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जम्मू-कश्मीर परिसीमन: इतिहास, बदलाव और असर !

jammu kashmir delimitation

जम्मू-कश्मीर को विशेष दर्जा प्रदान करने वाला अनुच्छेद 370 को केंद्र सरकार द्वारा खत्म करने के बाद, इस संवेदनशील सूबे को देश की मुख्यधारा से जोड़ने और लोकतांत्रिक प्रक्रिया के लिए ठोस जमीन तैयार करने की कोशिश कई स्तरों पर हो रही है। इन कोशिशों में जम्मू-कश्मीर में निर्वाचन क्षेत्रों के लिए नया परिसीमन भी शामिल है। इसके तहत जम्मू-कश्मीर में लोकसभा और विधानसभा सीटों के परिसीमन के लिए मार्च 2020 में गठित जम्मू-कश्मीर परिसीमन आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट सरकार को सौंप दी। चुनाव आयोग ने इसके आधार पर जम्मू-कश्मीर विधानसभा और लोकसभा सीटों को लेकर नोटिफिकेशन भी जारी कर दिया। परिसीमन आयोग के सुझावों को लागू करने के बाद जम्मू-कश्मीर की राजनीति में काफी बदलाव आने की उम्मीद है। ऐसे में सवाल यह उठता है कि जम्मू-कश्मीर में परिसीमन कराने की जरूरत क्यों पड़ी और इसकी वजह से जम्मू-कश्मीर में किस तरह के बदलाव देखने को मिलेंगे... साथ ही भविष्य में जम्मू-कश्मीर की आवाम और वहां की राजनीति पर इसके क्या असर होंगे।

परिसीमन आयोग और संविधान में प्रावधान

देश को आजादी मिलने के बाद हमारे संविधान निर्माताओं ने इसे नई बुलंदियों तक ले जाने के लिए लोकतांत्रिक व्यवस्था की राह चुनी और एक ऐसे लचीले संविधान का निर्माण किया, जो बदलते वक्त और परिस्थितियों के मुताबिक देश की उम्मीदों पर खरा उतर सके। इसे सुचारू रूप से चलाने के लिए स्वतंत्र लोकतांत्रिक संस्थाओं का निर्माण किया गया, जो निष्पक्ष रूप से लोकतांत्रिक शासन व्यवस्था को मजबूती प्रदान करती रहे।

इसी सोच के साथ देश में निष्पक्ष चुनावों को संपन्न कराने के लिए निर्वाचन आयोग का गठन किया गया, तो जनसंख्या में होने वाले परिवर्तन को ध्यान में रखते हुए अलग-अलग लोक सभा और विधान सभाओं की सीमाओं के निर्धारण के लिए विभिन्न परिसीमन आयोगों के गठन का प्रावधान भी किया गया। इसके लिए संविधान में बकायदा अनुच्छेद 82 जोड़कर यह प्रावधान किया गया कि

 “प्रत्येक जनगणना के बाद लोक सभा में स्थानों के आबंटन और प्रत्येक राज्य के निर्वाचन क्षेत्रों में विभाजन का पुन: समायोजन किया जाएगा” ।

इसके तहत संसद आमतौर पर हर दस साल के बाद जनसंख्या में हुए बदलाव के आधार पर अलग-अलग विधान सभा और लोक सभा क्षेत्रों का निर्धारण करने के लिए एक परिसीमन आयोग का गठन करती है। जो निर्वाचन क्षेत्र की सीमाओं के सीमांकन की प्रक्रिया को अंजाम देता है। इस आयोग का आदेश मानना कानूनी रूप से अनिवार्य है और इसका निर्णय किसी भी अदालत के जांच के अधीन नहीं

होता है। दरअसल, परिसीमन आयोग को भारतीय सीमा आयोग भी कहा जाता है। आयोग निर्धारित सीटों की संख्या में तब्दिली नहीं कर सकता बल्कि जनगणना के बाद सही आंकड़ों से सीटों की सीमाएं और अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए भी सीटों की संख्या आरक्षित करता है। परिसीमन आयोग की सिफारिशें लोक सभा और विधान सभाओं के सामने पेश की जाती है। आयोग की सिफारिशों में किसी भी तरह के संशोधन की अनुमति नहीं होती है क्योंकि इस संबंध में सूचना राष्ट्रपति की ओर से जारी की जाती है।

राष्ट्रीय स्तर पर कब-कब गठित हुआ परिसीमन आयोग ?

