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कॉप-26 सम्मेलन: जलवायु परिवर्तन की चुनौतियां, ग्लासगो एजेंडा और आगे की राह

COP26

दुनिया भर में तूफान, बाढ़ और जंगल में आग की घटना दिनोंदिन तेजी से बढ़ती जा रही है। वायु प्रदूषण लाखों लोगों के स्वास्थ्य को गंभीर रूप से प्रभावित कर रहा है। मौसम में अप्रत्याशित बदलाव की वजह से लाखों लोगों के रहने और आजीविका पर गंभीर संकट खड़ा हो गया है। तमाम कोशिशों के बावजूद स्थितियां दिन प्रतिदिन और भयावह ही होती जा रही है। जलवायु परिवर्तन के इस विनाशकारी प्रभाव पर रोक लगाने और इसके लिए प्रभावी कदम उठाने के लिए 31 अक्टूबर से 12 नवंबर, 2021 तक स्कॉटलैंड के ग्लासगो में 26वां संयुक्त राष्ट्र जलवायु परिवर्तन सम्मेलन यानी कॉप-26 का आयोजन हो रहा है। संयुक्त राष्ट्र के निर्देशन में होने वाला यह सम्मेलन वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के लिए काफी महत्वपूर्ण है।

धरती का तापमान 2 डिग्री बढ़ने पर मच जाएगी तबाही  

धरती का तापमान अगर 2 डिग्री बढ़ जाएगा तो क्या होगा? आम लोगों से लेकर प्रकृति पर इसका काफी भयावह असर पड़ेगा। इसकी वजह से दुनिया की एक तिहाई आबादी नियमित रूप से भीषण गर्मी की चपेट में आ जाएगी। इससे स्वास्थ्य समस्याएं और गर्मी से होने वाली मौतें आज की तुलना में काफी बढ़ जाएगी। तकरीबन सभी गर्म पानी के प्रवाल भित्तियां नष्ट हो जाएंगी और आकर्टिक सागर में मौजूद सभी बर्फ एक दशक में पिघल जाएंगे। यही नहीं, इसके विनाशकारी प्रभाव से वन्यजीव और उनसे जुड़े प्राणियों के अस्तित्व पर संकट खड़ा हो जाएगा।

धरती का तापमान 1.5 डिग्री बढ़ने पर क्या होगा ?  

ग्लोबल वार्मिंग में 1.5 डिग्री सेल्सियस तक की बढ़ोत्तरी का परिणाम भी कोई बहुत सुखद नहीं होगा, फिर भी 2 डिग्री सेल्सियस की तुलना में कम भयावह और कम गंभीर होगा। भोजन और पानी की कमी का जोखिम कम होगा, आर्थिक विकास के लिए कम जोखिम उठाना पड़ेगा और विलुप्त होते प्राणियों के खत्म होने की संभावना कम होगी। वायु प्रदूषण की वजह से मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाला असर, गंभीर बीमारियां, कुपोषण और भीषण गर्मी से मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले खतरों की आशंका भी कम होगी। यही वजह है कि वार्मिंग की डिग्री का हर अंश मायने रखता है... और संयुक्त राष्ट्र समेत दुनिया के तमाम देश धरती के तापमान को 1.5 डिग्री तक बनाए रखने की संभावना को तलाश रहे हैं और इसके लिए लगातार प्रयासरत हैं। इस दिशा में संयुक्त राष्ट्र के निर्देशन में होने वाला कॉप सम्मेलन और वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से निपटने के उसके प्रयास काफी महत्वपूर्ण है।

जलवायु परिवर्तन से धरती को बचाने की पहल और स्टॉकहोम सम्मेलन

दरअसल, जलवायु परिवर्तन से धरती को बचाने की पहल 20वीं सदी के उत्तरार्द्ध में तब शुरू हुई जब दुनिया के अनेक जागरूक राष्ट्र एकजुट होकर इस दिशा में प्रयास करने को सहमत हुए। इसके लिए 1972 में स्वीडन के शहर स्टॉकहोम में संयुक्त राष्ट्र द्वारा 5 से 16 जून तक विश्व का पहला अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन आयोजित किया गया। इस सम्मेलन में विश्व के 119 देशों ने संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) में हिस्सा लिया और एक धरती के सिद्धांत को अपनाकर एक पर्यावरण संरक्षण का मताधिकार पत्र प्रकाशित किया। जिसे स्टॉकहोम घोषणा के नाम से जाना जाता है। इसी सम्मेलन में हर साल 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की बात तय हुई।

