राजद्रोह: SECTION 124A, क्यों विवादित है और क्यों होता है विरोध?
लंबे समय से भारतीय दंड संहिता यानी INDIAN PENAL CODE के सेक्शन 124A में उल्लिखित राजद्रोह कानून की औचित्य(प्रासंगिकता) को लेकर बहस जारी है। इस सिलसिले में केंद्र सरकार द्वारा सुप्रीम कोर्ट में दाखिल राजद्रोह कानून पर पुनर्विचार करने के प्रस्ताव पर सुनवाई करते हुए 11 मई को सुप्रीम कोर्ट ने इस कानून पर अस्थायी रोक लगा दी। सुप्रीम कोर्ट ने अपने अंतरिम आदेश में केंद्र और राज्यों को निर्देश दिया कि जब तक सरकार इस कानून पर फिर से समीक्षा नहीं कर लेती, तब तक धारा 124A के तहत कोई FIR दर्ज नहीं होगा। यहाँ तक कि इस धारा के तहत जो मामले अदालत में चल रहे हैं उनकी कार्यवाही भी रुकी रहेगी। हालांकि सर्वोच्च न्यायालय ने इस कानून के तहत जेल में बंद सभी आरोपियों को जमानत के लिए अदालत में जाने की छूट दे दी है। इन सब के बीच सवाल यह उठता है डेढ़ सौ साल पुराने इस कानून को लेकर समय-समय पर विरोध क्यों होते रहे हैं? और क्यों अब तक इस औपनिवेशिक कानून को खत्म नहीं किया जा सका? इन सब के साथ ये जानना भी जरूरी है कि राजद्रोह कानून का इतिहास क्या है और इसे लागू करने को लेकर क्या मंशा थी? और राजद्रोह और देशद्रोह में क्या अंतर है?
क्या है राजद्रोह कानून?
दरअसल, देश में किए जाने वाले अपराधों को रोकने के लिए सरकार द्वारा अनेकों नए कानूनों को संसद में पारित कराया जाता रहा है। देश में लागू किए जाने वाले यह सभी कानून यैसे होते हैं, जिनमें अपराध करने वाले अपराधी को सख्त से सख्त सजा सुनाई जाती है। इसी तरह का एक सख्त कानून है... राजद्रोह... जिसे तोड़ने पर नागरिकों को कठोर सजा दी जाती है, जो कुछ साल से लेकर उम्रकैद तक तक हो सकती है। हालांकि इस कानून के दुरुपयोग पर शुरू से चिंता जताई जाती रही है और समय-समय पर इस कानून के होने की उपयोगिता पर सवाल खड़ा किया जाता रहा है। साथ ही, इस कानून को गैर संवैधानिक घोषित करने की गुहार भी सर्वोच्च न्यायालय से वक्त-बेवक्त लगाई जाती रही है।
ऐसे में सवाल उठता है कि आखिर यह राजद्रोह कानून है क्या?... तो दरअसल, भारतीय दंड संहिता 1860 के अध्याय 6 में वर्णित राज्य के खिलाफ अपराधों में राजद्रोह को एक गंभीर प्रकृति का अपराध माना गया है। आईपीसी की धारा 124A में वर्णित राजद्रोह कानून के मुताबिक-
“अगर कोई व्यक्ति सरकार के खिलाफ लिखता या बोलता है... ऐसी सामग्री का समर्थन करता है... राष्ट्रीय चिन्हों का अपमान करने के साथ संविधान को नीचा दिखाने की कोशिश करता है तो उसके खिलाफ आईपीसी की धारा 124A के तहत राजद्रोह का मामला दर्ज हो सकता है। इसके अलावा अगर कोई व्यक्ति देश विरोधी संगठन के खिलाफ अनजाने में भी संबंध रखता है या उस संगठन का किसी भी तरह से मदद करता है, तो उसके खिलाफ भी राजद्रोह का मामला बन सकता है।
"इस तरह कोई कार्य राजद्रोह है या नहीं यह दो बातों पर मुख्य रूप से निर्भर करता है---
पहला, भारत सरकार के विरुद्ध घृणा पैदा करना या करने का प्रयत्न करना। और,
दूसरा, ऐसे कार्य या प्रयत्न को लिखित या स्पष्ट शब्दों के जरिए या प्रत्यक्ष विधि द्वारा किया जाना। जिससे हिंसा या लोक व्यवस्था बिगड़ने की आशंका हो।"
हालांकि, घृणा या अवमानना फैलाने की कोशिश किए बिना की गई टिप्पणियों को इसके तहत अपराध की श्रेणी में शामिल नहीं किया जाता है।
