भारत में पंचायती राज संस्थाओं का महत्व, उपयोगिता और जरूरत
लोकतंत्र की सही स्थापना तभी हो सकती है जब समाज के सभी व्यक्तियों को समान और उचित अवसर मिले .... और उसकी सफलता तभी सुनिश्चित हो सकती है जब समाज के अंतिम छोर पर स्थित व्यक्ति भी शासन में भागीदार बने...उसमें हिस्सेदार बने। दरअसल, लोकतंत्र का सही अर्थ ही है सार्थक और उद्देश्यपूर्ण जवाबदेही...और यह तब तक पूरी नहीं हो सकती, जब तक जीवंत और मजबूत स्थानीय स्वशासन उपलब्ध न हो। क्योंकि इसके बिना भागीदारी और जवाबदेही दोनों सुनिश्चित नहीं हो सकती। और सरल शब्दों में कहें तो शासन का आधार जब ऊपर यानी केन्द्र से न होकर नीचे यानी ग्राम पंचायत से चलती है, तभी सही मायने में लोकतंत्र और स्थानीय स्वशासन की परिकल्पना पूरी होती है। यही बात है कि आजादी के बाद ही देश में पंचायतों के महत्व को समझा गया और समय के साथ स्थानीय स्वशासन की स्थापना और सत्ता के विकेंद्रीकरण की दिशा में महत्वपूर्ण कदम उठाए गए। और शासन के सबसे निचले स्तर पर भी जनता को भागीदार बनाने के लिए पंचायती राज व्यवस्था अपनाया गया। इस दिशा में मील का पत्थर साबित हुआ 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, जो 24 अप्रैल 1993 से देश में लागू हो गया। इसके जरिए पंचायती राज व्यवस्था को संस्थागत रूप दिया गया और सही मायने में सत्ता को जमीनी स्तर पर पहुंचाया गया। तभी से हर साल 24 अप्रैल को पंचायती राज दिवस के रूप में मनाया जाता है।
भारत गांवों में रहता था और आज भी गांवों में रहता है। भले ही भारत में औद्योगिक विकास काफी हो चुका है, और शहरों का दायरा भी लगातार बढ़ता ही जा रहा है... इसके बावजूद आज भी आधी से ज्यादा आबादी गांवों में ही रहती है। तभी तो ग्राम स्वराज की दृढ़ संकल्पना के साथ महात्मा गांधी ने कहा था कि ---
“सच्चा लोकतंत्र केंद्र में बैठकर राज्य चलाने वाला नहीं होता, अपितु यह तो गाँव के प्रत्येक व्यक्ति के सहयोग से चलता है”
दरअसल गांधीजी गांव के हितों को सबसे ज्यादा महत्व देते थे। वे ग्रामीण जीवन का पुनर्निर्माण ग्राम पंचायतों की पुन: स्थापना से ही संभव मानते थे।
यूं तो भारत में स्थानीय शासन का महत्व प्राचीन काल से चला आ रहा है। चाहे वो वैदिक युग हो, महाकाव्य युग हो, मौर्य काल या गुप्त काल हो... चोल काल हो या मध्यकाल हो...। हर काल में जरूरत के हिसाब से स्थानीय स्वशासन इकाइयों का गठन होता रहा। हां, ये जरूर है कि समय-समय पर और आवश्यकतानुसार इनकी संरचना और बनावट में परिवर्तन होते रहे।
अगर आधुनिक काल की बात करें, तो भारत में स्थानीय स्वशासन की शुरुआत उस समय से माना जा सकता है, जब 1687 में मद्रास में सबसे पहले नगर परिषद की स्थापना हुई। लेकिन सही मायने में प्रतिनिधि स्थानीय संस्थाओं का विकास 1870 के बाद हुआ। और इस दिशा में पहला गंभीर प्रयास 1882 में लॉर्ड रिपन द्वारा किया गया। लॉर्ड रिपन ने स्थानीय संस्थाओं को काफी हद तक लोकतांत्रिक ढांचा प्रदान किया। यही वजह है कि रिपन को भारत में स्थानीय स्वशासन का जनक माना जाता है। आजादी से पहले स्थानीय स्वशासन की दिशा में दूसरा महत्वपूर्ण कदम 1907 में उठाया गया। जब भारत सरकार ने स्वायत्त संस्थाओं के विकास पर विचार करने के लिए एक विकेन्द्रीकरण आयोग की स्थापना की। जिसने गांवों को और ज्यादा अधिकार देने की सिफारिश की। वहीं तीसरा मुख्य कदम मांटेग्यू-चेम्सफोर्ड सुधारों के तहत उठाया गया। जब स्थानीय शासन संस्थाओं में ज्यादातर निर्वाचित प्रतिनिधियों की रखने और सरकारी हस्तक्षेप कम करने की बात करते हुए कुछ खास गांवों में ग्राम पंचायतें स्थापित करने की सिफारिश की गई।