Intergovernmental Panel on Climate Change की स्थापना

जलवायु परिवर्तन की गंभीरता को देखते हुए 1988 में संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) और विश्व मौसम विज्ञान संगठन (WMO) द्वारा संयुक्त रूप से आईपीसीसी यानी Intergovernmental Panel on Climate Change की स्थापना की गई। आईपीसीसी का मुख्य काम वर्तमान और भविष्य में पर्यावरण, आजीविका और अर्थव्यवस्था पर जलवायु परिवर्तन के कारण होने वाले प्रभावों पर रिपोर्ट तैयार करना है ताकि संबंधित राष्ट्र जलवायु संबंधी नीतियां बनाते समय उसका फायदा उठा सकें।

पृथ्वी सम्मेलन: 1992

इस कड़ी में 1992 में ब्राजील के शहर रियो डि जेनेरो में पृथ्वी सम्मेलन का आयोजन हुआ, जो एक मील का पत्थर साबित हुआ। पृथ्वी सम्मेलन में शामिल 173 देशों के प्रतिनिधियों के बीच पर्यावरण की रक्षा के लिए एक व्यापक संधि पर सहमति हुई जिसे युनाइटेड नेशंस फ्रेमवर्क कन्वेंशन ऑन क्लाइमेट चेंज यानी UNFCCC कहा जाता है। यूएनएफसीसीसी का मकसद वायुमंडल में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को नियंत्रित करना है ताकि जलवायु परिवर्तन से पारिस्थितिक तंत्र प्रभावित न हो, कृषि उत्पादन को खतरा न हो और आर्थिक विकास सतत तरीके से चलता रहे।

Conference of Parties (COP) का गठन

रियो शिखर सम्मेलन में शुरू हुए जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र फ्रेमवर्क कन्वेंशन 21 मार्च, 1994 से अस्तित्व में आ गया। इस संधि पर हस्ताक्षर करने वाले देशों को पार्टियों के रूप में जाना जाता है। इसलिए इन देशों के सम्मेलन को कॉप यानी कॉन्फ्रेंस ऑफ द पार्टीज (COP- Conference of the Parties) कहते हैं। वर्तमान में कॉप में 197 पार्टीज हैं, जिनमें 196 देश और एक यूरोपियन यूनियन शामिल है। यूएनएफसीसीसी का सचिवालय जर्मनी के बॉन में है।

Conference of Parties (COP) का पहला सम्मेलन

संयुक्त राष्ट्र के समर्थन से जलवायु परिवर्तन के संबंध में एक समन्वित दृष्टिकोण और कार्रवाई विकसित करने के लिए 1995 से हर साल कॉप सम्मेलन का आयोजन किया जाता है। कॉप की पहली बैठक 1995 में बर्लिन में हुई, जिसे कॉप-1 कहा गया। सालों से चली आ रही इन बैठकों में 1997 में हुए क्योटो प्रोटोकॉल और 2015 में हुए पेरिस समझौता का विशेष महत्व है। इन सम्मेलनों में वैश्विक स्तर पर ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कटौती का लक्ष्य तय किया गया।

क्योटो प्रोटोकॉल और ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी का प्रस्ताव

दिसंबर 1997 में जापान के क्योटो शहर में हुए कॉप के तीसरे सम्मेलन में यूएनएफसीसीसी ने ऐतिहासिक समझौते को स्वीकार किया। राष्ट्रों के बीच हुए संधि को क्योटो प्रोटोकॉल कहा गया। 183 देशों और यूरोपियन यूनियन ने क्योटो प्रोटोकॉल की पुष्टि की। क्योटो प्रोटोकॉल के तहत छह प्रमुख ग्रीनहाउस गैसों- कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन, नाइट्रस ऑक्साइड, हाइड्रोक्लोरोफ्लोरो कार्बन, परफ्लोरो कार्बन, सल्फर हेक्साफ्लोराइड के उत्सर्जन को नियंत्रित करना था। इसमें ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 1990 के स्तर से अमेरिका को 7 फीसदी, कनाडा, जापान, पोलैंड और हंगरी को 6 फीसदी, यूरोपीय संघ को 8 फीसदी कम करना था। वहीं, इसके मुताबिक नॉर्वे एक फीसदी, ऑस्ट्रेलिया 8 फीसदी और आइसलैंड 10 फीसदी तक अपना उत्सर्जन बढ़ा सकते थे।

