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रूस-यूक्रेन युद्ध (भाग-3) : नाटो की भूमिका, यूक्रेन क्यों चाहता है नाटो में शामिल होना और रूस को क्यों है आपत्ति?

Russia Ukraine Crisis

रूस-यूक्रेन युद्ध सीरीज के दूसरे भाग में हमने चर्चा की थी कि सोवियत शासन के दौरान रूस और यूक्रेन के बीच संबंध कैसे थे और सोवियत संघ टूटने के बाद कैसे यूक्रेन एक स्वतंत्र देश बना। इसके साथ ही हमने क्रीमिया के इतिहास और रूस द्वारा क्रीमिया के अधिग्रहण की बात भी बताई थी। हालांकि, यूक्रेन के स्वतंत्र होने के बाद से उसकी नीति पश्चिमी देशों की तरफ झुकती चली गई और वह रूस के प्रभाव से निकल कर नाटो का सदस्य बनने की राह पर चल पड़ा। और यहीं से रूस और यूक्रेन के संबंध बिगड़ने शुरू हो गए और स्थिति युद्ध तक पहुंच गई। रूस यूक्रेन युद्ध सीरीज के विशेष आलेख के इस तीसरे भाग में हम चर्चा करेंगे कि नाटो को लेकर रूस इतना कड़ा रुख क्यों रखता है? और वह क्यों नहीं चाहता है कि यूक्रेन किसी भी सूरत में नाटो का सदस्य बने? साथ ही बात करेंगे कि नाटो क्या है? इसका मकसद क्या है? यूक्रेन क्यों नाटो का सदस्य बनना चाह रहा है और रूस क्यों इसका विरोध कर रहा है? इसके अलावा नाटो से रूस के रिश्ते अब तक कैसे रहे हैं? और भविष्य में किस तरह के संबंध होने की संभावना है।

NATO की स्थापना कब और क्यों हुई?

NATO यानी NORTH ATLANTIC TREATY ORGANIZATION… उत्तरी अमेरिका और यूरोप का एक साझा राजनीतिक और सैन्य संगठन है। जिसकी स्थापना 4 अप्रैल 1949 को हुई थी। नाटो के गठन के समय इसके 12 संस्थापक सदस्य थे। जबकि वर्तमान में इसके सदस्यों की संख्या 30 है। NATO का मुख्यालय बेल्जियम की राजधानी ब्रुसेल्स में है।

दरअसल दूसरे विश्व युद्ध के बाद पश्चिमी यूरोपीय देशों को साम्यवाद के प्रसार का भय सताने लगा था। तब सोवियत संघ के बढ़ते दायरे को रोकने और किसी भी संभावित हमले का सामना करने के लिए मार्च 1948 में ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम, नीदरलैंड और लक्जेमबर्ग ने ब्रुसेल्स संधि पर हस्ताक्षर किए। जिसका मकसद था संधि से जुड़े किसी भी देश पर अगर कोई हमला हुआ, तो सभी देश मिलकर मुकाबला करेंगे। वहीं, जब 1948 में सोवियत संघ ने बर्लिन की नाकेबंदी कर दी, तब साम्यवादी विचार और सोवियत हमले को रोकने के लिए अमेरिका ने यूरोपीय देशों का नेतृत्व करते हुए संयुक्त राष्ट्र के चार्टर के अनुच्छेद 15 के तहत 4 अप्रैल 1949 को NATO यानी NORTH ATLANTIC TREATY ORGANIZATION का गठन किया।

NATO का उद्देश्य और वारसा संधि

नाटो मूल रूप से सदस्य देशों की साझा सुरक्षा नीति पर काम करता है। नाटो की संधि की धारा पांच में ‘सामूहिक सुरक्षा’ का जिक्र किया गया है। इसका मतलब है कि अगर कोई बाहरी देश किसी भी नाटो सदस्य देश पर हमला करता है, तो नाटो के सभी सदस्य देश मिलकर नाटो से जुड़े देश की सैन्य और राजनीतिक रूप से मदद करेंगे। वहीं, नाटो के जवाब में सोवियत संघ ने पूर्वी यूरोप के देशों के साथ 1955 में ‘वारसा संधि’ की। जिसे Treaty of Friendship, Co-operation and Mutual Assistance कहा गया। इसमें सोवियत संघ, पोलैंड, पूर्वी जर्मनी, चेकोस्लोवाकिया, हंगरी, रोमानिया और बुल्गारिया आदि देश शामिल थे। वारसा संधि का मकसद नाटो में शामिल यूरोपीय देशों का मुकाबला करना था। हालांकि, 1991 में सोवियत संघ के विघटन के बाद वारसा पैक्ट भी खत्म हो गया। बाद के वक्त में तो वारसा संधि में शामिल कई देश, नाटो के सदस्य भी बन गए।

