‘तिरंगा’: राष्ट्रीय अस्मिता और स्वाभिमान का प्रतिक और इसके शिल्पकार पिंगलि वेंकय्या
किसी भी देश का झंडा उस देश के इतिहास, देश के जीवन का सर्वप्रथम और सबसे ऊंची और पवित्र चीज होती है... और यही बात हमारे झंडे के साथ भी लागू होता है...जिसे हम तिरंगा कहते हैं। यह वह चीज है जिसके लिए देश के लाखों स्त्री-पुरुषों ने अपनी जान से ज्यादा महत्व देकर उसकी इज्जत के लिए अनेक कष्ट सहे हैं और अपने प्राण तक उत्सर्ग कर दिए। गुलामी के दिनों में जिसके लिए लोगों ने अपने बाल-बच्चों को भूखा और तड़पता हुआ छोड़कर जेल जाना पसंद किया। जिसके लिए अपने कामकाजों को छोड़कर लोगों ने पुलिस और फौज की लाठियों से अपनी हड्डियां और सर तुड़वाए। जिस झंडे का मान रखने के लिए, जिसकी रक्षा के लिए निहत्थे नवयुवकों और विद्यार्थियों ने अंग्रेजी फौज और पुलिस की बंदूकों के सामने अपनी छातियां खोल दीं। इस तिरंगे की आन, बान और शान को बरकरार रखने के लिए राष्ट्र के वीरों ने अपनी कुर्बानियों से इसे बराबर सींचा है और इसे जिंदा रखा है।
हमारा राष्ट्र ध्वज… तिरंगा... जिसे देखकर हर भारतवासियों के रगों में गर्व और सम्मान की लहर दौड़ पड़ती है। तिरंगा... सिर्फ हमारा झंडा मात्र नहीं हैं... बल्कि यह हमारे देश का अभिमान है... हमारी संस्कृति की पहचान भी। यह वह चीज है जिसके पीछे हजारों कुर्बानियां हैं...जिसके साथ वीरता, त्याग और देशभक्ति की कहानियां और अनगिनत गाथाएं जुड़ी हैं। दरअसल, एक देश की पहचान उसके ध्वज, प्रतीक, और राष्ट्र गान से होती है, जो उसके लिए अद्वितीय होता है... और हमारा राष्ट्र ध्वज- तिरंगा- उन्हीं में से एक है, जो हमे गर्व और स्वाभिमान के साथ जीने की ताकत देता है। इसका महत्व केवल 15 अगस्त और 26 जनवरी को लाल किला और इंडिया गेट पर फहराने से ही नहीं है, बल्कि अनवरत फहराता हुआ यह पताका हमारी स्वतंत्रता और उन्नति का पथिक है।
दरअसल, झंडा एक प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति है जिससे पता चलता है कि देश खुद को कैसे दिखता और पहचानता है। भारत के लिए उसका राष्ट्रीय ध्वज उसके मूल्यों और विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। भारत के तिरंगे का एक अनूठा अर्थ है, जो यह बताता है कि देश क्या मानता है और इसके लिए क्या प्रयास करता है। तिरंगे के शीर्ष पर केसरिया शक्ति और साहस का प्रतीक है, तो बीच में सफेद शांति और सच्चाई का प्रतिनिधित्व करता है। वहीं नीचे हरा रंग उर्वरता, विकास और भूमि की शुभता का प्रतीक है। बीच में अशोक चक्र की 24 तीलियां बताती हैं कि गति में जीवन हैं और गति में मृत्यु है।
भारत का यह वर्तमान अनूठा और अद्वितीय राष्ट्र ध्वज महान स्वतंत्रता सेनानी पिंगली वेंकय्या के डिजाइन से प्रेरित है, जिन्होंने आजादी के आंदोलन के दौरान एक ऐसे झंडे के बारे में सोचा जो सभी भारतवासियों को एक धागे में पिरोकर रखे। हालांकि इस तिरंगे ने अपने अपने वर्तमान स्वरूप को हासिल करने के दौरान कई रूप देखे और बदले हैं।