राजद्रोह कानून के तहत सजा का प्रावधान
राजद्रोह एक गैर-जमानती अपराध है और इस कानून के तहत दोषी पाए जाने पर तीन वर्ष से लेकर आजीवन कारावास तक की सजा का प्रावधान है। इसके साथ में जुर्माना भी लगाया जा सकता है। इस कानून के तहत आरोपी व्यक्ति को सरकारी नौकरी करने से रोका जा सकता है। आरोपित व्यक्ति को पासपोर्ट के बिना रहना होता है, साथ ही जरूरत पड़ने पर उसे अदालत में पेश होना जरूरी है। राजद्रोह एक नॉन कंपाउंडेबल अपराध है यानी इसे आरोपी और पीड़ित के बीच समझौते से नहीं सुलझाया जा सकता है।
राजद्रोह और देशद्रोह
यहाँ एक बात जानना जरूरी है कि राजद्रोह और देशद्रोह दो अलग-अलग शब्द हैं और दोनों के अर्थ अलग-अलग हैं। राजद्रोह का मतलब जहाँ विधि द्वारा स्थापित सरकार, उसकी नीति और प्रशासनिक अधिकारियों के खिलाफ असंतोष की भावना और हिंसा फैलाने से हैं, वहीं देशद्रोह राष्ट्र के प्रति असम्मान, राष्ट्र की एकता-अखंडता के विरुद्ध किया गया कार्य और राष्ट्रीय संस्कृति और विरासत को नकारना है। देशद्रोह के लिए सजा का प्रावधान आईपीसी की धारा 121, 121A, 122 और 123 में है।
राजद्रोह कानून का इतिहास
राजद्रोह कानून के इतिहास की बात करें, तो भारत में भले ही यह औपनिवेशिक कानून डेढ़ सौ साल से ज्यादा पुराना है, लेकिन इसकी जड़े आठ सौ साल पहले ब्रिटेन की वेस्टमिंस्टर के कानून में देखी जा सकती है। जब राजा ही सर्वेसर्वा हुआ करता था। उस समय राजद्रोह का कानून सत्ता के सम्मान के खिलाफ बोलने वालों को रोकने के लिए बनाया गया था। औपचारिक रूप से 17वीं सदी में इंग्लैंड में राजद्रोह कानून बनाए गए थे। तब सांसदों का मानना था कि सरकार के बारे में अच्छी राय ही बनी रहनी चाहिए, क्योंकि बुरी राय सरकार और राजशाही के लिए हानिकारक होगी। इसके बाद 1868 में ब्रिटेन की अदालत ने राजद्रोह को अपराध के तौर पर परिभाषित किया था। यह अलग बात है कि ब्रिटेन ने साल 2009 में इस कानून को समाप्त कर दिया।
भारत में राजद्रोह कानून का इतिहास
जहाँ तक भारत में राजद्रोह कानून को लागू करने की बात है, तो मूल रूप से यह कानून 1837 में लॉर्ड मैकॉले की अध्यक्षता वाले पहले विधि आयोग द्वारा तैयार किए गए भारतीय दंड संहिता के मसौदे में था। लेकिन 1860 में जब आईपीसी लागू किया गया, तब उसमे राजद्रोह का कानून शामिल नहीं था। मैकॉले के 1837 के इंडियन पीनल कोड में धारा 113 का जिक्र था और बाद में यही धारा 124A बना।
दरअसल, साल 1870 में वायसराय के कार्यकारिणी परिषद में विधि सदस्य सर जेम्स स्टीफन को अपराध से निपटने के लिए एक विशिष्ट खंड की जरूरत महसूस हुई, तब उन्होंने 1870 में आईपीसी(संशोधन) अधिनियम 17 के जरिए धारा 124A को आईपीसी के छठे अध्याय में शामिल किया। इस कानून को आईपीसी में इसलिए जोड़ा गया, ताकि तत्कालीन अंग्रेज सरकार के खिलाफ उठने वाली असंतोष की आवाज को दबाया जा सके। हालांकि, लोग सरकार के खिलाफ अपनी भावनाओं को व्यक्त करने के लिए स्वतंत्र थे लेकिन तभी तक जब तक वो कानून का पालन कर रहे हों।
राजद्रोह कानून में संशोधन