क्योटो प्रोटोकॉल और कार्बन क्रेडिट

अमेरिका ने क्योटो अधिवेशन में कार्बन व्यापार यानी कार्बन क्रेडिट के लिए पहल की। इसके तहत तय सीमा से कम उत्सर्जन करने वाले देश, अधिक उत्सर्जन करने वाले देशों से उत्सर्जन व्यापार परमिट खरीद सकते थे। इसके अलावा यदि कोई विकसित देश अपने उत्सर्जन में कमी के लक्ष्यों को हासिल करने में विफल रहती है तो वह वित्त या तकनीक के हस्तांतरण से ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी करने के लिए विकासशील देश की मदद कर सकता है। इस तरीके से वह देश कार्बन क्रेडिट प्राप्त कर सकता है। क्योटो प्रोटोकॉल 16 फरवरी 2005 से लागू हुआ। अमेरिका ने क्योटो प्रोटोकॉल के स्तर तक ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को लाने के लिए 2008 से 2013 के बीच के पांच सालों की समय सीमा को तय किया। हालांकि पहला चरण 2008 से शुरू होकर 2012 में समाप्त हो गया। वहीं, दूसरा चरण 2013 से 2020 तक के लिए तय किया गया था। दूसरे चरण में कार्बन उत्सर्जन को 18 फीसदी तक कम करना था।

क्योटो प्रोटोकॉल: उत्सर्जन में कमी का लक्ष्य नहीं हुआ हासिल

तमाम कोशिशों और कॉप सम्मेलनों के आयोजन के बावजूद उद्योगों पर निर्भर रहने वाले अधिकांश देश उत्सर्जन में कमी के अपने शुरुआती वादों को पूरा नहीं कर पाए। यही नहीं, उन्होंने इस काम में वित्तीय और तकनीकी मदद करने की अपनी प्रतिबद्धता को भी पूरा नहीं किया। 

जलवायु संकट से निपटने के लिए कॉप-21 का आह्वान

जलवायु संकट को देखते हुए सितंबर 2014 में संयुक्त राष्ट्र के तत्कालीन महासचिव बान की-मून ने जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए दिसंबर 2015 में पेरिस में होने वाले कॉप-21 (COP21) में दुनिया के सभी राष्ट्रों के प्रमुखों, व्यापार और वित्त से जुड़े लोगों और संस्थाओं के साथ ही नागरिक समाज और स्थानीय नेताओं को आमंत्रित किया।

कॉप-21 सम्मेलन: 2015

बढ़ते जलवायु संकट से निपटने के लिए 2015 में कॉप-21 सम्मेलन के दौरान हुए पेरिस समझौता एक मील का पत्थर है। इस सम्मेलन में 195 देशों और यूरोपियन यूनियन ने 12 दिसंबर 2015 को जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए कम कार्बन उत्सर्जन के साथ ही बेहतर भविष्य की दिशा में कार्रवाई करने पर सहमति जताई। पेरिस समझौता के दौरान पहली बार सभी देश अपनी ऐतिहासिक, वर्तमान और भविष्य की जिम्मेदारियों के आधार पर एक साझा उद्देश्य पर काम करने के लिए सहमत हुए।

पेरिस समझौता क्या है?

