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आजादी का 75वां जश्न और हमारी विरासत

75वां जश्न और हमारी विरासत

15 अगस्त 1947...भारतीय इतिहास का वह सुनहरा दिन... जब सदियों की गुलामी और दासता के बाद भारत ने आजादी हासिल की थी....खुदमुख्तार मुल्क के रूप में 15 अगस्त 1947 को भारत ने दुनिया के मानचित्र पर अपनी जगह बनाई और यह तारीख हर भारतीय के दिलों-दिमाग पर सुनहरे अक्षरों में अंकित हो गया...। आजाद होने के बाद भारत ने अपनी दृढ़ इच्छा शक्ति, लगातार कठिन परिश्रम और वसुधैव कुटुंबकम की नीति पर आगे बढ़ते हुए हर क्षेत्र में विकास और बदलाव को नई दिशा और गति प्रदान की। इन कोशिशों का नतीजा ये हुआ कि हर क्षेत्र में बदलाव हुए जिन्होंने देश के रुख को बदल दिया और भारत को एक नई पहचान दी। आज भारत शिक्षा, अर्थव्यवस्था, तकनीक, रक्षा, खेल, उद्योग और नवाचार समेत तमाम क्षेत्रों में वैश्विक पटल पर अपनी सुदृढ़ पहचान के साथ खड़ा है।

15 अगस्त का दिन हमें अपने ऐतिहासिक उपलब्धियों पर गर्व करने का मौका देता है और साल 2021 के लिए तो यह दिन और खास है क्योंकि इस वर्ष हम अपनी आजादी की 75वीं सालगिरह के मौके पर ‘आजादी का अमृत महोत्वस’ मना रहे हैं। लेकिन तमाम उपलब्धियों और गर्व के अनुभव के साथ ही 15 अगस्त का दिन यह भी याद दिलाता है कि हम अपने उन महान उद्देश्य और लक्ष्य को भी याद रखें जिसे हमारे स्वतंत्रता सेनानी और महान देशभक्तों ने आजादी के साथ देखा था।

15 अगस्त 1947 को एक नए स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में भारत का उदय जहां भारत के लोगों के लिए खुशी का पल था वहीं देश का विभाजन भारत-पाकिस्तान के रूप में होना पीड़ादायक घटना भी थी। दरअसल आजादी के साथ ही विभाजन की त्रासदी देश की आत्मा पर एक गहरी चोट थी। इसकी वजह से विश्व के इतिहास में सबसे बड़ी पलायन की घटना घटी। विभाजन की वजह से करीब डेढ़ करोड़ लोगों को अपने घर छोड़ने के लिए मजबूर होना पड़ा। भारत में उपनिवेशी शासन द्वारा गढ़ी गई साम्प्रदायिकता की जहर ने दस से बीस लाख लोगों से उनका जीवन छीन लिया। यह वक्त था जब मुसलमान पूर्वी और पश्चिमी पाकिस्तान की तरफ तो हिन्दू और सिख पश्चिमी बंगाल और पूर्वी पंजाब की तरफ चले जा रहे थे। लाखों लोगों के लिए यह ऐसी यात्रा साबित हुई, जिसमें वे कभी अपने मंजिल तक पहुंच हीं नहीं पाएं और सुरक्षित जगह पहुंचने की चाह लिए रास्ते में ही खत्म हो गए।

इन विकट परिस्थितियों के बीच, भारत 14 और 15 अगस्त 1947 की दरमियानी रात को बारह बजे एक आजाद देश तो बन गया... लेकिन इस दौरान उसे अनेक समस्याओं का सामना भी करना पड़ा। एक तरफ जहां भारत और पाकिस्तान के बीच बंटवारा हो रहा था... दोनों देशों की करोड़ों जनता एक जगह से दूसरे जगह पलायन कर रही थी... वहीं भारत के उत्तरी और पूर्वी छोर पर भीषण दंगे हो रहे थे।

इन तमाम समस्याओं और परेशानियों के बीच भी एक चीज थी जो सदियों के संघर्ष और अनेक देशभक्तों की कुर्बानियों के बाद हासिल हुई इस आजादी के लक्ष्य और आदर्शों को अपने मानस पटल से ओझल नहीं होने दे रही थी... और वो थी हमारे राष्ट्र निर्मताओं और तत्कालीन राजनीतिज्ञों की देश की सेवा, सामाजिक सौहार्द और चहुंमुखी विकास को लेकर उनकी प्रतिबद्धता...। यही वजह थी कि आजादी के वक्त कठिन हालात होने के बावजूद हमारे देश के नीति-नियंता जो बहुत संयम के साथ संविधान सभा में भारत का आईना तैयार करने में जुटे हुए थे। वे भारत समेत दुनिया में शांति, सद्भाव, खुशहाली और समानता के स्थापना का सपना देख रहे थे जो हमारी सभ्यता और संस्कृति का अभिन्न अंग है।

