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‘जित्रा’ के जंगलों में तैयार हुई थी आजाद हिंद फौज की रूपरेखा

Netaji and Azad Hind Fauj

दूसरे विश्व युद्ध के तूफान के दौरान जन्म लेने वाली आजाद हिंद फौज यानी आई एन ए एक क्रांतिकारी सेना थी जो इस विश्व युद्ध में शामिल अन्य सेनाओं से अलग और अनोखी थी। यह एक ऐसी सेना थी जिसका निर्माण अपनी मातृभूमि से सैकड़ों मील दूर एक विदेशी भूमि पर हुआ था, जो हवाई जहाज, टैंक, तोपखाना, राइफल और बारूद, यहां तक कि सैनिकों को युद्ध स्थल ले जाने के लिए लारियों के लिए भी विदेशी शक्तियों पर निर्भर थी। यह सेना जापान से बर्मा तक संपूर्ण पूर्वी एशिया में फैले हुए भारतीय की देशभक्ति की भावनाओं पर आश्रित थी। इन्ही से उसे सैनिक, धन, वस्त्र, खाद्य सामग्री और अन्य वस्तुएं प्राप्त होती थीं। ये सैनिक अपने मुंह से चलो दिल्ली का नारा लगाते हुए उत्साहपूर्वक अपना जीवन बलिदान करने आए थे। और नेताजी सुभाष चंद्र बोस इस विचित्र सेना के विलक्षण उच्चतम सेनापति थे जो यूरोप और एशिया के अन्य सेनापतियों से एकदम अलग।

दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत और उथल-पुथल का दौर

दूसरे विश्व युद्ध की शुरुआत गुलाम भारत के देशभक्तों के लिए आजादी के किरण की एक आस लेकर आई थी। राष्ट्रवादी भारतीयों को यह आशा थी कि लड़ाई जीतने के बाद ब्रिटेन भारत को जल्द से जल्द आजादी दे देगा। जबकि कुछ देशभक्त यह मानते थे कि आजादी के लिए इंतजार करने से बेहतर यही मौका है जब अंग्रेजों के खिलाफ सशस्त्र क्रांति कर उन्हें देश से भगाया जा सकता है। और इसके लिए विदेशी मदद लेने से कोई परहेज नहीं करना चाहिए। महान देशभक्त नेताजी सुभाष चंद्र बोस इसी दूसरे विचार के प्रणेता थे।

जब सितंबर 1939 में युद्ध शुरू हुआ तो सुभाष चंद्र बोस को वह मौका मिल गया जिसका उन्हें वर्षों से इंतजार था। हालांकि अंग्रेजों ने उन्हें अंग्रेज विरोधी कार्य करने के आरोप में 1940 में जेल में डाल दिया था। जेल में कैद के दौरान ही सुभाष चंद्र बोस ने अपनी मातृभूमि को आजाद कराने की पूरी रूपरेखा तैयार कर ली थी और यह कहा जा सकता है कि यहीं उनके दिमाग में उस ऐतिहासिक आजाद हिंद फ़ौज के गठन का खांका भी तैयार हो चुका था जिसकी शौर्य, वीरता और देशभक्ति ने अंग्रेजी राज के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी और उन्हें देश छोड़कर जाना पड़ा। अपने इस मकसद को पूरा करने के लिए सुभाष चंद्र बोस ने जेल में ही आमरण अनशन कर दिया। जिसके बाद अंग्रेजों को उन्हें छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा। फिर जनवरी 1941 में एक दिन पूरे देश में यह जानकर सनसनी फैल गई कि सुभाष बाबू अंग्रजों की आंख में धूल झोंक कर भारत से बाहर निकल गए हैं। सुभाष चंद्र बोस अपने भतीजे शिशिर कुमार बोस की सहायता से देश छोड़कर निकल चुके थे।

