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अहमदनगर का भुईकोट किला- यादों के ख़ज़ाने से भरपूर है क़िले का इतिहास।

अहमदनगर किला

एक ऐसा किला... जिसके प्राचीर के भीतर भारत के समकालीन इतिहास और उसके स्वतंत्रता संग्राम का एक बड़ा हिस्सा छिपा हुआ है। एक ऐसा किला… जिसने करीब 600 वर्षों के दौरान अनगिनत लड़ाइयां देखी, अनेक साम्राज्यों का पतन देखा, अनेक मालिकों के अधीन रहा और उन तमाम इतिहासों को खुद में समेटे आज भी शान से खड़ा है। महाराष्ट्र के अहमदनगर शहर के बीचों-बीच स्थित यह किला समृद्ध भारतीय इतिहास का प्रतीक है, जो हमारे देश की कई सौ सालों की यात्राओं का गवाह रहा है...और भारतीय इतिहास की यादों से भरा पड़ा है।

निजाम शाही वंश के उदय का प्रतीक होने से लेकर मुगलों के वर्चस्व की गवाही तक, मराठों के उदय का गवाह बनने से लेकर भारत के स्वतंत्रता संग्राम में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने तक... इस विशाल किले ने अपने अंदर भारतीय इतिहास और स्वतंत्रता संग्राम की अनेक अनमोल यादें संजोई हुई है... और यही वजह है कि यह किला भारत के सबसे महत्वपूर्ण ऐतिहासिक किलों में से एक है।

गुलामी के दिनों में भारत के स्वतंत्रता के लिए होने वाले मौन संघर्ष का एक अंश खुद में छिपाए इस किले को कई नामों से जाना जाता है....मसलन... भुईकोट किला... कोट बाग निजाम और अहमदनगर किला.....। अहमदनगर किले को भुईकोट किला इसलिए कहा जाता है कि इस किले का निर्माण किसी पहाड़ी या ऊंचे स्थान पर नहीं बल्कि समतल जमीन पर किया गया है।

मध्यकाल से आधुनिक काल तक का इतिहास छिपा है किले में

16वीं सदी में निर्मित एक मील से ज्यादा परिधि वाले इस अंडाकार आकार के अभेद्य किले ने निजामशाही, मुगल, मराठा और ब्रिटिश हुकूमतों का दौर देखा है। यह किला उस दौर का भी गवाह है जब भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों द्वारा देश के अनेक शीर्ष नेताओं को यहां नजरबंद रखा गया था। बंदी बनाए गए उन नेताओं के बैरक और जगह को अब लीडर्स ब्लॉक कहा जाता है। इसी लीडर्स ब्लॉक में कैद किए गए नेताओं ने आजाद भारत की नीतियों पर लंबी-लंबी चर्चाएं की थी और अनेक कालजयी पुस्तकों का लेखन किया। आज भी उनके साक्ष्य यहां मौजूद है।

बहमनी साम्राज्य से टूट कर बना था अहमदनगर क़िला

इस ऐतिहासिक किले की कहानी शुरू होती है 15वीं सदी के अंतिम दशक से.... जब तत्कालीन बहमनी साम्राज्य पांच उप-राज्यों में विभाजित हो गया। इन पांच उप-राज्यों में से अहमदनगर भी एक था जिसे निज़ामशाही के नाम से जाना गया। दरअसल बहमनी राज ने अपने अंतिम दिनों में अहमदनगर और आस-पास के इलाके की जिम्मेदारी मलिक अहमद शाह प्रथम को सौंप दी थी। मलिक अहमद शाह प्रथम ने 1490 में बहमनी राज से बगावत कर खुद को आजाद घोषित कर दिया और अहमदनगर के निजामशाही राजवंश की स्थापना की।

कुछ ही वर्षो में उसने एक नई राजधानी बनाई जिसका नाम रखा गया अहमदनगर। शुरू में यह एक मिट्टी का कच्चा किला था। कुछ दशक बाद 1553 से 1565 के बीच मलिक अहमद शाह प्रथम का पोता हुसैन निजाम शाह ने आस-पास मिलने वाली बेसाल्ट चट्टानों से नए रूप में इस किले का निर्माण कराया। किले की सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए इसके चारों ओर एक खाई बनाई गई ताकि दुश्मन की सेना पत्थर की दीवार से सुरक्षित दूरी पर रहे और इस तरह से यह किला लगभग एक अजेय दुर्ग बन गया।