1870 के स्टीफेन के आईपीसी संस्करण को 1898 में आईपीसी संशोधन अधिनियम के जरिए संशोधित किया गया। जिसके जरिए आईपीसी में अनेक बदलाव किए गए। साथ ही धारा 124A में भी संशोधन किया गया। वर्तमान के आईपीसी के ज्यादातर प्रावधान, 1898 के संशोधित प्रावधान ही हैं। हालांकि, 1898 के बाद ब्रिटिश काल और आजाद भारत में भी समय समय पर धारा 124A में संशोधन हुए। जो साल 1937, 1948, 1950, पार्ट बी स्टेट(कानून)अधिनियम 1951 और 1955 में हुए।
ब्रिटिश भारत में राजद्रोह कानून का इस्तेमाल
दरअसल, अंग्रेजों ने राजद्रोह कानून का निर्माण ही भारत पर अपने शासन को मजबूत बनाने और ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ उठने वाली हर आवाज को कुचलने के लिए किया था। अंग्रेजों ने सबसे पहले इस कानून का इस्तेमाल साल 1891 में एक बंगाली पत्रिका ‘बंगोबासी’ के संपादक जोगेंद्र चंद्र बोस के खिलाफ किया। उन्होंने अंग्रेजों के बनाए ‘ऐज ऑफ कंसेंट बिल 1891’ का विरोध किया था। जोगेंद्र चंद्र पर आरोप लगा कि उन्होंने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ लेख लिखा है। हालांकि बोस को बाद में जमानत मिल गई और उनके खिलाफ मामला छोड़ दिया गया था।
तिलक पर तीन बार राजद्रोह कानून के तहत मुकदमा
यही नहीं, अंग्रेजों ने राजद्रोह कानून का इस्तेमाल महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, एन्नी बेसेंट, मौलाना अबुल कलाम आजाद, जवाहरलाल नेहरू, वीर सावरकर समेत अनेक स्वतंत्रता सेनानियों की आवाज को दबाने के लिए किया। बाल गंगाधर तिलक पर तो अंग्रेजों ने तीन बार राजद्रोह का आरोप लगाया। पहली बार 1897 में उनपर कथित तौर पर आक्रामक भाषण देने और लोगों को हिंसक व्यवहार के लिए उकसाने का आरोप लगाया गया, जिसके परिणामस्वरूप दो ब्रिटिश अधिकारियों की मौत हो गई थी। इस मामले में तिलक को 18 महीना जेल की सजा हुई। हालांकि, उसी साल अदालत ने कहा था कि सरकार की अस्वीकृति का हर मामला 124A के तहत नहीं आता। अदालत की इस टिप्पणी के बाद 1898 में आईपीसी में संशोधन किया गया और ‘असंतोष’ शब्द को परिभाषित करते हुए इसमें ‘विश्वासधात’ और ‘शत्रुता की भावना’ को भी शामिल किया गया।
तिलक पर दूसरी बार 1909 में राजद्रोह का आरोप लगा जब उन्होंने अपने अखबार ‘केसरी’ में एक सरकार विरोधी लेख लिखा। इस बार तिलक को 6 साल जेल की सजा हुई। जबकि तीसरी बार तिलक पर ‘पूर्ण स्वराज’ की मांग को लेकर दिए गए भाषणों के लिए 1916 में राजद्रोह का मुकदमा चला। हालांकि इस बार वो बरी हो गए और कोई सजा नहीं हुई।
महात्मा गांधी पर राजद्रोह कानून
राजद्रोह कानून के तहत महात्मा गांधी पर भी यंग इंडिया में उनके लेखों के कारण 1922 में मुकदमा दायर किया गया था। तब महात्मा गांधी ने कहा था कि “सेक्शन 124A, जिसके तहत मुझ पर आरोप लगा है, आईपीसी के राजनीतिक वर्गों के बीच नागरिकों की स्वतंत्रता को दबाने के लिए रचे गए कानूनों का राजकुमार है।“
संविधान सभा में राजद्रोह को लेकर हुई चर्चा
जब देश आजाद हुआ तब संविधान सभा में इस औपनिवेशिक कानून के औचित्य और उसके पहलुओं पर खूब बहस हुई। शुरू में जब संविधान का मसौदा तैयार किया गया, तब राजद्रोह को अनुच्छेद 13(2) में शामिल किया गया था। लेकिन संविधान सभा के सदस्य के एम मुंशी ने इसे भारतीय लोकतंत्र के ऊपर खतरा बताया। उन्होंने कहा कि “असल में, किसी भी लोकतंत्र की सफलता का राज ही उसकी सरकार की आलोचना में है।“ यह के एम मुंशी और सिख नेता भूपिंदर सिंह मान का ही संयुक्त प्रयास था, जिसकी वजह से संविधान से ‘राजद्रोह’ शब्द हमेशा के लिए हटाया जा सका। और इस तरह अनुच्छेद 19(1) के तहत अभिव्यक्ति की पूर्ण स्वतंत्रता का रास्ता खुला। हालांकि, धारा 124A आईपीसी 1860 में बना रहा।