फकीर, बीमा एजेंट, मूक बधिर तीर्थ यात्री और फिर ओरलैंडो मजेटा

सुभाष चंद्र बोस का भारत से निकलना और 9 महीने बाद जर्मनी रेडियो से भारतीयों को संबोधित करना चमत्कार, रहस्य और रोमांच से भरपूर है। भारत से जियाउद्दीन नाम के मुस्लिम फकीर बनकर निकलने से लेकर बीमा कंपनी का ऐजेंट बनकर पेशावर तक की रेल यात्रा करना। उसके बाद काबुल तक ट्रक में यात्रा करना और काबुल में मूक बधिर तीर्थ यात्री के रूप में रहने के दौरान असहनीय कष्ट और मुसीबतों को झेलना सिर्फ और सिर्फ सुभाष चंद्र बोस जैसे राष्ट्रभक्त के बूते की बात ही थी।

कहानी यहीं नहीं खत्म होती है। काबुल से सुभाष चंद्र बोस ओरलैंडो मजेटा बनकर इटली दूतावास की मदद से मास्को होते हुए बर्लिन पुहंचे। बर्लिन पहुंचने के कुछ दिनों बाद तक वे ओरलैंडो मजेटा के नाम से ही जाने जाते रहे।

बर्लिन में स्वतंत्र भारत केंद्र की स्थापना

दिल में भारत की आजादी का सपना लिए सुभाष चंद्र बोस ने बर्लिन में स्वतंत्र भारत केंद्र की स्थापना की। यहीं सुभाष ने यूरोप में मौजूद और अफ्रीका से लाए गए भारतीय युद्धबंदियों से एक सैन्य दल का निर्माण किया। स्वतंत्र भारत केंद्र आजाद भारत की अस्थायी सरकार का अग्रगामी रूप था जिसकी घोषणा सुभाष ने दो साल बाद सिंगापुर में की थी और भारतीय सैन्य दल आई एन ए का पूर्वगामी रूप था जिसका नेतृत्व सुभाष ने भारत-बर्मा सीमा पर किया।

हिटलर से नहीं बनी बात

इस तरह सुभाष चंद्र बोस ने भावी आजाद हिन्द फ़ौज के निर्माण की नींव लगभग उसी समय ड़ाल दी थी, जिस समय जनरल मोहन सिंह ने पूर्वी एशिया में यह कार्य शुरू किया था। लेकिन जब जर्मनी में हिटलर से उनकी वार्ता सफल नहीं हो पाई और फरवरी 1942 में अंग्रेजों ने सिंगापुर में जापानियों के आगे हथियार डाल दिए, तब सुभाष चंद्र बोस ने तय कर लिया कि उनका कार्यक्षेत्र यूरोप नहीं एशिया होगा और वे एशिया जाने की योजना बनाने लगे।

INA का गठन और रास बिहारी बोस

जिस समय सुभाष चंद्र बोस एशिया जाने की तैयारी कर रहे थे, उसी समय महान क्रांतिकारी और देशभक्त रास बिहारी बोस जापान में छिपकर भारत की आजादी के लिए पूर्वी एशिया में रहने वाले लोगों को संगठित कर रहे थे। दरअसल दिसंबर 1912 में दिल्ली में तत्कालीन वायसराय लॉर्ड चार्ल्स हार्डिंग पर बम फेंकने की योजना और गदर की साजिश रचने के आरोप में जब ब्रिटिश सरकार रास बिहारी बोस को ढूंढ रही थी तब वे अंग्रेजों से बचकर जापान चले गए और भूमिगत हो कर वहीं से भारत को स्वतंत्रता दिलाने के प्रयासों में आजीवन लगे रहे। जापान पहुंच कर रास बिहारी बोस ने इंडियन इंडिपेंडेंस लीगकी स्थापना की और आजाद हिंद फौज के गठन में बेहद महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।