बहुमुखी प्रतिभा के धनी और अनेक भाषाओं के जानकार पिंगली वेंकय्या का जन्म अगस्त 1876 को वर्तमान आंध्र प्रदेश के मछलीपट्टनम के नजदीक भटला पेनुमरू में हुआ था। शुरुआती शिक्षा भटला पेनुमरू और मछलीपट्टनम से हासिल किया। मद्रास से मैट्रिक की पढ़ाई पूरी करने के बाद पिंगली स्नातक करने के लिए कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय चले गए। वहां से आने के बाद पिंगली मुंबई चले गए, जो तब बंबई के नाम से जाना जाता था। बंबई में पिंगली ने ब्रिटिश इंडियन आर्मी में नौकरी करना शुरू कर दिया। जहां से उन्हें दक्षिण अफ्रीका भेज दिया गया। तब उनकी उम्र मात्र 19 साल थी। दक्षिण अफ्रीका में उन्होंने 1899 से 1902 के बीच हुए एंग्लो-बोअर युद्ध में बढ़-चढ़ कर हिस्सा लिया।
दक्षिण अफ्रीका में रहने के दौरान अंग्रेज सैनिक अफसर भारतीय सैनिकों को भी ब्रिटिश झंडा- यूनियन जैक- को सलामी देने के लिए मजबूर करते थे। राष्ट्रप्रेमी और स्वाभिमानी पिंगलि को यह बात बर्दाश्त नहीं हुई और उन्होंने उसी वक्त यह तय कर लिया कि वे भारत के लिए अपना एक झंडा बनाएंगे। इसी बीच दक्षिण अफ्रीका में पिंगलि की मुलाकात महात्मा गांधी से हुई, जिनके विचारों से वे काफी प्रभावित हुए। उन्होंने गांधीजी से अपने अलग राष्ट्रीय ध्वज होने की बात कही जो गांधीजी को भी पसंद आई और उन्होंने पिंगलि को राष्ट्रीय ध्वज डिजाइन करने का काम सौंप दिया... और खुद का राष्ट्रीय ध्वज बनाने की चाह दिल में लिए हुए पिंगली दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटे।
दक्षिण अफ्रीका से भारत लौटने पर पिंगली ने अपना अधिकांश समय कृषि और कपास की खेती के बारे में शोध करने में बिताया। इस बीच उन्होंने लाहौर के एंग्लो वैदिक स्कूल से संस्कृत, उर्दू और जापानी भाषा का अध्ययन भी किया। एक भाषाविद्, भू-विज्ञानी और अनेक विषयों के जानकार के रूप में पिंगली की ख्याती इतनी हो चूकी थी कि लोग उन्हें जापान वेंकय्या, पट्टी यानी कपास वेंकय्या जैसी दिलचस्प उपाधियों से संबोधित करते थे।
इस दौरान पिंगली भारत का राष्ट्रीय ध्वज की संरचना में लगातार जुटे रहे। इसके लिए उन्होंने एस बी बोमान जी और उमर सोमानी जी के साथ मिलकर नेशनल फ्लैग मिशन की स्थापना की। 1916 में पिंगली वेंकय्या ने ‘ए नेशनल फ्लैग फॉर इंडिया’ नाम से एक पुस्तक प्रकाशित किया जिसमें उन्होंने राष्ट्रीय ध्वज के तीस नमूने प्रकाशित किए थे। 1918 से 1921 कांग्रेस के सभी अधिवेशनों में वो लगातार भारत का राष्ट्रध्वज अपनाने पर जोर देते रहे। उन दिनों पिंगली मछलीपट्टनम में आंध्र नेशनल कॉलेज में व्याख्याता के पद पर काम कर रहे थे... और साथ ही लगातार अपने झंडे को डिजाइन करने की अपनी खोज को भी जारी रखा।