बुडापेस्ट समझौता और यूक्रेन की सुरक्षा

अब बात आती है यूक्रेन की... जो इस नाटो का सदस्य देश बनना चाह रहा है। और यही बात रूस को नागवार लग रही है। दरअसल, सोवियत संघ के विघटन के बाद, यूक्रेन को विरासत में करीब आठ लाख सैन्य बल के साथ ही दुनिया की तीसरी सबसे बड़ी परमाणु हथियार शस्त्रागार मिला। लेकिन मई 1992 में यूक्रेन ने लिस्बन में अपने सभी परमाणु हथियार रूस को सौंपने और रणनीतिक रूप से महत्वपूर्ण परमाणु शास्त्रागारों को नष्ट करने के साथ ही एक गैर परमाणु हथियार संपन्न राष्ट्र के रूप परमाणु अप्रसार संधि यानी NPT पर हस्ताक्षर करने के लिए सहमत हो गया। इसके बाद दिसंबर 1994 में अमेरिका, रूस, ब्रिटेन और यूक्रेन के बीच बुडापेस्ट मेमोरेंडम नाम से एक समझौता हुआ। जिसमें शामिल देशों ने यूक्रेन को सुरक्षा का भरोसा दिया। इस समझौते के तहत यूक्रेन अपने परमाणु शस्त्रागार और अन्य परमाणु हथियारों को नष्ट करने पर राजी हुआ और 1996 तक देश में मौजूद सभी परमाणु हथियारों से मुक्त हो गया।

नाटो का सदस्य बनने की यूक्रेन की चाहत और पहल

हालांकि रूस से अलग होने और परमाणु हथियारों को नष्ट करने के बाद यूक्रेन अपनी सुरक्षा को लेकर हमेशा चिंतित रहा। उसे हमेशा इस बात का डर रहा कि वह कभी भी अकेले अपने दम पर रूस का मुकाबला नहीं कर सकता। इसलिए वह एक ऐसे सैन्य संगठन में शामिल होना चाहता है जो उसकी आजादी को महफूज रख सके। और इसके लिए यूक्रेन को नाटो से बेहतर संगठन और कोई नहीं संगठन नहीं सूझता। इसलिए यूक्रेन ने अपनी आजादी के बाद से ही नाटो में शामिल होने का प्रयास शुरू कर दिया था। इसके लिए साल 1997 में यूक्रेन-नाटो कमीशन बनाया गया, ताकि यूक्रेन नाटो संगठन का पार्टनर बन सके। वहीं, 2000 के दशक में यूक्रेन का झुकाव नाटो की तरफ काफी तेजी से बढ़ा। 2002 में यूक्रेन ने नाटो-यूक्रेन कार्य योजना पर हस्ताक्षर किए। साल 2008 में यूक्रेन ने आधिकारिक रूस से नाटो में शामिल होने की बात की। और साल 2014 में रूस समर्थित सरकार  गिरने के बाद यूक्रेन ने फरवरी 2019 में संविधान में संशोधन कर यूरोपीय संघ और नाटो में शामिल होने का ऐलान कर दिया। उसने घोषणा की कि साल 2024 तक यूक्रेन नाटो और यूरोपीय संघ का सदस्य बन जाएगा। इसका मतलब है कि यूक्रेन पर अमेरिका और पश्चिमी यूरोप का दबदबा हो जाएगा और रूस इसी बात का विरोध कर रहा है।