भारत में परिसीमन आयोगों की बात करें तो सबसे पहले परिसीमन आयोग का गठन 1952 में किया गया था। इसके बाद 1963, 1973 और 2002 में परिसीमन आयोग का गठन किया गया। हालांकि, 2002 में संविधान में विशेष रूप से बदलाव करते हुए 2026 तक निर्वाचन क्षेत्रों के परिसीमन में संशोधन नहीं करने के आदेश दिए गए। इसके पीछे यह तर्क दिया गया कि 2026 तक राज्यों में जनसंख्या वृद्धि कुछ हद तक समान होगी।

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन क्यों जरूरी हुआ ?

जहाँ तक बात जम्मू-कश्मीर में हुए परिसीमन की है तो... पांच अगस्त 2019 को केंद्र द्वारा जम्मू-कश्मीर का विशेष दर्जा खत्म करने और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 में विधानसभा सीटें बढ़ाने के बाद परिसीमन जरूरी हो गया था।

केंद्र सरकार ने पुनर्गठन अधिनियम में निर्धारित विधानसभा सीटों के सीमांकन के लिए 6 मार्च 2020 को एक परिसीमन आयोग का गठन किया। जिसकी अध्यक्ष सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश जस्टिस रंजना प्रकाश देसाई को बनाया गया। इनके साथ ही इसके पदेन सदस्य मुख्य निर्वाचन आयुक्त सुशील चंद्रा और जम्मू-कश्मीर के राज्य चुनाव आयुक्त के के शर्मा थे।

परिसीमन आयोग ने अपनी अंतिम रिपोर्ट 2011 की जनगणना और भौगोलिक परिस्थितियों के आधार पर तैयार किया। इसमें मुश्किल भौगोलिक स्थिति, संचार के साधन और बुनियादी सुविधाओं का ध्यान भी रखा गया।

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन से पहले सीटों की संख्या

परिसीमन से पहले जम्मू-कश्मीर में 111 सीटें थी। जिनमें 46 कश्मीर में, 37 जम्मू में और चार लद्दाख में थीं। इसके अलावा 24 सीटें पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के लिए थीं। जब लद्दाख को जम्मू-कश्मीर से अलग कर दिया गया तब यहां सिर्फ 107 सीटें हीं रह गईं। जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 में इन सीटों को बढ़ाकर 114 कर दिया गया है। इनमें 90 सीटें जम्मू-कश्मीर के लिए और 24 सीटें पीओके के लिए हैं।

परिसीमन के बाद सीटों की संख्या में बदलाव

आयोग ने परिसीमन अधिनियम 2002 की धारा 9(1)(ए) और जम्मू-कश्मीर पुनर्गठन अधिनियम 2019 की धारा 60(2)(बी) के प्रावधानों को ध्यान में रखते हुए अपने अंतिम रिपोर्ट में सात विधानसभा सीटें बढ़ाई है। इसमें कश्मीर में एक सीट और जम्मू में छह सीट बढ़ाई गई है। इस तरह जम्मू-कश्मीर में विधानसभा की कुल सीटों की संख्या 90 हो गई है। इसके तहत कश्मीर क्षेत्र में सीटों की संख्या बढ़कर 47 हो गई हैं जबकि जम्मू क्षेत्र में 43.....।......24 सीटें पाकिस्तान के कब्जे वाले जम्मू-कश्मीर के लिए छोड़ी गई है। हालांकि पीओके के लिए आरक्षित सीटें परिसीमन का हिस्सा नहीं हैं और न ही विधान सभा की कुल सदस्यता के रूप में उनकी गिनती की जाएगी।