हालांकि, ऐसा नहीं है कि पिंगली वेंकय्या से पहले राष्ट्रीय ध्वज बनाने की कोशिश नहीं हुई। ऐसी कई कोशिशें हुईं और अंग्रेजी हुकूमत के दौरान अनेक भारतीयों द्वारा अलग-अलग ध्वज फहराये भी गयें। इस तरह की पहली कोशिश 7 अगस्त 1906 को दादा भाई नौरोजी द्वारा पारसी बागान चौक (ग्रीन पार्क) तत्कालीन कलकत्ता में की गई। वहीं, दूसरी कोशिश 1907 में पेरिस में हुई जब मैडम कामा और अन्य भारतीय क्रांतिकारियों वहां राष्ट्रीय ध्वज फहराया। 1917 में होमरूल लीग आंदोलन के दौरान डॉ एनी बेसेंट और लोकमान्य तिलक ने तीसरी बार भारतीय झंडे को लहराया था। हालांकि इनमें से किसी को भी आधिकारिक रूप से राष्ट्रीय ध्वज की मान्यता नहीं मिली। लेकिन पिंगली वेंकय्या ने जब राष्ट्रीय झंडा का नमूना पेश किया तो उसे सहर्ष स्वीकार किया गया और तमाम बदलावों के बावजूद वर्तमान राष्ट्रीय ध्वज पिंगली वेंकय्या के डिजाइन से ही प्रेरित है।
पिंगलि ने अपने डिजाइन किए हुए झंडा को सबसे पहले 1921 में विजयवाड़ा में आयोजित भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के अधिवेशन के दौरान गांधीजी को दिखाया, जब गांधीजी ने इसी अधिवेशन में एक राष्ट्रीय ध्वज का प्रस्ताव रखा। पिंगली वेंकय्या द्वारा डिजाइन किए गए झंडे को स्वराज झंडा कहा गया, जो खादी का बना था। इस झंडे में दो रंग थे- लाल और हरा, जो दो बड़े समुदायों को व्यक्त करती थी। लाला हंसराज के सुझाव पर इसमें एक बड़ा चरखा दोनों धारियों के बीच में अंकित किया गया था जो स्वराज का प्रतीक था। गांधीजी के कहने पर पिंगली ने इस झंडे में शांति के प्रतीक सफेद रंग को भी जोड़ दिया ताकि भारत के अन्य समुदायों का भी प्रतिनिधित्व हो सके। इस तरह तिरंगे का जन्म हुआ और पिंगली के डिजाइन ने पहली बार भारत और उसके लोगों को एक पहचान दी और यह तिरंगा ‘झंडा वेंकय्या’ के नाम से लोकप्रिय हो गया। हालांकि यह उस समय इस झंडे के कांग्रेस की आधिकारिक स्वीकृति नहीं मिली थी फिर भी यह झंडा अगले दस सालों तक सबके लिए मान्य रहा और देश में कांग्रेस पार्टी के सारे अधिवेशनों में प्रयोग किया जाने लगा।
गांधीजी की स्वीकृति ने इस झंडे को काफी लोकप्रिय बना दिया था और 1931 तक इसका उपयोग किया जाता रहा, लेकिन इसी बीच झंडे के रंग को लेकर सांप्रदायिक बातें भी उठनी शुरू हो गई थीं। तब 1931 में सात सदस्यीय एक ध्वज समिति का गठन किया गया। इस ध्वज समिति ने तिरंगे को एक नया रूप दिया जिसे ‘पूर्ण स्वराज’ कहा गया। इस झंडे में लाल रंग को केसरिया रंग से बदल दिया गया, जो सबसे ऊपर था। सफेद पट्टी को बीच में लाया गया और उसके बाद हरा रंग था। इस झंडे में चरखा नीले रंग का था जो सफेद पट्टी के बीच में बना हुआ था। इस ध्वज को आधिकारिक तौर पर अपना लिया गया। इसी ध्वज के नीचे आजादी के अनेक आंदोलन लड़े गए और अंग्रेजों को देश छोड़ने पर मजबूर कर दिया गया। हालांकि, स्वतंत्र भारत का आधिकारिक राष्ट्रीय ध्वज आना अभी बाकी था जिसे संविधान सभा में तय किया गया।
दरअसल, जब भारत का संविधान बनाने के लिए संविधान सभा का गठन हुआ तब संविधान सभा में स्वतंत्र भारत के आधिकारिक राष्ट्र ध्वज के पर भी चर्चा हुई। इसके बाद संविधान सभा ने 23 जून 1947 को डॉ राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में एक सात सदस्यीय तदर्थ समिति (एडहॉक कमेटी) का गठन किया। समिति ने झंडे के आकार और प्रारूप पर गहन विचार किया।14 जुलाई 1947 को ध्वज समिति ने अपनी बैठक में यह तय किया कि झंडा ऐसा होना चाहिए जो सभी दलों और समुदायों को स्वीकार्य हो। साथ ही समिति ने महसूस किया कि चरखा झंडे के दोनों तरफ से देखने में अलग दिखता है, इसलिए समिति ने चरखे की जगह 24 तीलियों वाला अशोक चक्र का उपयोग करने का निर्णय लिया। इसके लिए समिति ने सारनाथ के शीर्ष पर दिखाई देने वाला ‘अशोक चक्र’ जिसे ‘धर्म चक्र’ कहा गया और इसे चरखे की जगह अपनाया।