यूक्रेन के नाटो सदस्यता को लेकर रूस का विरोध

नाटो में यूक्रेन की सदस्यता को लेकर दिसंबर 2021 में नाटो प्रमुख जेन्स स्टोल्टेनबर्ग और यूक्रेन के राष्ट्रपति वोलोदिमीर ज़ेलेंस्की की मुलाकात हुई। नाटो को लेकर यूक्रेन की बढ़ती सक्रियता देख कर रूस ने यूक्रेन की सीमा पर अपनी फौजों को तैनात करना शुरू कर दिया। रूस ने यूक्रेन की सीमा पर डेढ़ लाख से ज्यादा सैनिक, जंगी जहाज, टैंक, गोला-बारूद समेत अत्याधुनिक हथियारों की तैनाती कर दी। साथ ही बेलारूस के साथ संयुक्त युद्ध अभ्यास भी किया। और आखिरकार 24 फरवरी 2022 को रूस ने यूक्रेन पर हमला बोल ही दिया। रूस-यूक्रेन के बीच छिड़े युद्ध के दौरान ही अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने साफ कहा कि, यूक्रेन अभी नाटो का सदस्य नहीं है, इसलिए नाटो की सेना सीधे तौर पर यूक्रेन के तरफ से युद्ध में हिस्सा नहीं लेगी। हालांकि नाटो देश यूक्रेन को हथियार मुहैया कराते रहेंगे। नाटो देशों के इस तरह पीछे हटने से यूक्रेन बिलकुल अलग-थलग पड़ गया।

मिंस्क समझौता और शांति के प्रयास

इन सब के बीच अमेरिका और पश्चिमी देशों ने रूस पर मिंस्क समझौता तोड़ने का आरोप लगाया। दरअसल, यूक्रेन के डोनबास इलाके में अलगाववादी युद्ध को रोकने के लिए बेलारूस की राजधानी मिंस्क में रूस-यूक्रेन के बीच 2014 और 2015 में एक समझौता हुआ था। इस समझौते में फ्रांस, जर्मनी और यूरोपीय संस्था ओएससीई यानी Organization For Security and Co-operation in Europe शामिल थे। इस समझौते में 13 मुद्दों पर सहमति बनी। जिसमें युद्ध रोकने और दोनों देशों के बीच तनाव कम करने की बात थी। लेकिन इस समझौते पर कभी भी पूरी तरह से अमल नहीं हुआ। और यूक्रेन पर रूस के आक्रमण के बाद अमेरिका समेत पश्चिमी देशों ने संयुक्त राष्ट्र में रूस पर मिंस्क समझौते तोड़ने का आरोप लगाया।

रूस का यूक्रेन पर आरोप

वहीं, इन सब के बीच रूस का आरोप है कि यूक्रेन नाटो में शामिल होकर तटस्थ रहने और किसी भी सैन्य गठबंधन में शामिल नहीं होने के अपने वादे से पलट रहा है। दरअसल यूक्रेन ने 1990 में रूस के साथ एक समझौता कर वादा किया था कि वह किसी भी सैन्य गुट का हिस्सा नहीं बनेगा। रूसी राष्ट्रपति पुतिन का ये भी कहना है कि नाटो देश यूक्रेन में हथियारों की आपूर्ति बंद करें। क्योंकि रूस अपनी सुरक्षा से समझौता नहीं कर सकता। रूस के सामने चुनौती यह भी है कि उसके कुछ पड़ोसी देश पहले ही नाटो में शामिल हो चुके हैं। इनमें से एस्टोनिया और लातविया जैसे देश भी हैं जो पहले सोवियत संघ का हिस्सा थे। ऐसे में अब अगर यूक्रेन भी नाटो का हिस्सा बन जाएगा तो रूस हर तरफ से अपने दुश्मन देशों से घिर जाएगा और अमेरिका जैसे देश उस पर हावी हो जाएंगे। यही वजह है कि रूस नाटो में यूक्रेन के प्रवेश का विरोध कर रहा है।

रूस को है अपनी सुरक्षा की चिंता

रूस यूक्रेन के सामरिक और रणनीतिक महत्व को भी बखूबी समझता है। दरअसल यूक्रेन रूस की पश्चिमी सीमा पर स्थित है। जब दूसरे विश्व युद्ध के दौरान जर्मनी ने रूस पर हमला किया था तब यूक्रेन एकमात्र ऐसा क्षेत्र था जहां से रूस ने अपनी सीमा की रक्षा की थी। ऐसे में अब अगर यूक्रेन नाटो देशों के साथ चला गया तो रूस की राजधानी मास्को, पश्चिम से सिर्फ 640 किलोमीटर दूर रह जाएगा, जबकि वर्तमान में यह दूरी करीब 1600 किलोमीटर है। यही वजह है कि रूस किसी भी कीमत पर यूक्रेन का नाटो देशों के साथ जाने का विरोध कर रहा है।