अनुसूचित जनजाति को पहली बार आरक्षण

इसके साथ ही पहली बार अनुसूचित जनजाति के लिए नौ विधानसभा सीटें आरक्षित की गई हैं। जबकि अनुसूचित जाति के लिए पहले की तरह ही सात विधानसभा सीटें आरक्षित रखी गई हैं।

जम्मू-कश्मीर के सबसे बड़े अनुसूचित जनजाति समुदाय में शुमार गुज्जर-बकरवाल पिछले तीन दशकों से इस आरक्षण की मांग कर रहे थे। लेकिन उनकी मांगों को लंबे समय से नजरअंदाज किया जाता रहा।

कश्मीरी पंडितों के लिए दो सीट रिजर्व

आयोग ने नई विधान सभा में कश्मीरी विस्थापितों में से कम से कम दो सदस्यों को नामित करने की सिफारिश की है। साथ ही पीओजेके यानी पाक अधिकृत जम्मू-कश्मीर के विस्थापितों को भी विधानसभा में जगह देने की बात कही है। आयोग ने यह भी कहा है कि इन नामित सदस्यों को विधानसभा में पुडुचेरी विधानसभा के सदस्यों की तरह ही वोट देने का अधिकार मिलेगा।

लोक सभा सीटों का पुनर्निधारण

आयोग ने जम्मू-कश्मीर की लोकसभा सीटों का भी पुनर्निर्धारण किया। इस क्षेत्र में कुल संसदीय सीटें पांच ही रहेंगी। लोक सभा की सभी सीटें सामान्य होगी और प्रत्येक लोक सभा में 18 विधानसभा क्षेत्र होंगे। अनंतनाग और जम्मू की सीटों की सीमाओं में बदलाव किया गया है। नई व्यवस्था के तहत अनंतनाग सीट को अब अनंतनाग-राजौरी पुंछ के नाम से जाना जाएगा।

अनुच्छेद 370 के खत्म होने से पहले परिसीमन की स्थिति

दरअसल, अगस्त 2019 में जम्मू-कश्मीर की विशेष स्थिति खत्म होने से पहले तक, वहां परिसीमन की व्यवस्था देश के बाकी हिस्सों से अलग थी। अगस्त 2019 तक जम्मू-कश्मीर में लोकसभा सीटों का परिसीमन भारत के संविधान के मुताबिक किया जाता था लेकिन विधान सभा सीटों का परिसीमन जम्मू-कश्मीर संविधान और जम्मू-कश्मीर लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम 1957 द्वारा राज्य सरकार करती थी। केंद्र सरकार ने अगस्त 2019 में अनुच्छेद 370 को हटाकर इस व्यवस्था को समाप्त कर दिया। अब जम्मू-कश्मीर के केंद्र शासित प्रदेश बनने के बाद दोनों ही जिम्मेदारियां केंद्र सरकार के पास है।

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन का इतिहास

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन के इतिहास की बात करें तो आजादी से पहले जब यह रियासत हुआ करता था, तब पहली बार 1932 में महाराजा हरी सिंह ने सर बुरजोर दलाल के नेतृत्व में एक मताधिकार कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी ने 75 सदस्यीय ‘प्रजा सभा’- तब जम्मू-कश्मीर विधान सभा को ‘प्रजा सभा’ के नाम से जाना जाता था- के गठन का प्रस्ताव दिया। इसमें 33 सदस्यों को प्रत्यक्ष चुनाव के जरिए, 30 सदस्यों को नामित और 12 शासन के आधिकारिक सदस्यों को रखने की बात कही गई थी। समिति ने सीमित संख्या में 21 साल से ऊपर के लोगों को मत देने की सिफारिश की थी। चुनाव के जरिए चुने जाने वाले 33 सदस्यों में से 21 मुस्लिम, 10 हिन्दू और 2 सिख समुदाय को दिया गया। क्षेत्र के हिसाब से बात करें तो 33 में से 16 सीट कश्मीर प्रोविंस को और 17 सीट जम्मू प्रोविंस को बांटा गया। जबकि लद्दाख और गिलगित से नामित सदस्य लेने की बात कही गई।