24 बुर्ज हैं अहमदनगर किले की खासियत

इस किले की खासियत हैं इसके 24 बुर्ज... जो स्पष्ट रूप से सैन्य आक्रमणों से बचाव के लिए बनाए गए थे। अपने सुनहरे दिनों में प्रत्येक बुर्ज में 8 तोपें रखी जाती थी जो वास्तविक रूप में इस किले को सैन्य किला बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। आज इन बुर्जों में से अधिकांश खंडहर की स्थिति में हैं, लेकिन इन्हें देखने से इस ऐतिहासिक किले की मजबूती और उसके महत्व का पता आसानी से चलता है।

साठ फुट चौड़ी खाई और 25 मीटर ऊंची दीवारें

दुश्मनों से अभेद रखने के लिए इन किले के चारों तरफ बनाई गई चौड़ी खाई करीब साठ फुट चौड़ी और 4 से 6 मीटर गहरी है। यह खाई दोनों तरफ पत्थरों से बनी है। उस दौर में इसमें हमेशा पानी भरा होता था। इस खाई को पार करने के लिए एक ऐसा पुल बनाया गया था जिसे एक छोर से रस्सी से खींचकर उठा लिया जाता था ताकि दुश्मन या कोई अंजान व्यक्ति खाई पार न कर सकें। वहीं किले को सुरक्षित रखने की दृष्टि से कटे हुए पत्थर की चिनाई से बनी किले की विशाल दीवारें खाई के तल से 25 मीटर ऊंची बनाई गई। 

किले की बुर्ज पर जगह-जगह ऐसे स्थान बने हुए हैं जहां से किले के सैनिक दुश्मनों की आती हुई सेना पर ज्वलनशील पदार्थ और पत्थर के बड़े-बड़े टुकड़े फेंक सकते थे। इसे देखकर आसानी से समझा जा सकता है कि दुश्मन की सेना का किले के अंदर आना कितना मुश्किल और जोखिम भरा काम था। कहा जाता है कि पुर्तगालियों ने इस किलों को बनाने में मदद की थी।

सस्पेंशन पुल के जरिए ही होता था क़िले में प्रवेश

किले की बाहरी बनावट जितनी मजबूत, सुरक्षित और दर्शनीय है ... किले की अंदर की कहानियां भी उनती ही दिलचस्प और ऐतिहासिक है। मूल रूप से इस किले में प्रवेश करने के लिए दो द्वार थे, एक पश्चिम की ओर पहिएदार यातायात के लिए और दूसरा पूर्व की ओर पैदल यात्रियों के लिए सैली पोर्ट यानी छोटे, छिपे हुए और गुप्त द्वार। किले के इन दोनों प्रवेश द्वारों तक 60 फुट चौड़ी खाई को पार करके, सस्पेंशन पुलों के जरिए ही पहुंचा जा सकता था। हालांकि अंग्रेजों ने इस किले पर कब्जा करने के बाद इन दरवाजों को बंद कर दिया और वर्तमान प्रवेश द्वारा का निर्माण 1943 में किले की दीवार को तोड़कर और खाई के हिस्से को भरकर किया था। लेकिन आज भी जर्जर हालत में मौजूद किले की मूल दरवाजे अपने अतीत के गौरव को बयां करते हैं।

हाथी भी नहीं भेद सकते थे क़िले की दरवाजें

किले के अंदर एक स्थित एक दरवाजा है हाथी दरवाजा। हाथी नाम इसलिए है कि यह दरवाजा इनता ऊंचा, मोटा और मजबूत लकड़ी का बना है कि हाथियों का दस्ता भी इस किले को भेद नहीं पाएगा। दरवाजे पर लगे हुए मोटे-मोटे लोहे के कील...कई सौ साल बाद और कितनी ही लड़ाइयों को सहने के बावजूद आज भी अभेद्य ही हैं।

क़िले की रक्षा करते हुए चाँद बीबी ने अकबर की सेना को हराया

अहमदनगर किले ने कई ऐतिहासिक घटनाएं देखी हैं और आज भी किले की इमारत उनकी गवाही देती है। इसी अहमदनगर किले की एक साहसी महिला रानी चांद बीबी ने 1596 ईस्वी में इस किले की रक्षा के लिए अकबर की सेना के खिलाफ हाथ में तलवार लेकर अपनी सेना का नेतृत्व किया था और उन्हें भगा दिया था। हालांकि 1600 ईस्वी में मुगलों ने दोबारा आक्रमण कर इस किले को जीत लिया और 1636 में शाहजहां ने इसे मुगल साम्राज्य में मिला लिया। इसी किले में 1707 में औरंगजेब की मृत्यु हुई थी। मुगलों के बाद कुछ समय तय यह किला हैदराबाद के निजाम के कब्जा में रहा। बाद में यह किला मराठा और सिंधिया के हाथ में भी गया और आखिर में 1803 के दूसरे एंग्लो-मराठा युद्ध में अंग्रेज जनरल आर्थर वेलेजली ने मराठों को हराकर इस किले पर कब्जा कर लिया। उसके बाद से आजादी तक इस किले पर अंग्रेजों का कब्जा बना रहा।

भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों ने शीर्ष नेताओं को क़िले में कैद किया

मराठों और अंग्रेजों ने अहमदनगर किले का इस्तेमाल शाही जेल के रूप में भी किया। नाना फडणवीस जिन्होंने इस किले में कई मराठा सामंतों को कैद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, खुद दौलतराव शिंदे द्वारा इसी किले में कैद कर दिए गए थे। वहीं अंग्रेजों ने 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान महात्मा गांधी को छोड़कर कांग्रेस कार्यसमिति के ज्यादातर सदस्यों को करीब तीन साल तक इस किले में बंदी बनाकर रखा...।  जिनकी चर्चा के बिना इस किले का इतिहास पूरा नहीं हो सकता। इन नेताओं में जवाहरलाल नेहरू, अबुल कलाम आजाद, सरदार वल्लभ भाई पटेल, डॉ पी सी घोष, हरेकृष्ण महताब, अरुणा आसफ अली, आचार्य जेबी कृपलानी, आचार्य नरेंद्र देव और गोविंद बल्लभ पंत आदि शामिल थे। 

नेताओं की कैद की याद दिलाता लीडर्स ब्लॉक

किले की एक छोटी सी इमारत इन नेताओं की जेल बनी थी। आज वहां लीडर्स ब्लॉक का साइन बोर्ड लगा हुआ है जो इन नेताओं की कैद की याद दिलाता है। आजादी के लिए संघर्षरत इन नेताओं के लिए जेल में बने इस लीडर्स ब्लॉक में कई कमरे हैं। हर कमरे के दरवाजे पर उस नेता का नेम प्लेट लगा हुआ है जिसमें उसे कैद रखा गया था। आज भी पंडित जवाहरलाल नेहरू और सरदार वल्लभ भाई पटेल का कमरा उसी तरह से रखा गया है जैसे तब था जब वे यहां कैद थे। 

नेहरू ने कैद के दौरान इसी क़िले में लिखी Discovery of India

हालांकि इन नेताओं को समय - समय पर आपस में मिलने और विचार-विमर्श करने की छूट थी। इन दूरदर्शी नेताओं ने इस छूट का खूब फायदा उठाया और आजाद भारत की नीतियों पर भी खूब मंथन किया। अहमदनगर किले में कैद रहने के दौरान ही दुनिया को कुछ बेहतरीन पुस्तकें पढ़ने को मिली जिसे यहां कैद नेताओं ने लिखा।

जवाहरलाल नेहरू ने अपनी मशहूर पुस्तक डिस्कवरी ऑफ इंडिया इसी किले में कैद रहते हुए लिखी थी। इस पुस्तक की कुछ पांडुलिपियाँ आज भी यहां देखी जा सकती हैं।

इसी किले में डॉ प्रफुल्ल चन्द्र घोष ने प्राचीन भारतीय सभ्यता का इतिहास नामक पुस्तक लिखी थी।

कैद के दौरान ही मौलाना अबुल कलाम आजाद ने गुबार-ए-ख़ातिर को संकलित किया थाजिसे उर्दू साहित्य में उपनिवेशवादी निबंध का सबसे अच्छा उदाहरण माना जाता है।

यहां कैद रहते हुए ही ओडिशा के पहले मुख्यमंत्री और अविभाजित बॉम्बे राज्य के पूर्व राज्यपाल हरेकृष्ण महताब ने उड़िया में ओडिशा के इतिहास के तीन खंड संकलित किए थे। जिसका बाद में अंग्रेजी और हिन्दी में अनुवाद करके प्रकाशित किया गया।

अहमदनगर किला वर्तमान में भारतीय सेना की बख्तरबंद कोर के अधीन

अहमदनगर किला वर्तमान में भारतीय सेना की बख्तरबंद कोर के प्रशासन के अधीन है। लेकिन करीब 600 सालों के इतिहास को खुद में समेटे यह किला हर भारतवासी और आने वाली पीढ़ियों को मध्यकालीन भारत और स्वतंत्रता आंदोलन से जुड़े ऐतिहासिक घटनाओं की साक्ष्य बनकर गवाही देता रहेगा।

किले के ऊपर लहराता भारतीय तिरंगा झंडा इस बात का प्रतीक है कि अब यह भारत सरकार के संरक्षण में है।

 

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