मौजूदा संकट के दौर में बड़ा सवाल यह है कि यूरोप में नाटो की अहमियत और प्रासंगिकता दोनों ही अभी बनी हुई है या अमेरिका इसे बनाए रखना चाहता है। तभी तो, नाटो संधि की धारा पांच जिसमें सामूहिक रक्षा का जिक्र किया गया है, और जो फिलहाल यूक्रेन पर लागू नहीं होती है। इसके बावजूद नाटो के सदस्य देश यूक्रेन को एक बहुमूल्य साझेदार के रूप में देखते हैं और यूक्रेन को हथियार और राजनीतिक समर्थन देते रहे हैं। और रूस द्वारा उस पर किसी भी तरह के आक्रमण का खुलकर विरोध कर रहे हैं। ऐसे में चिंता की बात ये है कि रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध अगर परमाणु युद्ध में बदल गया तो उसकी विभीषिका क्या होगी?क्योंकि परमाणु युद्ध की स्थिति में बड़ा-छोटा होना बेमानी हो जाता है क्योंकि बर्बादी का मंज़र तो हर बम का समान ही होगा।

रूस और यूक्रेन की सैन्य ताकत

युद्ध के हालात में रूस और यूक्रेन की सैन्य ताकत की तुलना करें तो रूस के मुकाबले यूक्रेन कहीं नहीं ठहरता। रूस में एक्टिव सैनिकों की संख्या जहां साढ़े आठ लाख है, वहीं यूक्रेन में यह संख्या 2 लाख के करीब है। रूस के पास रिजर्व फोर्सेज करीब 20 लाख है तो यूक्रेन के पास 11 लाख के करीब। रिजर्व फोर्सेज में वे लोग शामिल होते हैं जिन्होंने पांच साल के भीतर सैन्य सेवा की है। रूस में पारा मिलिट्री फोर्सेज ढाई लाख है तो यूक्रेन में इनकी संख्या 50 हजार के करीब है। रूस के नौसैनिक बेड़े में 605 के करीब जहाज हैं, जिनमें 11 युद्धपोत हैं। वहीं यूक्रेन के पास महज 38 नौसेना जहाज हैं, जिसमें केवल एक युद्धपोत हैं। रूस के पास कुल 4 हजार से ज्यादा एयरक्राफ्ट हैं, तो यूक्रेन के पास तीन सौ के करीब एयरक्राफ्ट हैं। वहीं रूस के साढ़े सात सौ फाइटर एयरक्राफ्ट के मुकाबले यूक्रेन के पास सिर्फ 69 फाइटर एयरक्राफ्ट हैं। हेलिकॉप्टर की बात करें तो रूस के पास पंद्रह सौ से ज्यादा हेलिकॉप्टर हैं। जबकि यूक्रेन के पास सौ से कुछ ही ज्यादा हेलिकॉप्टर हैं। अटैक हेलिकॉप्टर रूस के पास 544 है तो यूक्रेन के पास 112 है। आर्मर्ड व्हीकल्स यानी बख्तरबंद गाडियां रूस के पास तीस हजार से ज्यादा हैं तो यूक्रेन के पास 12 हजार से कुछ ही ज्यादा हैं। टैंक के मामले में भी रूस यूक्रेन से काफी आगे है। रूस के पास जहां साढ़े बारह हजार के करीब टैंक हैं, तो यूक्रेन के पास टैंकों की संख्या ढाई हजार के आसपास ही है। वहीं रूस के पास करीब साढ़े सात हजार तोपखाना है तो यूक्रेन के पास दो हजार के करीब ही तोपखाना है।

रूस और यूक्रेन का रक्षा पर खर्च

2020 तक रूस अपने कुल जीडीपी का 4.3 फीसदी यानी 61.9 बिलियन डॉलर अपनी रक्षा पर खर्च कर रहा था। वहीं यूक्रेन का रक्षा खर्च कुल जीडीपी का 4.1 फीसदी यानी 5.9 बिलियन अमेरिकी डॉलर ही था। ऐसे में रूस और यूक्रेन में युद्ध की बराबरी नहीं हो सकती। लेकिन युद्ध की स्थिति में अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देश यूक्रेन को हथियार उपलब्ध करा रहे हैं।

किसके पास कितना परमाणु हथियार?

