अगस्त क्रांति: जिसने अंग्रेज़ों को भारत छोड़ने पर मज़बूर कर दिया
देश को आजादी यूं ही नहीं मिली। आने वाली पीढ़ियां, आजाद हवा में सांस ले सकें, इसके लिए लाखों लोगों ने कुर्बानियां दी। भारत छोड़ो आंदोलन ने, जिस आजादी की बुनियाद रखी... क्या उसके मायने हम समझ पा रहे हैं? विरासत में मिली ये आजादी.. क्या हमें कुछ कर गुजरने का जज्बा देती है? ऐसे कई सवाल हैं... जो भारत छोड़ो आंदोलन के करीब आठ दशक बाद भी मौजूं है। हमे इस बात को गहराई से समझने की जरूरत है कि क्या हम भारत छोड़ो आंदोलन से कुछ सीख ले पाए हैं?
हमारे देश को स्वतंत्रता बहुत ही मुश्किलों से मिली। न जाने कितनी क्रांतियां हुई और कितने ही क्रांतिकारी शहीद हुए तब जाकर हम अब आजाद भारत में सांस ले रहे हैं। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम हो या अगस्त क्रांति... ये दिन हमें याद दिलाते हैं कि स्वतंत्रता पाने के लिए देश के महान सपूतों ने कितनी कुर्बानियां दी। अंग्रेजी सत्ता की नींव हिला देने वाली अगस्त क्रांति के दौरान भी सैकड़ों देशभक्तों ने अपनी जान गवां दी।
भावी पीढ़ी को यह जानने की जरूरत है कि भारत छोड़ो आंदोलन के जरिए महात्मा गांधी ने किस तरह अंग्रेजी हुकूमत की नींव हिला दी थी। अगस्त क्रांति के दौरान कौन सी घटना कहाँ हुई और किन-किन महत्वपूर्ण लोगों को गिरफ्तार किया गया और ब्रिटिश हुकूमत ने निहत्थे जनता पर कितने जुल्म ढाए? कैसे इस आंदोलन ने देश की आजादी के आंदोलन को काफी तेज कर दिया था?
क्यों शुरू हुआ भारत छोड़ो आंदोलन?
दरअसल, भारत छोड़ो आंदोलन ऐसे समय शुरू किया गया जब दुनिया जबरदस्त बदलाव के दौर से गुजर रही थी। पश्चिम में युद्ध लगातार जारी था और पूर्व में साम्राज्यवाद के खिलाफ आंदोलन तेज होते जा रहे थे। भारत...एक तरफ महात्मा गांधी के नेतृत्व की आशा कर रहा था, जो अहिंसक उपायों और सत्याग्रह से समाज को बदलना चाहते थे। दूसरी तरफ नेता जी सुभाष चंद्र बोस ने दिल्ली चलो का नारा दिया था और भारत को आजाद कराने के लिए फौज के साथ निकल पड़े थे।
दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत
विश्व दो ध्रुवों में बंटा था और द्वितीय विश्व युद्ध छिड़ चुका था। ब्रिटिश फौजों की दक्षिण-पूर्व एशिया में हार होने लगी थी। दूसरी तरफ भारत पर जापान के हमले का डर दिनों-दिन बढ़ता जा रहा था। एक समय ये भी तय माना जाने लगा था कि जापान भारत पर हमला कर ही देगा। ऐसे में ब्रिटेन को भारत से समर्थन की कोई उम्मीद नहीं दिखाई दे रही थी। मित्र देश, अमेरिका, रूस और चीन, ब्रिटेन पर लगातार दबाव डाल रहे थे कि इस संकट की घड़ी में वो भारतीयों का समर्थन हासिल करने के लिए पहल करे। इधर, राष्ट्रवादी नेताओं ने भी भारत को पूरी तरह आज़ाद करने के लिए ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल से गुज़ारिश की, लेकिन ब्रिटिश सरकार ने महज खानापूर्ति के लिए मार्च 1942 में क्रिप्स मिशन को भारत भेज दिया। जिसने विश्व युद्ध में ब्रिटेन को समर्थन के बदले भारत को औपनिवेशिक राज्य का दर्जा देने की पेशकश की। ब्रिटिश सरकार भारत को पूर्ण स्वतंत्रता देना नहीं चाहती थी। वो भारत की सुरक्षा अपने हाथों में ही रखना चाहती थी। साथ ही गवर्नर-जनरल के वीटो अधिकारों को भी पहले जैसा ही रखने के पक्ष में थी। भारतीय प्रतिनिधियों ने क्रिप्स मिशन के सारे प्रस्तावों को सिरे से खारिज कर दिया।
क्रिप्स मिशन की असफलता