लेकिन जब हम आज के दौर में संसद के भीतर और बाहर सांसदों और नेताओं का बर्ताव देखते हैं... समाज में असहिष्णुता देखते हैं....गैरबराबरी की दौड़ देखते हैं... तो लगता है कि ये वो सपना नहीं है जिसे हमारे महान देश के महान नेताओं और नीति नियंताओं ने देखा था।

हमें यह याद रखना चाहिए कि दुनिया में जितने भी देश उपनिवेश के शिकार रहे, उन्होंने किस तरह से आजादी पाई और भारत ने कैसे आजादी पाई। आजादी पाने के तरीकों के कारण ही भारत दुनिया के अन्य देशों से एक अलग पहचान पा लेता है।

14 अगस्त 1947 को संविधान सभा में बोलते हुए सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने कहा था कि “ जरा गौर कीजिए कि इतिहास में पराधीन जातियों ने किस तरह अपनी स्वतंत्रता प्राप्त की है। यह भी सोचिए कि किस तरह लोगों ने अधिकार प्राप्त किये हैं। वाशिंगटन, नेपोलियन, क्रॉमवेल, लेनिन, हिटलर और मुसोलिनी सरीखे व्यक्तियों की उन पद्धतियों पर जरा ध्यान दीजिये, जिनसे संसार के इन तथाकथित महापुरुषों ने सत्ता प्राप्त की थी। यहां इस देश में हमने उस व्यक्ति के नेतृत्व में, जो संभवत: इतिहास में इस युग का सर्वश्रेष्ठ महापुरुष कहा जाएगा, धीरता से क्रोध का सामना किया तथा आत्मिक शांति से नौकरशाही के अत्याचार के वार संभाले। और आज हम सभ्य उपायों से सत्ता प्राप्त कर रहे हैं।“

हजारों देशभक्तों की कुर्बानियों के बाद 15 अगस्त 1947 को आजादी तो नसीब हो गई लेकिन कुछ अलग तरह के सवाल भी खड़े हो गए। दरअसल आजादी की लड़ाई तो खत्म हुई, मगर एक दूसरे किस्म की लड़ाई की गुंजाइश बनी रही। वह लड़ाई किसी गैर से नहीं, खुद अपनों से होने वाली थी। आजादी के बाद वह दौर भी आ गया जब राजनेताओं के कंधों पर देश को सही दिशा देने की महती जिम्मेदारी आन पड़ी। वह जिम्मेदारी थी मेहनत, मशक्कत और खामोशी से देश की जनता का सेवा करने और नये नियम और कायदा बनाने की। एक ऐसा नियम-कायदा जिसमें हिन्दुस्तान की महज अकलियतों को नहीं, बल्कि तमाम नागरिकों को, गरीबों को जिम्मेदार बनाने और उसके जरिए नागरिकों के मुद्दें, परेशानियों को खत्म करने की कोशिश करने की... लेकिन जब जनता संसद के भीतर माननीय नेताओं के अमर्यादित भाषा और व्यवहार को देखती है तो एक तरह से ठगा हुआ महसूस करती है... बजाय जनता के जब राजनेता खुद की, अपनी पार्टी की और अपने नेता की तरफदारी करते ज्यादा दिखते हैं तब ऐसा लगता है कि आजाद भारत में इस तरह के व्यवहार की कल्पना ना तो हमारे राष्ट्रभक्तों ने की थी और ना ही देश की जनता ने...।

हमारे महान राष्ट्र नेताओं ने तो देश की जनता की नि:स्वार्थ सेवा और रक्षा की प्रतिज्ञा ली थी। 14 और 15 अगस्त के बीच रात को जब देश आजाद हो रहा था तब ठीक 12 बजे संविधान सभा के सदस्यों आजाद भारत की सेवा और रक्षा के लिए एक प्रतिज्ञा की थी। 75 शब्दों की इस प्रतिज्ञा में- त्याग, तपस्या, सेवा, अर्पण, उचित, गौरवपूर्ण, संसार, शांति, मानव-जाति, कल्याण और खुशी- जैसे शब्द थे। लेकिन वक्त के साथ इन शब्दों के मायने और उपयोग भी बदल गए हैं। आज जब भारत वैश्विक स्तर पर अपनी मजबूत पहचान के साथ आगे बढ़ रहा तब ऐसे समय में इन शब्दों को हमारे तमाम देशवासियों खासकर राजनेताओं को आत्मार्पित और आत्मसात करने की सबसे ज्यादा जरूरत है। 14 और 15 अगस्त की रात के बारह बजते ही विधान-परिषद के सभी उपस्थित सदस्यों ने देश सेवा और रक्षा की जो प्रतिज्ञा ली वह हमारे देश की महान ऐतिसाहिक और सांस्कृतिक विरासत की एक झलक ही है। वह प्रतिज्ञा थी...

