेते हैं कि वे ईमानदारी और पूरी निष्ठा से राज्य की सुरक्षा और लोक व्यवस्था कायम रखेंगे, वो शपथ लेने के बाद उस प्रतिज्ञा को इतनी आसानी से कैसे भूल जाते हैं और इसे भूलकर अपने राजनीतिक फायदे-नुकसान में कैसे जुट जाते हैं।  

वे यह क्यों भूल जाते हैं कि उसी संविधान के तहत उन्हें अपने कर्तव्यों का निर्वहन करने और राज्य तथा जनता की सुरक्षा के लिए व्यापक अधिकार मिले हुए हैं। लेकिन इन सब से बेफिक्र उन्हें तो बस अपनी वोट बैंक की राजनीति ही समझ में आती है और इसी जोड़-चेत में लगे नेताजी छोड़ देते हैं जनता को उसके अपने हाल पर जीने के लिए और जनता तो बेचारी है ही....

मेवात और नूंह में हुए दंगों की पृष्ठभूमि में आज हम संविधान में कही गई उन बातों की चर्चा करेंगे जो किसी भी राज्य या सरकार को यह ताकत देती है कि वह देश, राज्य, समाज, लोक और उसके किसी भी नागरिक की सुरक्षा के लिए तमाम तरह के एहतियातन कदमों को उठा सकती है। जिसमे अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर दिए जाने वाले अनर्गल और उत्तेजक भाषण जिनसे सामाजिक सौहार्द बिगड़ने की आशंका होती है... को रोकने के साथ ही किसी भी तरह के आक्रमण, दंगा, हिंसा, बलबा, धार्मिक उन्माद या लोक व्यवस्था बिगाड़ने की स्थिति में उचित कार्रवाई करने की शक्ति भी शामिल है... जिसकी वजह से जान माल की हानि की संभावित खतरा पैदा होती है या हो सकती है। आमतौर पर दंगे एकदम से नहीं भड़क जाते बल्कि उनकी पृष्ठभूमि कुछ दिन पहले से  तैयार हो रही होती है। इसके लिए कई कारक जिम्मेदार होते हैं जिनमें से एक महत्वपूर्ण कारण उन भड़काऊ और घृणास्पद भाषणों और नारों का होता है जो एक-दूसरे के प्रति इस्तेमाल होता है।

हमारे संविधान में नागरिकों के मूल अधिकार को सबसे ऊपर रखा गया है। यह माना गया है कि किसी भी नागरिक को जन्म के साथ ही कुछ नैसर्गिक अधिकार मिलते हैं जिसे करने के लिए कोई भी नागरिक पूर्ण रूप से स्वतंत्र होता है। इन नैसर्गिक अधिकारों को संविधान में मूल या मौलिक अधिकार कहा गया है। अब इन मूल अधिकारों में भी वैयक्तिक स्वतंत्रता के अधिकार को सर्वोच्च माना गया है। इसके पीछे यह तर्क दिया गया है कि स्वतंत्रता ही जीवन है। और इसके बिना मनुष्य के व्यक्तित्व का विकास संभव नहीं है।

इस विचार को आधार मानते हुए संविधान के अनुच्छेद 19 से 22 तक में भारत के नागरिकों को स्वतंत्रता संबंधी विभिन्न अधिकार प्रदान किए गए हैं। इनमें अनुच्छेद 19 के तहत भारत के सभी नागरिकों को छह स्वतंत्रताएं प्रदान की गई हैं। जिनमें

वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता

शांतिपूर्वक और बिना हथियार के सम्मेलन करने की स्वतंत्रता

संगम या संघ बनाने की स्वतंत्रता

भारत के राज्यक्षेत्र में कहीं भी आने-जाने की स्वतंत्रता

भारत के राज्यक्षेत्र के किसी भी भाग में रहने और बसने की स्वतंत्रता, और

कोई वृत्ति, उपजीविका, व्यापार या कारोबार करने की स्वतंत्रता

शामिल है।

हालांकि संविधान में यह भी स्पष्ट किया गया है कि ये सभी स्वतंत्रताएं आत्यन्तिक यानी Absolute नहीं हैं। इसका मतलब यह है कि एक व्यवस्थित समाज में ही अधिकारों का अस्तित्व हो सकता है और किसी भी नागरिक को ऐसे अधिकार प्रदान नहीं किए जा सकते, जो पूरे समुदाय या समाज के लिए हानिकारक या खतरनाक हो।

इस बात को ध्यान में रखते हुए संविधान के अनुच्छेद 19 के खंड 2 से 6 के अधीन राज्य की सुरक्षा, लोक-व्यवस्था, शिष्टाचार आदि के हितों की रक्षा के लिए राज्य को निर्बन्धन यानि Restriction लगाने की शक्ति प्रदान की गई है। हाँ, यह जरूरी है कि यह Restriction… Reasonable  होने चाहिए। यानी युक्तियुक्त निर्बन्धन।