सर बुरजोर दलाल कमेटी की सिफारिश को लागू करने के लिए 1933 में भारतीय प्रशासनिक सेवा के रिटायर्ड अधिकारी इवो इलियट ने पहली बार जम्मू-कश्मीर में परिसीमन को अंजाम दिया। उसने पूरे क्षेत्र को 33 विधान सभा क्षेत्रों में बांटा। इसी आधार पर पहली बार जम्मू-कश्मीर में 1934 में प्रजा सभा के लिए चुनाव हुए।

आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर में सीटों का बंटवारा

जब देश आजाद हो गया तब संविधान ने भारत के निर्वाचन आयोग को पूरे देश के साथ जम्मू-कश्मीर में भी लोक सभा के साथ-साथ विधान सभा और विधान परिषद की चुनाव संपन्न कराने की शक्ति दिया। 1951 में जब जम्मू-कश्मीर विधानसभा के गठन की प्रक्रिया शुरू हुई, तब कश्मीर घाटी को 43 विधानसभा सीटें, जम्मू को 30 सीटें और लद्दाख को सिर्फ 2 विधानसभा सीटें मिलीं। इस तरह कुल मिलाकर जम्मू-कश्मीर में 75 विधानसभा सीटें तय की गईं। और 1995 तक जम्मू-कश्मीर में यही स्थिति रही।

आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर में परिसीमन

वहीं आजादी के बाद जम्मू-कश्मीर में 1963, 1973 और आखिरी बार 1995 में परिसीमन किया गया। 1995 में न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) के के गुप्ता की अध्यक्षता में परिसीमन आयोग गठित किया गया था। तब वहां राष्ट्रपति शासन लागू था। यह परिसीमन 1981 की जनगणना पर आधारित था। हालांकि, इससे दो साल पहले जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन गवर्नर जगमोहन ने 1993 में अस्थायी तौर पर एक परिसीमन कराया था। उसमें जम्मू कश्मीर को 87 विधानसभा क्षेत्रों में बांटा गया था। 1995 में भी परिसीमन के बाद राज्य में विधानसभा सीटों की कुल संख्या 75 से बढ़कर 87 कर दी गई। परिसीमन आयोग 1995 की रिपोर्ट के मुताबिक कुल 111 सीटों का निर्धारण किया गया। जिसमें 47 सीटें कश्मीर क्षेत्र के लिए, 37 सीटें जम्मू क्षेत्र के लिए और 4 सीटें लद्दाख क्षेत्र के लिए बनाई गईं। इस तरह जम्मू-कश्मीर में विधान सभा की 12 सीटें बढ़ा दी गईं। इसके साथ ही संविधान के सेक्शन 47 के मुताबिक 24 सीटें पाकिस्तान अधिकृत कश्मीर के लिए आरक्षित रखी गई।

2026 तक परिसीमन पर लगी थी रोक

तय नियम के मुताबिक जम्मू-कश्मीर में अगला परिसीमन 2005 में होना था, लेकिन 1991 में राज्य में कोई जनगणना नहीं हुई और 2001 के जनगणना के बाद राज्य सरकार द्वारा कोई परिसीमन आयोग का गठन नहीं किया गया। क्योंकि साल 2002 में नेशनल कांफ्रेंस की फारूक अब्दुल्ला की सरकार ने विधानसभा में एक कानून लाकर परिसीमन को साल 2026 तक रोक दिया। इसके लिए जम्मू एंड कश्मीर रिप्रेजेंटेशन ऑफ दी पीपल एक्ट 1957 (Jammu and Kashmir Representation of the people Act 1957) और कश्मीर के संविधान के सेक्शन 42 (3) में बदलाव किया गया। सेक्शन 42(3) में हुए बदलाव के मुताबिक साल 2026 के बाद जब तक जनसंख्या के सही आंकड़े सामने नहीं आते तब तक विधानसभा की सीटों में बदलाव करने पर रोक रहेगी। इस कानून को जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में चुनौती दी गई लेकिन दोनों न्यायालय ने स्थगन को बरकरार रखा।

जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अब तक कश्मीर क्षेत्र का दबदबा

दरअसल, जम्मू-कश्मीर की राजनीति में अब तक कश्मीर क्षेत्र का ही दबदबा रहा है। क्योंकि विधानसभा में कश्मीर की सीटें जम्मू के मुकाबले ज्यादा हैं। अब तक जम्मू-कश्मीर के कुल 87 विधानसभा सीटों में से बहुमत के लिए 44 सीटों की जरूरत होती थी। वहीं कश्मीर में 46 सीटें थी जहां से ही पूर्ण बहुमत हो जाता था। यही वजह है कि जम्मू-कश्मीर के ज्यादातर मुख्यमंत्री अभी तक कश्मीर के ही रहे हैं। गुलाम नबी आजाद पहले ऐसे शख्स थे जो जम्मू के थे और मुख्यमंत्री बने। सीटों की इस व्यवस्था को लेकर जम्मू-कश्मीर के लोगों द्वारा कई बार आवाज उठाई जा चुकी थी।

26 साल पहले हुआ था जम्मू-कश्मीर में परिसीमन 

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन 26 साल पहले हुआ था। 1995 में 1981 की जनगणना के आधार पर केवल 14 जिलों में परिसीमन हुआ था। तब सिर्फ 58 तहसीलें हुआ करती थीं। जबकि वर्तमान में जम्मू-कश्मीर में जिलों की संख्या 20 है और 270 तहसीलें हैं। अगर जनसंख्या की बात करें तो 1981 की जनगणना के अनुसार जम्मू-कश्मीर की जनसंख्या करीब 60 लाख थी, जिसमें डेढ़ लाख लद्दाख की जनसंख्या भी शामिल थी। वहीं 2011 की जनगणना के मुताबिक जम्मू-कश्मीर की जनसंख्या एक करोड़ 22 लाख से ज्यादा है। इसमें लद्दाख की करीब पौने तीन लाख जनसंख्या शामिल नहीं है। 2011 की जनसंख्या के मुताबिक एक विधान सभा की औसत जनसंख्या एक लाख 36 हजार के करीब है। जनसंख्या के लगातार बढ़ने से 1995 के बाद कई विधानसभा क्षेत्रों की सीमाएं एक जिले से दूसरे जिले तक चली गई थी। ऐसे में प्रत्येक विधान सभा की जनसंख्या और क्षेत्रफल के हिसाब से भी सीमांकन जरूरी हो जाता है।

दरअसल, देश के अलग-अलग इलाकों के साथ ही एक ही राज्य के अंदर विभिन्न निर्वाचन क्षेत्रों में जनसंख्या की असमान वृद्धि को संतुलित करने और क्षेत्रफल के हिसाब से सीटों का निर्धारण करने के लिए एक निश्चित अंतराल पर परिसीमन जरूरी है। जिसमें सामान्य और अनु. जाति और जनजाति के लिए सीटें तय होती हैं। इसके साथ ही लोगों के एक स्थान से दूसरे स्थान खासकर ग्रामीण इलाकों से शहरी क्षेत्रों की ओर लगातार प्रवास की वजह से भी एक ही राज्य के भीतर अलग-अलग आकार के चुनावी क्षेत्र बन जाते हैं। इन्हें एक समान आकार देने और भौगोलिक रूप से समरूपता प्रदान करने के लिए भी परिसीमन जरूरी हो जाता है। और सबसे बढ़कर एक मजबूत राजनीतिक प्रणाली और लोकतांत्रिक व्यवस्था में जनसंख्या के समान खंडों को समान प्रतिनिधित्व देने के लिए समय-समय पर परिसीमन बेहद जरूरी है। और परिसीमन आयोग इस काम को बखूबी अंजाम देता है।

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