जित्रा के जंगलों में आजाद हिंद फौज की रूपरेखा तैयार हुई

8 दिसंबर 1941 को जापान ने ब्रिटेन और अमेरिका के खिलाफ युद्ध की घोषणा कर दी। और दिसंबर 1941 में जापान की सेना ने मलाया-थाईलैंड की सीमा पर उतरी मलाया में जित्रा नामक स्थान पर 14वीं पंजाब रेजिमेंट्स की प्रथम बटालियन को हरा दिया। इसी रेजिमेंट में एक और देशभक्त सैनिक कैप्टन मोहन सिंह कार्यरत थे, जो अंग्रेजों से भारत को आजाद कराने के लिए एक सशस्त्र सेना का गठन करना चाहते थे। जित्रा के जंगलों में ही उनकी मुलाकात

एक अन्य गदरी क्रांतिकारी ज्ञानी प्रीतम सिंह से हुई। प्रीतम सिंह विदेश में रहकर भारत की आजादी के लिए काम कर रहे थे। से उनकी मुलाकात हुई और यही से पहले आजाद हिंद फौज यानि इंडियन नेशनल आर्मी के गठन की शुरुआत हुई। इस तरह सांकेतिक रूप आई एन ए जित्रा में बनी और कैप्टन मोहन सिंह इसके जनरल कमांडिंग ऑफिसर यानी जे सी ओ नियुक्त हुए। जब जनवरी 1942 में स्लीम नदी के युद्ध में ब्रिटिश सेना पराजित हो गई और जापानी सेना ने क्वालालम्पुर पर अधिकार कर लिया तब हजारों भारतीय सैनिकों ने भारतीय क्रांतिकारियों के साथ मिलकर कैप्टन मोहन सिंह के नेतृत्व में भारत की प्रथम राष्ट्रीय सेना यानी आई एन ए का निर्माण किया। और वास्तविक रूप से आजाद हिंद सेना का यही से शुरुआत हुई। जब फरवरी 1942 में जापानियों ने सिंगापुर को जीत लिया तब ब्रिटिश सेना में शामिल करीब तीस हजार भारतीय सैनिकों ने आई एन ए में प्रवेश लेना स्वीकार किया और इसके बाद आजाद हिंद सेना का संगठन किया गया। कैप्टन मोहन सिंह के दल में शुरू में जहां दो सौ आदमी थे वहीं धीर-धीरे इनकी संख्या तीस हजार तक पहुंच गई।

प्रथम आजाद हिंद फौज का गठन

इन्हीं दिनों जून 1942 में रास बिहारी बोस की अध्यक्षता इंडियन इंडिपेंडेंस लीग का सम्मेलन बैंकाक में हई। इसमें सम्मेलन में औपचारिक रूप से आजाद हिंद फौज के गठन का प्रस्ताव पास किया गया। और एक सितंबर 1942 के औपचारिक रूप से आजाद हिंद फौज यानी आई एन ए का गठन हो गया। और रास बिहारी बोस से कैप्टन मोहन सिंह को आजाद हिंद फौज का सेनापति नियुक्त किया। इस कॉन्फ्रेंस में यह तय किया गया कि सुभाष चंद्र बोस से अनुरोध किया जाए कि वह यहां आकर कार्यभार संभालें।

जनरल मोहन सिंह को जापानियों ने गिरफ्तार किया

आजाद हिंद फौज का काम सुचारू रूप से चल रहा था और धीरे-धीरे सैनिकों की संख्या भी बढ़ रही थी तभी दिसंबर आजाद हिंद फौज की स्वतंत्रता को लेकर जनरल मोहन सिंह और जापानी सेना के साथ मतभेद हो गया और जापानियों ने मोहन सिंह को गिरफ्तार कर लिया।

इन सब उथल पुथल के बीच रास बिहारी बोस किसी भी कीमत पर आई एन ए को जिंदा रखना चाहते थे। जनरल मोहन सिंह की गिरफ्तारी के बाद उन्होंने आई एन ए को विघटित नहीं होने दिया और कर्नल एम जैड कियानी को आई एन ए का कमांडर नियुक्त कर उसे जैसे तैसे जीवित रखा और सुभाष चंद्र बोस का बेसब्री से इंतजार करने लगे।