आजादी के बाद संविधान सभा में गांधी के ग्राम स्वराज की परिकल्पना को साकार करने और स्थानीय स्वशासन को धरातल पर उतारने को लेकर, इसके पक्ष और विपक्ष में काफी तर्क दिए गए। और जब तमाम चर्चाओं के बीच जब 14 नवंबर 1948 को राज्य के नीति निर्देशक तत्वों पर बहस शुरू हुई तो 22 नवंबर को संविधान सभा के सदस्य के संथानम ने एक नया अध्याय जोड़ने का प्रस्ताव किया और कहा कि राज्य को ग्राम पंचायतों का संगठन करना चाहिए और उनको वो शक्तियां प्रदान करनी चाहिए जो कि स्वायत्त सरकार की इकाई के रूप में कार्य करने को प्रोत्साहित कर सके।
संविधान सभा के ज्यादातर सदस्यों ने के संथानम के प्रस्ताव पर सहमति जताई और स्थानीय शासन के दूरगामी महत्व और शासन के सभी स्तरों पर जनता की भागीदारी सुनिश्चित करने के लिए... संविधान में नीति निर्देशक सिद्धांतों के तहत अनुच्छेद 40 में पंचायती राज व्यवस्था की अवधारणा रखी।
अनुच्छेद 40 के अनुसार “राज्य, ग्राम पंचायतों का गठन करने के लिए कदम उठाएगा और उन्हें ऐसी शक्तियां और अधिकार प्रदान करेगा जो उन्हें स्वायत्त शासन की इकाइयों के रूप में कार्य करने योग्य बनाने के लिए आवश्यक हो।
इसके साथ ही अनुच्छेद 246 के जरिए राज्य विधानमंडल को स्थानीय स्वशासन से संबंधित किसी भी विषय पर कानून बनाने का अधिकार दिया गया।
संविधान के अनुच्छेद 40 में कही गई बातों को लागू करने और पंचायती राज व्यवस्था को मजबूत बनाने के उद्देश्य से ही भारतीय संसद से पंचायतों और नगरपालिकाओं के लिए 73वां और 74वां संविधान संशोधन विधेयक, दिसंबर 1992 में पारित किया गया। 73वां संविधान संशोधन अधिनियम, 24 अप्रैल 1993 से और 74वां संविधान संशोधन अधिनियम, 1 जून 1993 से लागू हो गया। 73वें और 74वें संविधान संशोधन ने पंचायती राज और नगर पालिकाओं को संवैधानिक दर्जा प्रदान किया। लेकिन इसे लागू करने के पीछे एक लंबी कहानी है।
दरअसल भारत में सामुदायिक विकास कार्यक्रम की शुरुआत 1952 में की गई। लेकिन आम जनता इससे सीधे तौर पर नहीं जुड़ पाई। इसी समस्या को हल करने के लिए 1957 में बलवंत राय मेहता की अध्यक्षता में एक समिति गठित की गई। इस समिति ने 1958 में अपनी रिपोर्ट पेश की। इसमें सिफारिश की गई थी कि स्थानीय स्तर पर त्रि-स्तरीय पंचायती राज प्रणाली की स्थापना की जाए। जिसमें ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, प्रखंड स्तर पर पंचायत समिति और जिला स्तर पर जिला परिषद हो। तीनों को एक दूसरे से अप्रत्यक्ष चुनाव के जरिए जोड़ा जाए। ग्राम पंचायत का चुनाव प्रत्यक्ष रूप से और पंचायत समिति और जिला परिषद का चुनाव अप्रत्यक्ष रूप से हो। विकास और नियोजन से जुड़े सभी काम इन संस्थाओं को दिया जाए। साथ ही विकास के काम करने के लिए पर्याप्त वित्तीय संसाधन उपलब्ध भी कराया जाए। समिति की सिफारिशों को स्वीकार करते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने 2 अक्टूबर 1959 को राजस्थान के नागौर जिले के बगदरी गाँव में पहली बार पंचायती राज व्यवस्था की शुरुआत की। उसके बाद अन्य राज्यों ने भी पंचायती राज व्यवस्था को लागू किया। लेकिन धन की कमी और पंचायती राज संस्थाओं के सदस्यों के बीच आपसी मतभेद के चलते इस प्रयास को भी उम्मीद के मुताबिक सफलता नहीं मिली।