2015 में हुए पेरिस समझौते के तहत इस सदी में वैश्विक तापमान वृद्धि को औद्योगिक काल के पूर्व स्तर से 2 डिग्री सेल्सियस कम रखने और 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लिए विशेष प्रयास करने का लक्ष्य निर्धारित किया गया था। चार नवंबर 2016 को यह समझौता लागू हो गया। इसके जरिए 21वीं सदी के मध्य यानी साल 2050 तक नेट जीरो यानी कार्बन उत्सर्जन में तटस्थता हासिल करने का लक्ष्य रखा गया। पेरिस समझौते में विकसित देशों ने जलवायु परिवर्तन के खिलाफ लड़ाई में कमजोर और जरूरतमंद देशों की मदद करने की बात पर सहमति जताई। इस सम्मेलन में यह भी तय हुआ कि प्रत्येक राष्ट्र हर पांच साल बाद एक नई रूपरेखा के साथ आएंगे जो उत्सर्जन में कमी के प्रति उनकी प्रतिबद्धता और कामकाज को दर्शाएगा। पेरिस समझौते के तहत दुनिया के तमाम देश कार्बन उत्सर्जन में कमी लाने के अपने लक्ष्य निर्धारित किए थे जिन्हें राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान यानी Nationally Determined Contributions (NDCs) के रूप में जाना जाता है। इस लक्ष्य को 2030 तक पूरा करना है। लेकिन समझौते पर हस्ताक्षर के बावजूद पूरी दुनिया में पेरिस समझौते के लक्ष्यों के उलट ईंधन जलाए जा रहे हैं और विकास के नाम पर पेड़-जंगल काटे जा रहे हैं। ऐसे में सदी के अंत तक तापमान को 1.5 डिग्री सेल्सियस तक सीमित रख पाना काफी मुश्किल दिख रहा है। अगर हालात यही रहें तो अलबत्ता इस सदी के अंत तक वैश्विक तापमान में 3 डिग्री सेल्सियस की बढ़ोत्तरी से इनकार नहीं किया जा सकता है। दरअसल, ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में 27 फीसदी के साथ चीन पहले और 15 फीसदी के साथ अमेरिका दूसरे स्थान पर है। अगर इन देशों द्वारा ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी नहीं की जाएगी तो समझौते के लक्ष्यों को हासिल करना बेहद मुश्किल होगा।

पेरिस समझौता और भारत का लक्ष्य

भारत ने अप्रैल 2016 में औपचारिक रूप से पेरिस समझौते पर हस्ताक्षर किया था। समझौते के तहत भारत ने अपने लिए जो लक्ष्य निर्धारित किए उनमे, NDC में सकल घरेलू उत्पाद उत्सर्जन में 2005 के स्तर की तुलना में 2030 तक 33-35 फीसदी तक कमी करना है। हालांकि, भारत ने अपने इस लक्ष्य का करीब 60 फीसदी हिस्सा 2019 में ही हासिल कर चुका है। इसलिए यह उम्मीद है कि 2025 तक वह इस लक्ष्य को आसानी से हासिल कर लेगा। इसके साथ ही दूसरा लक्ष्य कुल बिजली स्थापित करने की क्षमता का 40 फीसदी गैर-जीवाश्म ईंधन आधारित ऊर्जा स्रोतों पर आधारित करना है। इसके अलावा भारत को 2030 तक अतिरिक्त वन और वृक्षारोपण के जरिए 2.5 से 3 अरब टन कार्बन डाइऑक्साइड के बराबर कार्बन सिंक – एक प्राकृतिक वातावरण जो कार्बन डाइऑक्साइड को वायुमंडल से अवशोषित करने की क्षमता रखता है- का निर्माण करना।

जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए भारत के प्रयास

भारत ने जलवायु परिवर्तन पर राष्ट्रीय कार्ययोजना की शुरुआत साल 2008 में किया था। इसका मकसद जनता के प्रतिनिधियों, सरकार की अलग-अलग एजेंसियों, वैज्ञानिकों, उद्योग और समाज के अलग-अलग समुदायों को जलवायु परिवर्तन से पैदा हो रहे खतरे और उससे मुकाबला करने के उपायों के बारे जागरूक करना है। इस योजना के तहत आठ राष्ट्रीय मिशन हैं। इनमें राष्ट्रीय सौर मिशन, राष्ट्रीय संवर्धित ऊर्जा बचत मिशन, सुस्थिर निवास पर राष्ट्रीय मिशन, राष्ट्रीय जल मिशन, राष्ट्रीय हिमालयी पारिस्थितिकी तंत्र परिरक्षण मिशन, राष्ट्रीय हरित भारत मिशन, राष्ट्रीय सतत कृषि मिशन और राष्ट्रीय जलवायु परिवर्तन रणनीतिक ज्ञान मिशन शामिल है।