क्रिप्स मिशन के ख़ाली हाथ वापस जाने पर भारतीयों को छले जाने का अहसास हुआ। वहीं विश्व युद्ध के कारण परिस्थितियां गंभीर होती जा रही थीं। जापान सफलतापूर्वक सिंगापुर, मलाया और बर्मा पर क़ब्ज़ा कर भारत की ओर बढ़ने लगा था। जापान के बढ़ते प्रभुत्व को देखकर 5 जुलाई 1942 को गांधी जी ने हरिजन में लिखा "अंग्रेज़ों ! भारत को जापान के लिए मत छोड़ो, बल्कि भारत को भारतीयों के लिए व्यवस्थित रूप से छोड़ जाओ”। अंग्रेज़ सरकार के रवैये से निराश भारतीयों ने ये मानना शुरू कर दिया कि साम्राज्यवाद पर अंतिम प्रहार करना आवश्यक हो गया है।
महंगाई की मार
असंतोषजनक आर्थिक स्थिति ने भी महात्मा गांधी को भारत छोड़ो आंदोलन चलाने के लिए बाध्य कर दिया। युद्ध के कारण तमाम वस्तुओं के दाम बेतहाश बढ़ रहे थे, जिसके लिए अंग्रेज सरकार को जिम्मेदार माना गया। पूर्वी बंगाल में बहुत से लोगों को बिना मुआवजा दिए उनकी जमीनों से वंचित किया गया। सेना के लिए किसानों के घर जबरदस्ती खाली करवाए गए। इन सब वजहों से अंग्रेज़ सत्ता के ख़िलाफ़ भारतीय जनमानस में गहरा असंतोष व्याप्त होने लगा था और पूरा माहौल अंग्रेजों के खिलाफ हो गया था..।
जनता में छटपटाहट
ऐसे माहौल में भारत की जनता अंग्रेजों की गुलामी से आजादी पाने के लिए उबलने लगी। उसे लगा कि सदियों पुरानी दासता की बेड़ियों को तोड़ डालने का जो इंतजार था, वो समय आ गया है। जनता का गुस्सा और अंग्रेजों की दासता से मुक्त होने छटपटाहट को देखकर ही ‘करो या मरो’ के नारे के साथ महात्मा गांधी ने भारत छोड़ो आंदोलन का बिगुल बजा दिया। महात्मा गांधी की ललकार पर, लाखों भारतीय ..अपने जीवन को, देश की आजादी की लिए कुर्बान करने, घरों से निकल पड़े।
भारत छोड़ो आंदोलन का आह्वान
भारत छोड़ो आंदोलन' या 'अगस्त क्रांति भारतीय स्वतन्त्रता आन्दोलन' की आखिरी महान लड़ाई थी, जिसने ब्रिटिश शासन की नींव को हिलाकर रख दिया। 14 जुलाई 1942 को वर्धा में कांग्रेस कार्यसमिति ने 'अंग्रेज़ों भारत छोड़ो प्रस्ताव' पारित किया। आन्दोलन की सार्वजनिक घोषणा से पहले 1 अगस्त, 1942 को इलाहाबाद में 'तिलक दिवस' मनाया गया। 8 अगस्त, 1942 को 'अखिल भारतीय कांग्रेस की बैठक मुंबई के 'ग्वालिया टैंक' में हुई। जिसे बाद में अगस्त क्रांति मैदान के नाम से जाना जाने लगा। बैठक में ऐतिहासिक 'भारत छोड़ो प्रस्ताव' को कांग्रेस कार्यसमिति ने कुछ संशोधनों के साथ 8 अगस्त, 1942 को स्वीकार कर लिया। देश भर के स्वतंत्रता सेनानियों की एक ही मांग थी - पूर्ण स्वराज । इस मौके पर महात्मा गांधी ने ऐतिहासिक भाषण देते हुए कहा था 'मैं आपको एक मंत्र देना चाहता हूं जिसे आप अपने दिल में उतार लें और आपकी हर सांस के साथ इस मंत्री की आवाज़ आनी चाहिए। ये मंत्र है, ‘करो या मरो'।
गाँधी जी के शब्दों ने जनता पर जादू-सा असर डाला और वे नये जोश, नये साहस, नये संकल्प, नई आस्था, दृढ़ निश्चय और आत्मविश्वास के साथ स्वतंत्रता संग्राम में कूद पड़े।
9 अगस्त 1942 की सुबह
9 अगस्त 1942 को भारत छोड़ो आंदोलन शुरू होने के बाद मुंबई सिटी में गांधी और वर्किंग कमेटी के सदस्यों को गिरफ्तार कर लिया गया। मुंबई में लोगों पर आंसू गैस के गोले भी दागे गए। 15 जगहों पर पुलिस फायरिंग में 8 लोग मारे गए और 44 लोग घायल हुए। इसके अलावा अहमदाबाद में हड़ताल होने और पुलिस फायरिंग में एक व्यक्ति की मौत हो गई। पूना में छात्रों की भीड़ पर पुलिस फायरिंग हुई जहां एक विद्यार्थी की मौत हो गई। वहीं सूरत शहर में अंग्रेजों ने आंदोलन को दबाने के लिए बड़ी संख्या में सैनिक भेजे। उत्तर प्रदेश में कांग्रेस के कई बड़े नेताओं को गिरफ्तार किया गया। लखनऊ, इलाहाबाद और कानपुर में हड़ताल की कोशिश हुई। पंजाब के लाहौर और अमृतसर में लोगों ने बड़ी सभाएं की। बिहार में राजेंद्र प्रसाद और दूसरे नेताओं को गिरफ्तार कर लिया गया।