तीन महीने पनडुब्बी की कठिन यात्रा कर टोकियो पहुंचे सुभाष चंद्र बोस

रास बिहारी बोस के लगातार आग्रह और जर्मनी और जापान की सरकारों से बातचीत के बाद सुभाष चंद्र बोस फरवरी 1943 में बर्लिन से टोकियो के लिए रवाना हो गए। यह यात्रा इतनी आसान नहीं थी करीब 90 दिनों तक सबमरीन यानी पनडुब्बी में यात्रा करने के बाद सुभाष चंद्र बोस 16 मई 1943 को टोकियो पहुंचे। 20 जून 1943 को नेताजी ने टोकियो रेडियो से इस बात की घोषणा की कि आजाद हिंद फौज का कमान वो खुद लेने वाले हैं।

सुभाष चंद्र बोस, नेताजी बन गए

इस घोषणा के बाद जुलाई के पहले सप्ताह में वो रास बिहारी बोस के साथ टोकियो से सिंगापुर पहुंचे और 4 जुलाई को वो शुभ दिन आ ही गया जब कैथे सिनेमा हॉल के सामने पूर्वी एशिया के पांच हजार भारतीयों के सामने रास बिहारी बोस ने विधिवत आजाद हिंद फौज की कमान सुभाष चंद्र बोस को सौंप दी। इसके बाद से सुभाष चंद्र बोस को आजाद हिंद फौज के सैनिक नेताजी कह कर बुलाने लगे और सुभाष चंद्र बोस सबके नेताजी बन गए।

चलो दिल्ली, चलो दिल्ली का नारा

5 जुलाई 1943 को सिंगापुर के टाउन हॉल के सामने आई एन ए के सैनिको और अधिकारियों के परेड की सलामी लेते हुए नेताजी ने सैनिकों को संबोधित करते हुए कहा कि तुम्हारा युद्ध का नारा होगा चलो दिल्ली, चलो दिल्ली। उन्होंने कहा कि हमारा काम उस समय तक समाप्त नहीं होगा जब तक हमारे अवशेष वीर सैनिकों की विजय परेड दिल्ली में लाल किले के मैदान में अंग्रेजी साम्राज्य की दूसरी शमशान भूमि पर नहीं होगी।

सिंगापुर पहुंचने के चार महीने के भीतर ही नेताजी ने पूरब में जापान से लेकर पश्चिम में बर्मा तक भारतीयों की संपूर्ण स्वतंत्रता आंदोलन को काफी मजबूत कर दिया। आई एन ए अब एक शक्तिशाली इकाई के रूप में संगठित थी और युद्ध करने के लिए तैयार थी।

आजाद हिंद सरकार की स्थापना

आजाद हिंद फौज के संगठन को मजबूत करने के बाद जो ऐतिहासिक कार्य नेताजी ने किया वह था आजाद हिंद सरकार की स्थापना। इस लिहाज से 21 अक्टूबर का दिन भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के इतिहास में बेहद खास है। इसी दिन यानी 21 अक्टूबर 1943 को पहली बार नेताजी के नेतृत्व में देश के बाहर सिंगापुर में अविभाजित भारत की सरकार बनी थी। रास बिहारी बोस को सर्वोच्च परामर्शदाता बनाया गया।

 टोकियो ब्वायज

आजाद हिंद सरकार के पास अपनी सेना था और सेना के लिए युवकों को प्रशिक्षित करने के लिए पर्याप्त सुविधा थी लेकिन उसके पास अपनी नौसेना और वायुसेना नहीं थी। ऐसे में नेताजी ने कुछ किशोर लड़कों को चुनकर सिंगापुर से जापान नौसेना और वायु सेना का प्रशिक्षण लेने के लिए भेजे थे। जिन्हें प्यार से वो टोकियो ब्वायज कहते थे।