भारत और अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन

पेरिस समझौता और NDC के तहत स्वनिर्धारित लक्ष्यों को हासिल करने के लिए भारत ने 450 गीगावाट हरित ऊर्जा, ग्रीन हाइड्रोजन मिशन, ई-मोबिलिटी जैसी कई बड़ी योजनाएं शुरू की है जो अगले दस सालों में उत्सर्जन में काफी कमी लाएंगी। भारत और फ्रांस ने पेरिस जलवायु सम्मेलन के दौरान ही नवंबर 2015 में अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन की शुरुआत की। अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन, सौर ऊर्जा से संपन्न देशों की एक संधि आधारित अंतर-सरकारी गठबंधन है। आईएसए का मुख्य उद्देश्य वैश्विक स्तर पर 1000 गीगावाट से अधिक सौर ऊर्जा उत्पादन क्षमता हासिल करना और साल 2030 तक सौर ऊर्जा में निवेश के लिए करीब 1000 अरब डॉलर की राशि को जुटाना है। जनवरी 2021 तक 89 देश आईएसए के रूपरेखा समझौते पर हस्ताक्षर कर चुके थे।

COP26 in Glassgow
COP26 in Glasgow

कॉप-26 सम्मेलन  

जलवायु परिवर्तन से जुड़ी तमाम चुनौतियों और पेरिस समझौते की उपलब्धियों पर चर्चा करने के लिए एक बार फिर दुनिया के सभी देश 31 अक्टूबर से 12 नवंबर तक स्कॉटलैंड के ग्लासगो में होने वाले कॉप-26 सम्मेलन में हिस्सा ले रहे हैं। कॉप-26 का आयोजन ब्रिटेन की अध्यक्षता में इटली के साथ साक्षेदारी में किया जा रहा है। इस शिखर सम्मेलन में दुनियाभर के 190 से ज्यादा वैश्विक नेता भाग लेंगे। कॉप-26 को पहले साल 2020 में आयोजित किया जाना था, लेकिन कोरोना महामारी को देखते हुए इस 2021 तक के लिए टाल दिया गया था।

ग्लासगो कॉप-26 शिखर सम्मेलन में एजेंडा और चुनौती

कॉप-26 सम्मेलन में जिन मुद्दों पर सबसे ज्यादा चर्चा होने की संभावना है उनमें, उत्सर्जन कम करने की कार्ययोजना पर जानकारी देना, नेट जीरो यानी कार्बन तटस्थता पर चर्चा, जलवायु वित्त के नाम पर विकासशील देशों को लक्ष्य हासिल करने के लिए पैसा उपलब्ध कराना, वैश्विक समुदायों और प्राकृतिक आवास की रक्षा के लिए अनुकूल माहौल तैयार करना और पेरिस समझौता के लक्ष्यों को हासिल करने के लिए एकजुट होकर प्रयास करना सबसे प्रमुख होगा।

कार्बन उत्सर्जन कम करना

पेरिस समझौते को ध्यान में रखते हुए दुनिया भर के नेताओं को यह तय करना होगा कि वे अपने-अपने देश में कितनी तेजी से कार्बन उत्सर्जन में कटौती करेंगे। राष्ट्रों को यह रोडमैप भी बताना होगा कि उन्होंने 2030 तक उत्सर्जन में कमी के लक्ष्य को हासिल करने के लिए क्या तैयारी की है। साथ ही इस बात पर भी चर्चा होने की संभावना है कि अमीर देश जो पर्यावरण को दूषित करने के लिए सबसे ज्यादा जिम्मेदार माने जाते हैं वे उन गरीब देशों को कितना पैसा देंगे जो जलवायु परिवर्तन की चपेट में आए हैं।