अंग्रेज़ों का जुल्म
आंदोलन की घोषणा के 24 घंटे के भीतर ही सभी बड़े नेता गिरफ्तार कर लिए गए। गाँधी जी को पूना के 'आगा ख़ाँ पैलेस' और कांग्रेस कार्यकारिणी के अन्य सदस्यों को अहमदनगर के दुर्ग में रखा गया। कांग्रेस को अवैधानिक संस्था घोषित कर दिया गया। फिर भी आंदोलन का नेतृत्व करने के लिए जनता के बीच से ही नेता उभर कर सामने आए। जयप्रकाश नारायण, राममनोहर लोहिया और अरुणा आसफ़ अली जैसे नेताओं ने भूमिगत रहकर आन्दोलन को नेतृत्व प्रदान किया। बम्बई में उषा मेहता और उनके कुछ साथियों ने कई महीने तक कांग्रेस रेडियो का प्रसारण किया।
पूरे देश में अंग्रेजों के खिलाफ चला आंदोलन
पटना के नौजवान विद्यार्थियों ने तो बलिदान का स्वर्णिम इतिहास ही रच डाला। 11 अगस्त 1942 को सचिवालय पर तिरंगा फहराने के दौरान फिरंगी हुकूमत की गोलियों से सात छात्र शहीद हो गए। सरकार ने जब आंदोलन को दबाने के लिए लाठी और बंदूक का सहारा लिया तो आन्दोलन का रूख बदलकर हिंसात्मक हो गया। अनेक जगहों पर रेल की पटरियाँ उखाड़ी गईं और स्टेशनों में आग लगा दी गई। बम्बई, अहमदाबाद और जमशेदपुर में मज़दूरों ने संयुक्त रूप से विशाल हड़तालें कीं। संयुक्त प्रांत में बलिया और बस्ती, बम्बई में सतारा, बंगाल में मिदनापुर और बिहार के कुछ भागों में अस्थायी सरकारों की स्थापना की गयी। सतारा में विद्रोह का नेतृत्व नाना पाटिल ने किया था। पहली समानांतर सरकार बलिया में चितू पाण्डेय के नेतृत्व में बनी।
भारत छोड़ो आंदोलन का इतिहास गुमनाम योद्धाओं के बलिदानों से भरा पड़ा है। उस दौर के किसानों, मील मजदूरों, पत्रकारों, कलाकारों, छात्रों, शिक्षा शास्त्रियों, धार्मिक संतों की कई गुमनाम गाथाएं हैं। जन-आंदोलनों से भारत की आजादी की मजबूत जमीन पूरी तरह तैयार हो चुकी थी और अब इसमें स्वतंत्रता के बीज बोने भर की देर थी।
जनता का आह्वान करते हुए वाजपेयी की कविता
भारत छोड़ो आंदोलन में भाग लेने वाली महिलाओं और पुरुषों समेत तमाम देश की जनता को आजादी के लिए आह्वान करते पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने एक कविता लिखी थी जो 11 फरवरी 1946 को ‘अभ्युदय’ पत्रिका में प्रकाशित हुई थी।
नौ अगस्त सन बयालीस का लोहित स्वर्ण प्रभात
जली आंसुओं की ज्वाला में परवशता की रात।
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करो या मरो, भारत छोड़ो घन-सा गर्जा गांधी,
वृद्ध देश का यौवन मचला, चली गजब की आंधी।
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गौरी शंकर के गिरी-गहर गूंजे ‘भारत छोड़ो’
गृह-आंगन-वन-उपवन कूजे ‘भारत छोड़ो’।
कुलू-कांगड़ा की अमराई डोली भारत छोड़ो,
विंध्यांचल की शैल-शिखरियाँ बोली भारत छोड़ो।
कोटि कोटि कंठों से निकला भारत छोड़ो नारा,
आज ले रहा अंतिम सांसें यह शासन हत्यारा।
अटल बिहारी वाजपेयी की यह कविता इस बात की गवाही देती है कि भारत छोड़ो आंदोलन का दायरा कितना बड़ा था और कितने बड़े पैमाने पर लोगों ने इस आंदोलन में हिस्सा लिया था। ये उन असंख्य देशभक्तों की कुर्बानियां का नतीजा ही है कि आज हम खुली हवा में सांस ले रहे हैं।