संविधान का पहला संशोधन और राजद्रोह
चूकि आईपीसी में बने रहने के कारण आजादी के बाद भी इस धारा का प्रयोग अनेक मौकों पर किया गया। राजनीतिक पार्टियों के लिए धारा 124A के महत्व का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि आजादी के बाद भारत के संविधान में पहला संशोधन राजद्रोह की धारा को लेकर ही हुआ था।
दरअसल, आजाद भारत में राजद्रोह का पहला मामला 1950 में सामने आया। जब तारा सिंह के भाषण देने पर उनके खिलाफ धारा 124A के तहत राजद्रोह का मुकदमा दायर किया गया। इस मामले में 1951 में पंजाब हाई कोर्ट ने धारा 124A की संवैधानिकता पर सवाल उठाते हुए कहा कि, यह अनुच्छेद 19 के तहत मिले भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार के खिलाफ है।
वहीं, 1950 में सुप्रीम कोर्ट ने बृज भूषण बनाम दिल्ली राज्य और रोमेश थापर बनाम मद्रास राज्य मामलों में राजद्रोह पर प्रकाश डालते हुए निर्णय दिया कि “लोक व्यवस्था के आधार पर नागरिकों के मूल अधिकारों पर रोक नहीं लगाई जा सकती है, यह असंवैधानिक होगा।‘
अदालतों के इस प्रकार के निर्णय ने प्रथम संविधान संशोधन का आधार तैयार किया और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू, अनुच्छेद 19(1) (A) के तहत मिले स्वतंत्रता को सीमित करने के लिए भारत के संविधान का पहला संशोधन लाए। नेहरू के नेतृत्व में तत्कालीन सरकार ने अनुच्छेद 19 में रीजनेबल रिस्ट्रिक्शन का प्रावधान कर दिया और राज्य को और ज्यादा सशक्त बनाने के लिए अनुच्छेद 19(2) में तीन नए आधार जोड़ दिए। इनमें ‘लोक-व्यवस्था’, ‘विदेशी राज्य से मैत्री संबंध’ और ‘अपराध करने के लिए उकसाना’ शामिल है। इसका नतीजा यह हुआ कि अभिव्यक्ति के अधिकार पर एक ‘वैध पाबंदी’ लगाने को हरी झंडी मिल गई। हालांकि, भारत के संविधान का वर्तमान अनुच्छेद 19(2) ‘राजद्रोह’ का उल्लेख नहीं करता है, लेकिन भारत की संप्रभुता और अखंडता या राज्य की सुरक्षा को खतरा होने पर प्रतिबंध लगाने की बात जरूर करता है।
केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य का मामला
आजाद भारत में राजद्रोह का सबसे चर्चित मामला था केदारनाथ सिंह बनाम बिहार राज्य का। इस मामले में सर्वोच्च न्यायालय की पांच न्यायाधीशों की संवैधानिक पीठ ने आईपीसी की धारा 124A की संवैधानिक वैधता को बरकरार रखते हुए इसके दायरे को परिभाषित किया था। सुप्रीम कोर्ट ने अपने निर्णय में कहा कि, मात्र सरकार की आलोचना या प्रशासन पर टिप्पणी करने से राजद्रोह का मामला नहीं बनता है। राजद्रोह कानून का इस्तेमाल तब ही किया जाए जब सीधे तौर पर कानून व्यवस्था बिगाड़ने या हिंसा भड़काने का मामला हो। केदार नाथ सिंह के मामले में सुप्रीम कोर्ट के परिभाषा को धारा 124A से जुड़े मामलों के लिए एक मिसाल के तौर पर लिया जाता है। दरअसल, 1962 में केदारनाथ सिंह पर बिहार में तत्कालीन राज्य सरकार ने एक भाषण को लेकर राजद्रोह का मामला दर्ज किया था।
हालांकि, मुश्किल ये है कि पब्लिक ऑर्डर के दायरे में कौन सी अभिव्यक्ति या ऐक्शन होगा या नहीं होगा, इसे स्पष्ट रूप से परिभाषित नहीं किया गया है। शब्दों की मूल भावना की जांच कैसे होगी। यह भी स्पष्ट नहीं है। इन कमियों की वजह से सरकारें अपनी सुविधा के अनुसार इस कानून का इस्तेमाल कर लेती हैं, और मामला अंतत: अदालत में आकर ही सुलझ पाता है।
बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य का मामला
इसी तरह 1995 में बलवंत सिंह बनाम पंजाब राज्य मामले में भी सुप्रीम कोर्ट ने फैसला दिया कि सिर्फ नारेबाजी से राजद्रोह का मामला नहीं बनता। तब बलवंत सिंह पर भारत विरोधी और खालिस्तान के समर्थन में नारे लगाने के आरोप में देशद्रोह का केस दर्ज किया गया था। इस मामले में अदालत ने कहा कि राजद्रोह तभी बनेगा जब नारेबाजी के बाद विद्रोह पैदा हो जाए और समुदाय में नफरत फैल जाए।
भारतीय विधि आयोग की रिपोर्ट
आईपीसी की धारा 124A को लेकर चल रही चर्चा के बीच, भारतीय विधि आयोग ने साल 2018 में राजद्रोह के ऊपर एक परामर्श पत्र जारी किया। आयोग ने इसमें कहा कि राष्ट्रीय अखंडता की रक्षा के लिए राजद्रोह के अपराध को बनाए रखना आवश्यक है, लेकिन इसे स्वतंत्र भाषण को रोकने के लिए एक उपकरण के रूप में उपयोग नहीं किया जाना चाहिए। इसके साथ ही आयोग ने इस कानून को लेकर कानूनविदों, सरकार, अकादमिक जगत, विद्यार्थियों और आम नागरिक के बीच गहन चर्चा की जरूरत बताई।
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो की रिपोर्ट
वहीं, राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक आईपीसी 1860 की धारा 124A के तहत दर्ज मामलों की संख्या में पिछले कुछ सालों में काफी बढ़ोत्तरी हुई है। ऐसे मामलों में पिछले चार सालों में ही करीब डेढ़ सौ फीसदी से ज्यादा की वृद्धि हुई है, जबकि इसी अवधि में ऐसे अपराधों में दोषसिद्धि दर 33.3 फीसदी से कम हो कर 3 फीसदी के करीब हो गई। आंकड़े बताते हैं कि राजद्रोह के मामले में देरी तो होती ही है, जांच भी अपर्याप्त होती है। इससे नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी भी प्रभावित होती है।
राजद्रोह को लेकर सुप्रीम कोर्ट का आदेश
राजद्रोह कानून के दुरुपयोग को देखते हुए इसे इंडियन पिनल कोड 1860 से हटाने के लिए राज्य सभा में प्राइवेट मेम्बर बिल भी पेश किए गए, लेकिन वे पारित नहीं हो सके। वहीं, अनेक नागरिकों और पत्रकारों ने समय-समय पर धारा 124A को खत्म करने के लिए सुप्रीम कोर्ट में याचिका भी दायर की गई। इन याचिकाओं पर सुनवाई करते हुए सुप्रीम कोर्ट ने राजद्रोह को औपनिवेशिक कानून बताते हुए केंद्र को आईपीसी की धारा 124A की समीक्षा का आदेश दिया, जिसे केंद्र सरकार ने स्वीकार कर लिया।
दरअसल, राजद्रोह की स्पष्ट परिभाषा नहीं होने और उचित तरीके से इसका इस्तेमाल नहीं होने की वजह से यह संविधान के अनुच्छेद 19(1)(A) के तहत भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करता है, जिससे यह अपनी प्रकृति में ही असंवैधानिक हो जाता है। यह उन तत्वों में भी हस्तक्षेप करता है जो लोकतंत्र की विशेषता रखते हैं। यदि इस कानून को पूरी तरह समाप्त नहीं किया जा सकता है, तो जरूरी है कि इस कानून के प्रावधानों को पूरी तरह से स्पष्ट किया जाए। इसे काफी लचीला बनाने की भी जरूरत है और साथ ही इसके दुरुपयोग पर भी रोक लगाने की जरूरत है। ताकि भारत के अंदर लोकतंत्र मजबूती के साथ अपनी पकड़ कायम रख सके और देश के भीतर नागरिकों की अभिव्यक्ति की आजादी को भी सुरक्षित रखा जा सके।