झंडा समिति द्वारा झंडे के नए प्रारूप को अंतिम रूप देने के बाद 22 जुलाई 1947 को संविधान सभा की बैठक में पंडित जवाहर लाल नेहरू ने झंडे की स्वीकृति के लिए ‘राष्ट्रीय पताका संबंधी प्रस्ताव’ पेश किया। जिसमें कहा गया कि
“निश्चय किया जाता है कि भारत का राष्ट्रीय झंडा तिरंगा होगा जिसमें गहरे केसरिया, सफेद और गहरे हरे रंग की बराबर बराबर की तीन आड़ी पट्टियां होंगी। सफेद पट्टी के केंद्र में चरखे के प्रतीक स्वरूप गहरे नीले रंग का एक चक्र होगा। चक्र की आकृति उस चक्र के समान होगी जो सारनाथ के अशोक कालीन सिंह स्तूप के शीर्ष भाग पर स्थित है।
चक्र का व्यास सफेद पट्टी की चौड़ाई के बराबर होगा। राष्ट्रीय झंडे की चौड़ाई और लंबाई का अनुपात साधारणत: 2:3 होगा।“
इस प्रस्ताव पर संविधान सभा में खूब चर्चा हुई। देश के पहले उपराष्ट्रपति और संविधान सभा के सदस्य डॉ सर्वपल्ली राधाकृष्णन ने इस तिरंगे की दार्शनिक अंदाज में व्याख्या की। उन्होंने श्वेत रंग को प्रकाश और शांति का मार्ग कहा, तो अशोक चक्र को न्याय और धर्म का चक्र बताया जो सदैव चलायमान है और जीवन की गति को दर्शाता है। वहीं केसरिया को त्याग का प्रतीक बताया और हरे रंग का संबंध हमारी मिट्टी और प्रकृति से जोड़ा। खूब चर्चा के बाद संविधान सभा में सर्वसम्मति से इस तिरंगे को आधिकारिक तौर पर राष्ट्र ध्वज के रूप में स्वीकार्य कर लिया गया। इसके बाद संविधान सभा के सभी सदस्यों ने आधे मिनट तक अपने स्थान पर खड़े होकर इस झंडे के प्रति सम्मान प्रकट किया।
इसके बाद, 15 अगस्त 1947 की आधी रात के कुछ मिनट बाद ही संविधान सभा की सदस्य हंसा मेहता ने भारत की महिलाओं की ओर से संविधान सभा को राष्ट्रीय झंडा प्रस्तुत किया... और
आजादी की पहली किरण के साथ ही 15 अगस्त 1947 को पहली बार एक स्वतंत्र देश के रूप में इस तिरंगे झंडा को फहराया गया। 15 अगस्त 1947 को तिरंगा हमारी आजादी और हमारे देश की आजादी का प्रतीक बन गया।
भारत के राष्ट्रीय ध्वज तिरंगे डिजाइनर और वास्तुकार पिंगली वेंकय्या ने अपनी आंखों के सामने देश को आजाद होते और तिरंगे को फहराते देखा। उनकी अंतिम इच्छा थी कि मरने के बाद उनके शरीर को तिरंगा में लपेटा जाए... और जब 4 जुलाई 1963 को इस महान राष्ट्रभक्त का निधन हुआ तो उनकी इस आखिरी इच्छा को पूरा किया गया। जैसे तिरंगा हमेशा के लिए अमर है, वैसे ही पिंगली वेंकय्या भी तिरंगे के साथ हमेशा-हमेशा के लिए अमर हो गए।
तिरंगा हमारी अभिलाषाओं के विकास का प्रतीक है, हमारे संघर्षों की सफलता है और हमारे त्याग का अंतिम फल है। इस तिरंगे ने हमें और भारत को एक पहचान दी और अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता संग्राम में देश को एकजुट किया और अनंतकाल तक देश को एकजुट रखेगा।