अब सवाल उठता है कि Reasonable Restriction क्या है? तो इसे तय करने का अधिकार न्यायालय को दिया गया है और सुप्रीम कोर्ट ने इसके लिए कुछ सामान्य नियम निर्धारित किए हैं। जिनके आधार पर यह तय किया जाता है कि Restriction… Reasonable  है या नहीं।

अब अनुच्छेद 19 (2) के तहत उन प्रावधानों की बात करते हैं जिनके आधार पर नागरिकों की वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। उन्हें दंडित किया जा सकता है। तो इसके तहत

राज्य की सुरक्षा

विदेशी राज्यों के साथ मैत्रीपूर्ण संबंधों के हित में

लोक व्यवस्था (Public Order)

शिष्टाचार या सदाचार के हित में (Decency or Morality)

न्यायालय की अवमानना (Contempt of Court)

मानहानि (Defamation)

किसी अपराध के लिए उकसाना (Incitement to an offence)

भारत की संप्रभुता और अखंडता

आते हैं।

दरअसल, राज्य की सुरक्षा को सर्वोपरि माना जाता है। और यह है भी, क्योंकि राज्य संप्रभू है तो हम आजाद हैं। ऐसे में कोई भी ऐसा कार्य जिससे राज्य में आंतरिक विद्रोह, राज्य के विरुद्ध युद्ध की शुरुआत करती है या कोई भी ऐसा भाषण या अभिव्यक्ति जो हिंसात्मक अपराध करने को उकसाती या प्रोत्साहित करती है और उससे राज्य की सुरक्षा को खतरा पहुंचने की आशंका है तो ऐसे कार्य या अभिव्यक्ति पर Reasonable Restriction के तहत राज्य रोक लगा सकता है। ऐसा करने वाले व्यक्ति को सजा का प्रावधान भी है।

इसी तरह अगर किसी व्यक्ति की गलत या झूठी खबर फैलाने से किसी विदेशी राज्य जिससे हमारे मित्रतापूर्ण संबंध हैं उसमें किसी भी तरह की आपात पहुंचती है तो ऐसे वाक् और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर Reasonable Restriction के तहत रोक लगाई जा सकती है।

यैसे ही अगर किसी भी वाक् या अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के तहत कोई नागरिक इस तरह का भाषण देता है जिससे समाज की शांति व्यवस्था भंग होती है या विधि व्यवस्था बिगड़ने और दंगा-फसाद होने की संभावना बढ़ती है और उससे लोक-व्यवस्था भंग होने की आशंका बनती है तो इस पर Reasonable Restriction के तहत राज्य कार्रवाई कर सकता है। इसमें अव्यवस्था फैलाने की प्रवृत्ति से दिए गए भाषण भी शामिल हैं। ऐसे व्यक्ति के लिए सजा का प्रावधान भी है।

इसी प्रकार ऐसे कथनों या प्रकाशनों पर जिनसे लोक-नैतिकता और शिष्टता पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है तो सरकार उस पर Restriction लगा सकती है।

वहीं न्यायालय अवमानना अधिनियम 1971 के तहत न्यायालय के फैसले, डिक्री, आदेश नहीं मानना और न्यायालय या न्यायाधीशों की सार्वजनिक निंदा करना, उन पर लांछन लगाना, न्यायिक कार्यों में हस्तक्षेप करना या अवरोध खड़ा करना Contempt of Court है और इस पर Restriction है। इसका उल्लंघन करने पर कारावास और दंड दोनों की सजा का प्रावधान है।

संविधान में यह भी प्रावधान है कि कोई भी व्यक्ति या नागरिक अभिव्यक्ति की आजादी के नाम पर लोगों को अपराध करने, दंगा करने या हिंसा करने के लिए नहीं उकसा सकता है। और ना ही ऐसा भाषण दे सकता है जिससे इस तरह की प्रवृत्ति पैदा हो। अगर ऐसा करता है तो इसके लिए कठोर दंड और सजा का प्रावधान है।

इसके साथ ही ऐसा कोई भी कार्य, कथन या प्रकाशन जिससे भारत की अखंडता एवं सम्प्रभुता पर किसी भी तरह से खतरा पैदा होता है तो उस पर Reasonable Restriction के तहत कार्रवाई की जा सकती है।

इसी तरह अनुच्छेद 19 (1) (ख) भारतीय नागरिकों को शांतिपूर्वक बिना हथियार के सभा या सम्मेलन करने की स्वतंत्रता प्रदान करता है। लेकिन अगर किसी सभा या सम्मेलन में शामिल लोग या भीड़ द्वारा इसका उल्लंघन किया जाता है तो वह गैरकानूनी है और उसके लिए सजा का प्रावधान है।

अब एक बार फिर लौटकर मेवात और नूंह के दंगों पर आते हैं। जब सामाजिक सौहार्द और लोक व्यवस्था बनाए रखने के लिए सरकार और प्रशासन को इतने अधिकार मिले हुए हैं तो फिर नूंह में 31 जुलाई को ब्रज मंडल यात्रा निकालने से पहले अलग-अलग सम्प्रदाय के लोगों द्वारा दिए जा रहे भड़काऊ भाषण और फेसबुक, ट्विटर, व्हाट्सएप समेत अन्य सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर किए गए भड़काऊ पोस्ट को रोकने और जो लोग इसमें शामिल थे उन पर कार्रवाई करने में सरकार चूक क्यों गई। मोनू मानेसर, बिट्टू बजरंगी, मामन खान जैसे लोगों पर समय रहते कार्रवाई क्यों नहीं की गई। क्या यह सरकार और तंत्र की विफलता नहीं है।