बलवंत राय मेहता कमेटी की सिफारिशों की असफलता के बाद पंचायती राज संस्थाओं पर विचार करने और इसे और अधिक प्रभावी बनाने के लिए 1977 में अशोक मेहता समिति का गठन किया गया। इस समिति ने सुझाव दिए कि पंचायती राज व्यवस्था में दो- स्तरीय पद्धति- को अपनाया जाए। इसमें सबसे निचले स्तर पर मंडल पंचायत हो जिसमें 10-15 गाँव शामिल हो और जिला स्तर पर जिला परिषद हो। हालांकि अशोक मेहता समिति की सिफारिशों को देश की राजनीतिक हालात के कारण लागू नहीं किया जा सका।
इसके बाद 1985 में जी वी के राव की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। जिसने जिला परिषदों को मजबूत बनाने की सिफारिश की। इसके बाद 1986 में पंचायती राज व्यवस्था की जांच करने के लिए एल एम सिंघवी की अध्यक्षता में एक कमेटी का गठन किया गया। इस कमेटी ने ग्राम सभा को मजबूत करने और पंचायती राज के नियमित चुनाव कराने पर जोर दिया। समिति ने पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा देने की भी सिफारिश की।
वहीं, 1988 में गठित पी के थुंगन समिति ने पंचायतों में नियमित चुनाव कराने के साथ ही वित्तीय संसाधनों के साथ और अधिक स्वायत्तता देने की सिफारिश की।
इन तमाम समितियों की सिफारिश और स्थानीय स्वशासन के महत्व को देखते हुए पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा प्रदान करने के लिए सबसे पहले पंचायत राज विधेयक 64वें संविधान संशोधन अधिनियम,1989 के नाम से संसद में पेश किया गया। लेकिन पर्याप्त बहुमत नहीं मिलने की वजह से विधेयक पारित नहीं हो सका। इसके बाद 1990 में एक बार फिर लोकसभा में एक संविधान संशोधन विधेयक पेश किया गया। लेकिन वी पी सिंह की सरकार के गिरने के साथ ही यह विधेयक भी समाप्त हो गया।
आखिरकार पी वी नरसिम्हा राव की सरकार ने पंचायती राज व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा देने के लिए सितंबर 1991 में एक संविधान संशोधन विधेयक लोकसभा में पेश किया। यह विधेयक 73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के रूप में पारित हुआ और 24 अप्रैल 1993 से प्रभाव में आया। इसके तहत संविधान में एक नया खंड भाग 9 ‘पंचायत’ शीर्षक के नाम से जोड़ा गया। इस भाग में अनुच्छेद 243, जिसके अंतर्गत 16 नए अनुच्छेद, अनुच्छेद 243 क से 243 ण तक जोड़े गए। इनमें ग्राम पंचायतों के गठन, निर्वाचन, शक्तियों और उत्तरदायित्वों के प्रावधान किए गए हैं। इस संशोधन के तहत संविधान में एक नई अनुसूची- ग्यारहवीं अनुसूची- जोड़ी गई है। इसमें 29 विषयों की चर्चा की गई है, जिन पर पंचायतों को कानून और योजनाएं बनाने और उन्हें लागू करने की शक्ति प्रदान की गई है। इस तरह इस अधिनियम ने संविधान के 40वें अनुच्छेद को एक संवैधानिक और व्यवहारिक रूप प्रदान किया।
73वें संविधान संशोधन अधिनियम 1992 के तहत ग्राम सभा को पंचायती राज प्रणाली का आधार माना गया है। इसके मुताबिक प्रत्येक गांव में एक ग्राम सभा होगी। जो राज्य विधान मंडल द्वारा तय किए गए अधिकारों और कर्तव्यों का पालन गांव स्तर पर करेगी। ग्राम सभा, पंचायत क्षेत्र में मतदाता के रूप में पंजीकृत सभी व्यवस्क सदस्यों की संस्था होगी। इसके तहत पंचायतों को तीन स्तर पर कायम किए जाने की व्यवस्था की गई। ग्राम स्तर पर ग्राम पंचायत, ब्लॉक स्तर पर क्षेत्र पंचायत और जिला स्तर पर जिला पंचायत। हालांकि, 20 लाख से कम जनसंख्या वाले छोटे राज्यों को मध्यवर्ती स्तर पर पंचायत का गठन करने से छूट दी गई है। साथ ही नागालैंड, मेघालय, मिजोरम राज्यों और मणिपुर के पर्वतीय क्षेत्रों में इस अधिनियम के प्रावधान लागू नहीं होते, क्योंकि उनकी अपनी परंपरागत पंचायत प्रणाली है।