लेकिन बात जब अमेरिका और पश्चिमी यूरोपीय देशों की साझा सैन्य शक्ति की आती है तो एक साथ मिलकर ये देश रूस से काफी आगे निकल जाते हैं। हालांकि युद्ध का सबसे खतरनाक मोड़ है परमाणु हथियारों का इस्तेमाल। अगर परमाणु हथियारों की बात करें तो इस मामले में रूस 6 हजार दो सौ परमाणु हथियारों के साथ अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस के सम्मिलित परमाणु हथियारों से भी आगे निकल जाता है। अमेरिका के पास करीब साढ़े पांच हजार परमाणु हथियार हैं। वहीं फ्रांस के पास करीब 290 और ब्रिटेन के पास करीब 225 न्यूक्लियर हथियार हैं। ऐसे में अगर लड़ाई पारंपरिक युद्ध से हटकर परमाणु युद्ध तक पहुंच जाती है तो दुनिया तबाह हो जाएगी।

हालांकि युद्ध की विनाशकारी स्थिति से बचने के लिए दुनिया के ज्यादातर देश अपने-अपने तरीके से कोशिश कर रहे है। क्योंकि युद्ध से पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था पर गंभीर प्रभाव पड़ना लाजमी है। प्राकृतिक गैस और तेल का अकूत भंडार लिए रूस अगर यूरोपीय देशों को इनकी सप्लाई बंद कर देगा तो यूरोप में भयानक ऊर्जा संकट पैदा हो जाएगा। इस दौरान रूस पर भी बेहद सख्त आर्थिक प्रतिबंध लगाए जा चुके हैं। ऐसे में रूस को भी भारी आर्थिक नुकसान होगा। ऊर्जा संकट से लेकर खाद्यान्न की कमी से पूरी दुनिया को दो-चार होना पड़ेगा। यहाँ तक कि भारत भी इससे अछूता नहीं रह पाएगा।

रूस-यूक्रेन युद्ध का वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ने वाले असर की विस्तार से चर्चा करेंगे... रूस-यूक्रेन युद्ध पर विशेष आलेख की अगली कड़ी यानी चौथे भाग में... जानेंगे कि दुनिया की अर्थव्यवस्था को कितना और किस तरह से नुकसान पहुंचाएगा यह युद्ध और क्या होगा इसका आर्थिक परिणाम?

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टिप्पणियाँ

Ritu Kumar डी, एम / डी / वाई - एच :51

रूस-यूक्रेन युद्ध सीरीज के दूसरे भाग में हमने चर्चा की थी कि सोवियत शासन के दौरान रूस और यूक्रेन के बीच संबंध कैसे थे और सोवियत संघ टूटने के बाद कैसे यूक्रेन एक स्वतंत्र देश बना। इसके साथ ही हमने क्रीमिया के इतिहास और रूस द्वारा क्रीमिया के अधिग्रहण की बात भी बताई थी। हालांकि, यूक्रेन के स्वतंत्र होने के बाद से उसकी नीति पश्चिमी देशों की तरफ झुकती चली गई और वह रूस के प्रभाव से निकल कर नाटो का सदस्य बनने की राह पर चल पड़ा। और यहीं से रूस और यूक्रेन के संबंध बिगड़ने शुरू हो गए और स्थिति युद्ध तक पहुंच गई। रूस यूक्रेन युद्ध सीरीज के विशेष आलेख के इस तीसरे भाग में हम चर्चा करेंगे कि नाटो को लेकर रूस इतना कड़ा रुख क्यों रखता है? और वह क्यों नहीं चाहता है कि यूक्रेन किसी भी सूरत में नाटो का सदस्य बने? साथ ही बात करेंगे कि नाटो क्या है? इसका मकसद क्या है? यूक्रेन क्यों नाटो का सदस्य बनना चाह रहा है और रूस क्यों इसका विरोध कर रहा है? इसके अलावा नाटो से रूस के रिश्ते अब तक कैसे रहे हैंऔर भविष्य में किस तरह के संबंध होने की संभावना है।