“अब जबकि हिन्दवासियों ने त्याग (कुर्बानी) और तप से स्वतंत्रता (आजादी) हासिल कर ली है, मैं........जो इस विधान परिषद (आईन साज मजलिस) का एक सदस्य (मेम्बर) हूँ अपने को बड़ी नम्रता (निहायत इनकिसारी) से हिन्द और हिन्दवासियों की सेवा (खिदमत) के लिये अपने को अर्पण (वक्फ) करता हूँ ताकि यह प्राचीन (कदीम) देश (मुल्क) संसार में अपना उचित और गौरवपूर्ण (बाइज्जत) जगह पा लेवे और संसार में शांति स्थापना (अमन कायम) करने और मानव जाति (इन्सान) के कल्याण (बहबूदी) में अपनी पूरी शक्ति लगाकर खुशी-खुशी हाथ बंटा सकें।“

दरअसल, आजादी के वक्त की राजनीतिक पीढ़ी आपस में तमाम मतभेद और असहमतियां होने के बावजूद बेहद परिपक्वता के साथ राष्ट्र के भीतर और राष्ट्र के बाहर एक बेहतर समाज बनाने का सपना देख रही थी। उनमें केवल अपने राजनीतिक वजूद को ही सबसे ऊपर रखने की लालसा नहीं थी। उन्हें पता था कि उनका वजूद देश और दुनिया के साथ जुड़ा हुआ है और भारत की आजादी कोई विलासिता की चीज नहीं हैं बल्कि यह एक बहुत अहम जिम्मेदारी है। लेकिन अफसोस तब होता है जब आज की पीढ़ी के राजनेताओं की हरकतों को जनता देखती है। जिन राजनेताओं के कंधों पर इस देश को शांत, सुखी और समुन्नत बनाने का सारा भार है... जब वे हीं अमर्यादित व्यवहार करेंगे... जनता के हित की जगह खुद के हित को तरजीह देंगे तो युवा पीढ़ी और आने वाली नस्लों को क्या पाठ सिखाएंगे।

जो स्वराज हमने अनगिनत देशभक्तों का बलिदान देकर हासिल किया है और हमारे संविधान निर्माताओं ने जिस लक्ष्य की प्राप्ति का सपना देखा था वह खोखला रह जाएगा, अगर हमने देश में रहने वाले सभी वर्ग, जाति और धर्म वाले लोगों में यह विश्वास पैदा नहीं किया कि वे यहाँ सुरक्षित हैं, उनकी उन्नति और तरक्की में कोई बाधा नहीं डाल सकता है। किसी की भाषा और संस्कृति पर कोई आघात नहीं होगा। पिछड़े और गरीबों की हर संभव मदद होगी। मजदूर, किसान और श्रमजीवी किसी प्रकार से शोषित नहीं होंगे। साथ ही सभी को अपने विचार प्रकट करने, आगे बढ़ने का समान अधिकार और मौका मिलेगा।

संविधान सभा के अध्यक्ष डॉ राजेन्द्र प्रसाद ने 14 अगस्त 1947 को संविधान सभा में कहा था कि

“जब इस देश में खाने के लिए पूरा अन्न होने लगेगा और फिर दूध की नदियाँ बहने लगेंगी। जब हमारे जवान लोग खेतों और कारखानों में हँसते-हँसते काम किया करेंगे, जब हर झोंपड़ें और पल्ली में घरेलू धंधों के साथ-साथ हमारी युवतियाँ अपने मीठे स्वर अलापती रहेंगी। जब इस देश के सुखी घरों पर हँसते हुए चेहरों पर सूरज और चन्द्रमा अपनी किरणें छिटकायेंगे तभी हमारा स्वराज्य सफलीभूत होगा।“

आज जरूरत है अपने उन महान नेताओं के महान आदर्शों को अपनाने और उसे फलीभूत करने की। आजादी के इस 75वीं सालगिरह के मौके पर जब हम आजादी का अमृत महोत्सव मना रहे हों तो इससे बढ़कर कोई दूसरा मौका नहीं हो सकता उन महान आदर्शों को पूरा करने की प्रतिज्ञा लेने से।

बहरहाल, 14 अगस्त 1947 को ही भारत की राष्ट्रीय ध्वज (तिरंगा) संविधान सभा द्वारा राष्ट्र को भेंट की गई। यह गौरवशाली काम संविधान सभा की महिला सदस्यों की तरफ से श्रीमती हंसा मेहता ने की। 15 अगस्त 1947 से यह तिरंगा भारत की आन, बान और शान बनकर फहरा रहा है। यह पताका हमारे महान भारत का प्रतीक है। यह सदा फहराती रहे और विश्व पर आज जो संकट की कालिमा छाई है उसे यह प्रकाश दे और हमेशा देता रहे।

रितु कुमार

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