नेट-जीरो लक्ष्य को हासिल करना

कॉप-26 सम्मेलन में नेट-जीरो यानी कार्बन तटस्थता पर भी चर्चा की संभावना है। 50 से ज्यादा देशों ने सदी के मध्य तक कार्बन तटस्थता का संकल्प लिया है। चीन ने कहा है कि वह 2060 तक यह लक्ष्य हासिल कर लेगा। वहीं जर्मनी ने 2045 तक यह लक्ष्य हासिल करने की घोषणा की है। हालांकि कई विकासशील देश इस तरह के लक्ष्यों का विरोध भी कर रहे हैं। उनका कहना है कि विकसित देश उत्सर्जन को कम करने का अपना बोक्ष दूसरे पर डाल रहे हैं।

जलवायु परिवर्तन से पारिस्थितिक तंत्र को बचाना

जलवायु परिवर्तन की वजह से वैश्विक समुदायों और प्राकृतिक आवासों पर गंभीर संकट मंडरा रहा है। कॉप-26 में जलवायु परिवर्तन से प्रभावित देशों को सक्षम बनाने और प्रोत्साहित करने के लिए पारिस्थितिक तंत्र की रक्षा और उसकी पुनर्स्थापना करने के साथ ही जलवायु परिवर्तन से बचने के लिए सुरक्षा और चेतावनी प्रणाली के विकास करने पर भी चर्चा होने की संभावना है। इस तरह की तैयारियों से लोगों की आजीविका और उनकी जानमाल को खतरे से बचाया जा सकता है।

हरित जलवायु कोष के लिए पैसा जुटाना

2009 में विकसित देशों ने 2020 तक जलवायु वित्त के नाम पर हर साल 100 अरब डॉलर देने पर राजी हुए थे। लेकिन 2018 में इन देशों ने 78.9 अरब डॉलर और 2019 में 79.6 अरब डॉलर ही जमा करा पाए और लक्ष्य से पिछड़ गए। इन दस सालों में धरती का औसत तापमान इतना ज्यादा बढ़ गया कि पिछला दशक सबसे गर्म दशक के रूप में दर्ज हुआ और इसका सबसे ज्यादा खामियाजा गरीब देशों को भुगतना पड़ा। यदि 2050 तक शून्य उत्सर्जन का लक्ष्य हासिल करना है तो अभी से प्रतिवर्ष 1 से 2 खरब डॉलर निवेश की जरूरत है।

आगे की राह और तत्काल कार्रवाई की जरूरत

जलवायु परिवर्तन की इन विकट परिस्थितियों में कॉप-26 सम्मेलन एक अवसर की तरह है, जहां  जीवाश्म ईंधन के युग को समाप्त करने के लिए तत्काल कार्रवाई करने और पारिस्थितिक तंत्र को बनाए रखने के लिए प्रकृति को पुनर्जीवित करने का संकल्प लेना जरूरी है। कोविड-19 वैश्विक महामारी के बीच सभी राष्ट्र अपनी अर्थव्यवस्था के पुनर्निर्माण की कोशिश में लगे हैं और ग्रीन रिकवरी के जरिए ‘Building Back Better’ जोर दे रहे हैं। इसके साथ ही 2030 या 2050 तक कार्बन मुक्त करने के लिए ज्यादा से ज्यादा राष्ट्रों, व्यवसायियों और निवेशकों को दीर्घकालिक प्रतिबद्धता के साथ आगे आना होगा। दरअसल, हम आज जो निर्णय लेते हैं, भविष्य में उनके मायने बेहद महत्वपूर्ण होते हैं। हर मिनट, घंटा और हर दिन जो बिना तत्काल कार्रवाई के गुजर रहे हैं, वो आने वाली पीढ़ियों के लिए गंभीर संकट पैदा कर रहे हैं। जलवायु संकट पहले ही लाखों लोगों का जीवन समाप्त कर चुका है और हर आए दिन लोगों के जीवन और आजीविका के लिए गंभीर संकट पैदा कर रहा है। हम भले हीं एक नाव में सवार नहीं हों, लेकिन जलवायु संकट की आंधी की चपेट में हम सभी है। इन चुनौतियों को देखते हुए कॉप-26 की बैठक और जलवायु संकट से निपटने की उसकी प्रतिबद्धता काफी महत्वपूर्ण है।

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