एक सवाल यह भी उठता है कि जब संविधान अभिव्यक्ति की आजादी देने के साथ-साथ राज्य की सुरक्षा, लोक-व्यवस्था और नागरिकों के जान-माल की रक्षा के लिए इतना संजीदा है और इसके उल्लंघन पर आईपीसी के तहत कठोर कार्रवाई का प्रावधान है तो फिर उसी संविधान की शपथ लेकर सरकारें इतनी असंवेदनशील कैसे हो जाती हैं कि हजारों-हजार की संख्या में उन्मादी भीड़ एक-दूसरे की रक्तपिपासु बन जाती है और प्रशासन और पुलिस हाथ पे हाथ धरे दिखते हैं। उनसे लोक-व्यवस्था काबू में नहीं आती। एक-दूसरे की कमियों को गिनाने और जांच बिठाने की बात कह कर सरकार, प्रशासन और पुलिस सब अपनी-अपनी जिम्मेदारियों से किनारा कर लेते हैं और दंगों की पीड़ित जनता कराहती हुई उसे सुनने और देखने के सिवा कुछ भी करने में विवश और लाचार नजर आती है।

नैतिक रूप से क्या ऐसे सरकार को पद पर बने रहने का अधिकार है जो आती तो है सामाजिक कल्याण, नागरिक सुरक्षा और उत्थान के नाम पर लेकिन काम करती है वोट और जाति की राजनीति को ध्यान में रखकर।

दंगा में किसी भी धर्म या जाति के लोग मरें... मरता तो इंसान ही है। खून-पसीना बहाकर जीवन भर की कमाई जमा-पूंजी पल भर में जलकर स्वाहा हो जाती है और दंगा में पीड़ित व्यक्ति जिंदा लाश बनकर देखता रह जाता है।

एक सवाल यह भी बहुत महत्वपूर्ण है कि दंगाई चाहे वो किसी भी जाति या संप्रदाय के हों....क्या देश और समाज से बड़ा हैं? क्या उन्हें किसी की भी जान लेने, सामाजिक माहौल और सौहार्द बिगाड़ने की अनुमति दी जा सकती है। क्या उनके खिलाफ कड़ा से कड़ा एक्शन लेकर एक नजीर नहीं बनाई जा सकती है कि कोई भी व्यक्ति धर्म या सम्प्रदाय के नाम पर अगर दंगा या हिंसा फैलाने या सामाजिक सौहार्द को बिगाड़ने की कोशिश करेगा तो उसे बख्शा नहीं जाएगा।

इसके साथ ही एक महत्वपूर्ण बात यह भी है अगर अभिव्यक्ति की आजादी के अधिकार का उपयोग धर्म, जाति, सम्प्रदाय के आधार पर लोगों के बीच नफरत फैलाने के लिए करने की अनुमति दी गई तो संविधान और भारतीय समाज की मूल भावना ही बिखर जाएगी और देश अपनी सच्ची भावाना और आत्म खो देगा।

लेकिन आज हमारे राजनीति का स्वरूप और तरीका इतना बिगड़ चुका है और राजनीति इतनी दिग्भ्रमित हो चुकी है कि जाति और वोट के आगे हर इंसाफ बेमानी सा लगने लगा है। आज जाति और सम्प्रदाय आधारित वोट ही हर राजनीतिक निर्णय और सजा की कसौटी बन गया है। अगर दोषी या दंगाई किसी ऐसे जाति या सम्प्रदाय से संबंध रखता है जिसका वोट राजनीतिक पार्टियों के लिए महत्वपूर्ण है तो फिर उसके खिलाफ कार्रवाई करने में हमेशा ढीलापन या निष्क्रियता बरती जाती है। और इसका परिणाम यह होता है कि उस व्यक्ति, जाति या सम्प्रदाय का मनोबल गलत कामों को करने के लिए और ज्यादा बढ़ता ही जाता है।

देश की एकता, राज्य की सुरक्षा और सामाजिक सौहार्द को बचाने और बनाने रखने के लिए यह अति आवश्यक है कि इस तरह के दंगों और हिंसात्मक कार्यों में लिप्त लोगों को धर्म, जाति और संप्रदाय से ऊपर उठकर ऐसी कठोर सजा मिले कि भविष्य में इस तरह के काम करने से पहले उन्हें हजार बार सोचना पड़े। हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि भारत की संस्कृति और सभ्यता सद्भाव, समभाव और सौहार्द पर टिकी है। यह हमारी मजबूती की बुनियाद है। इसे किसी भी कीमत पर बिगड़ने नहीं देना है, नहीं तो हम विश्व शक्ति कभी नहीं बन पाएंगे।

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