इसके तहत पंचायती चुनाव में भागीदारी के लिए 21 साल की उम्र निर्धारित की गई है। वहीं गांव, खंड और जिला स्तर पर पंचायतों के सभी सदस्य आम लोगों द्वारा सीधे चुने जाते हैं। इसके अलावा खंड या जिला स्तर पर पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव, निर्वाचित सदस्यों द्वारा उन्हीं में से अप्रत्यक्ष रूप से होता है, जबकि गांव स्तर पर पंचायत के अध्यक्ष का चुनाव विधानमंडल द्वारा निर्धारित तरीके से किया जाता है।
अनुसूचित जाति और जनजाति के लिए जनसंख्या के अनुपात में सीटों के आरक्षण के साथ ही महिलाओं के लिए एक तिहाई सीटों का आरक्षण का भी प्रावधान किया गया है। पंचायतों के वित्तीय आधार को मजबूत करने के लिए राज्य वित्त आयोग का गठन का प्रावधान किया गया है। पंचायतों को धन की आपूर्ति के लिए केंद्र द्वारा प्रायोजित पैसे मिलते हैं। साथ ही राज्य और पंचायतों के बीच करों के विभाजन से भी पंचायतों को पैसा मिलता है। राज्य जरूरत पड़ने पर पंचायतों को अपने संचित निधि से भी धन देते हैं। इसके अलावा राज्य विधानमंडल द्वारा तय किए गए शुल्क जैसे टैक्स, ड्यूटीज, टॉल शुल्क लगाने और वसूलने के जरिए भी पंचायतें अपने लिए धन का व्यवस्था कर सकती हैं।
पंचायतों और नगरपालिकाओं में होने वाले चुनाव में निर्वाचन आयोग दखल नहीं देता है। पंचायतों में हर पांच साल में नियमित चुनाव कराने के लिए 73वें संविधान संशोधन के तहत राज्य निर्वाचन आयोग के गठन का प्रावधान किया गया है। जो राज्यों में स्थानीय निकायों के लिए स्वतंत्र और निष्पक्ष चुनाव कराने के लिए उत्तरदायी है। इसकी चर्चा संविधान के अनुच्छेद 243(K) और 243(K)(Z) में की गई है। राज्य निर्वाचन आयोग का प्रमुख राज्य निर्वाचन आयुक्त होता है जिसकी नियुक्ति राज्यपाल द्वारा की जाती है। और उसे उच्च न्यायालय के न्यायाधीश की तरह अभियोग प्रक्रिया के तहत ही पद से हटाया जा सकता है।
पंचायती राज अधिनियम देश में जमीनी स्तर पर लोकतांत्रिक संस्थाओं के विकास में एक महत्वपूर्ण कदम है। यह प्रतिनिधित्व लोकतंत्र को भागीदारी लोकतंत्र में बदलता है। यह देश में लोकतंत्र को जमीनी स्तर पर तैयार करने की एक क्रांतिकारी संकल्पना है।
स्थानीय सरकार यानी पंचायती राज व्यवस्था की प्रणाली को अपनाने का सबसे प्रमुख उद्देश्य यही है कि इसके जरिए देश के सभी नागरिक लोकतांत्रिक व्यवस्था में अपने अधिकारों को हासिल कर सकें। दरअसल, लोकतंत्र की सफलता सत्ता के विकेंद्रीकरण पर ही निर्भर करती है और स्थानीय स्वशासन के जरिए ही शक्तियों का सही विकेंद्रीकरण संभव है। हालांकि, तमाम ईमानदार कोशिशों के बावजूद कई ऐसे पहलू हैं जो पंचायती राज व्यवस्था की दौड़ में बाधा बने हुए हैं। मसलन पर्याप्त वित्त की कमी, तय समय पर चुनाव नहीं होना, महिलाओं को और अधिक सशक्त बनाना ताकि वे निर्णय लेने के मामले में आत्मनिर्भर बन सकें। इसके साथ ही पंचायतों को और अधिक अधिकार देना भी शामिल है। हालांकि पंचायती राज संस्थानों में ई-ग्राम स्वराज पोर्टल शुरू करना, इस दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। दरअसल स्थानीय स्वशासन की जड़े निचले स्तर तक जब मजबूती होगीं, तभी सही मायने में भारतीय लोकतंत्र के तहत समाज के अंतिम व्यक्ति की भागीदारी सुनिश्चित की जा सकेगी