आजाद हिंद फौज जब पहली बार भारत में कदम रखा

आजाद हिंद सरकार के गठन के बाद इस सरकार के तरफ से ब्रिटेन और अमेरिका के खिलाफ युद्ध की घोषणा की गई। और जनवरी 1944 में आजाद हिंद फौज का सुभाष ब्रिगेड बर्मा के रंगून पहुंच गया। 4 फरवरी 1944 को आई एन ए ने अराकान युद्ध के मोर्चे पर लड़ाई शुरू कर दी और विजय हासिल की। 18 मार्च को आई एन ए ने सीमा पार कर पहली बार भारत की पावन भूमि पर अपने कदम रखे। आजादी की लड़ाई शुरू हो चुकी थी और अब आई एन ए बर्मा भारत सीमा पर कोहिमा के समीप और इंफाल के मैदानों में आठो क्षेत्र में युद्ध कर रही थी।

मोरांग में आईएनए ने तिरंगा फहराया

वहीं कर्नल एस ए मलिक के नेतृत्व में आई एन ए की एक टुकड़ी भारतीय क्षेत्र में काफी अंदर तक पहुंच गई और उसने 14 अप्रैल 1944 को मणिपुर में मोरांग नामक स्थान पर भारत का राष्ट्रीय तिरंगा लहरा दिया। इस तरह प्रतीक के रूप में आई एन ए ने भारत भूमि के एक छोटे से भाग को अंग्रेजी शासन से मुक्त करा दिया। मेजर जनरल ए सी चटर्जी इस मुक्त क्षेत्र के प्रथम गवर्नर मनोनीत किए गए।

तुम मुझे खून दोमैं तुम्हें आज़ादी दूंगा

देश से अंग्रेजों को भगाने और आजाद वतन का सपना लिए आई एन ए के वीर सैनिकों ने अप्रैल 1944 में इंफाल को चारो तरफ से घेर लिया। ब्रिटिश सेना से भीषण युद्ध चला लेकिन नियती और प्रकृति दोनों ने साथ नहीं दिया। मौसम की मार और दूसरे विश्व युद्ध में जापान की हार ने आजाद हिंद फौज को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया। हजारों सैनिक देश पर कुर्बान हो गए। सितंबर 1944 में शहीदी दिवस के भाषण में ही नेताजी ने आज़ाद हिंद सैनिकों को कहा था... तुम मुझे खून दोमैं तुम्हें आज़ादी दूंगा...।

हालांकि विपरीत और बेहद कठिन परिस्थितियों में भी नेताजी के नेतृत्व में आजाद हिंद फौज के बहादुर सैनिकों ने अदम्य साहस और शौर्य का परिचय दिया। जंगलों में घास खा-खा कर उन देशभक्त सैनिकों ने आजाद वतन की चाह में युद्ध किया और अपने प्राणों को देश पर न्यौछावर कर दिया। जिसे भावी पीढ़ियां उन देशभक्तों की गाथाएं पढ़कर अपने अद्वितीय वीरों के गौरव और साहसपूर्ण कार्यों को हमेशा याद करेगी।

व्यक्ति जन्म लेते हैं और मृत्यु को प्राप्त को प्राप्त हो जाते हैं लेकिन इतिहास अमर है। आजाद हिंद फौज आज भी करोड़ों भारतीयों के दिलों में अमर है। नेताजी सुभाष चंद्र बोस अमर हैं। हर साल 23 जनवरी को उस मुक्ति सेना आई एन ए और उस व्यक्ति को जिसका युद्ध घोष चलो दिल्ली था और जिसका लक्ष्य वायसराय भवन पर तिरंगा फहराना और लाल किले पर परेड करना था को याद कर पूरा देश गर्व से भर जाता है।

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