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‘बावनी इमली’: 52 स्वतंत्रता सेनानियों की फाँसी का गवाह एक इमली का पेड़

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देश को आजादी दिलाने के लिए हजारों राष्ट्रभक्तों ने अपनी जान की कुर्बानी दे दी। अनगिनत लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत की यातना और पीड़ा को झेला। स्वाधीनता के आंदोलन में जो जिंदा बच गए, उन्होंने तो अपनी आपबीती सुनाई, लेकिन उस लड़ाई के गवाह सिर्फ क्रांतिकारी, राष्ट्रीय नेता, आम जनता या लिखी गई दस्तावेज ही नहीं हैं, बल्कि अनेक ऐसे बेजुबान पेड़-पौधे, नदी-झील, पर्वत-पहाड़ और ऐतिहासिक इमारत भी हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान हमारे क्रांतिकारियों और राष्ट्रभक्तों को अपने तले पनाह दी। उन्हें हिम्मत दी और थेक-हारे देशभक्तों के अंदर एक उम्मीद की किरण जगाई। इन बेजुबानों ने अंग्रेजों के जुल्मों-सितम को देखा, उनकी बर्बरता देखी, अपने शूरवीरों का बलिदान देखा और देश की आजादी के साक्षी भी बने। अफसोस कि वे कुछ बोल नहीं सकते, लेकिन वे आज भी खड़े हैं, इतिहास को खुद में समेटे... और हर आने जाने वालों को गवाही देते हैं कि मैं उस दौर का साक्षी हूँ, जब हमारे शूरवीरों ने देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। इन्हीं साक्ष्यों में से एक है, उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के खजुहा कस्बे के पास स्थित ‘बावनी इमली’ का पेड़। इसी इमली के पेड़ पर 28 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों ने 52 क्रांतिवीरों को एक साथ फांसी पर लटका दिया था। इमली का वह बूढा दरख्त आज भी अपने अतीत के गौरव की कहानी सुना रहा है।

52 शहीदों के बलिदान का मूक गवाह ‘बावनी इमली’

भारत को अंग्रेजों की दासता से मुक्त कराने के लिए अनगिनत क्रांतिकारियों ने अपने प्राणों की बलि दे दी। इन शहीदों की शहादत को नमन करने के लिए अनेकों जगह शहीद स्मारक बने हुए हैं, जो आजादी के सिपाहियों की त्याग और बलिदान की कहानी को बयां करते हैं। ऐसा ही एक स्मारक उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिला के खजुहा कस्बे के पारादान गांव में स्थित है... जिसे इतिहास में ‘बावनी इमली’ के नाम से जाना जाता है।

इस इमली के पेड़ पर अंग्रेजों ने 28 अप्रैल 1858 को एक साथ 52 क्रांतिकारियों को फांसी पर लटका दिया था। तभी से इन शहीदों की याद में इस पेड़ को ‘बावनी इमली’ कहा जाने लगा।

अंग्रेजों की यह काली करतूत 1858 में एशिया महाद्वीप में क्रांतिकारियों का सबसे बड़ा नरसंहार था। यह भारत की इकलौती ऐसी घटना है, जब अंग्रेजों ने एक साथ 52 क्रांतिकारियों को इमली के पेड़ पर फांसी दे दी थी।

शहीदों की गौरव गाथा का चश्मदीद वह बूढ़ा दरख्त‘बावनी इमली’ आज भी उन 52 शहीदों के बलिदान की मूक गवाही देता है।

इस ऐतिहासिक बुजुर्ग‘बावनी इमली’ का इतिहास देशभक्ति और अंग्रेजी दासता से मुक्ति के लिए किए गए संग्राम में शहादत का स्वर्णिम इतिहास है।

1857 की क्रांति और ठाकुर जोधा सिंह अटैया

दरअसल, 29 मार्च, 1857 को जब बैरकपुर छावनी में मंगल पांडे ने क्रांति का बिगुल फूंका, तो उसकी गूंज पूरे भारत में सुनायी दी... और 10 मई 1857 को मेरठ से होते हुए इस चिंगारी का असर 10 जून 1857 को उत्तर प्रदेश के फैजाबाद जिले तक पहुंच गया। जहाँ खजुहा ब्लॉक के रसूलपुर, जिसे वर्तमान में पराधा गांव के नाम से जाना जाता है... में एक किसान परिवार में जन्में ठाकुर जोधा सिंह अटैया को आजादी की लड़ाई में कूदने पर मजबूर कर दिया।

रानी लक्ष्मीबाई की वीरता से प्रभावित ठाकुर जोधा सिंह ने महज 20 साल की उम्र में अंग्रेजों के खिलाफ हथियार उठा लिया और क्रांतिकारियों का एक दल बनाकर गोरों को चुन-चुन कर मारा। जोधा सिंह पहले क्रांतिकारी थे, जिन्होंने तात्या टोपे के सिखाए गुरिल्ला युद्ध के जरिए अंग्रेजों के नाक में दम कर दिया। आजादी के दीवाने जोधा सिंह अक्सर कहा करते थे कि ‘ जोधा गुलामी में पैदा तो जरूर हुआ है, लेकिन मरेगा आजादी के बाद ही’...।

तत्कालीन डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खां ने क्रांतिकारियों का दिया साथ

आजादी के इस महासंग्राम में जोधा सिंह के आह्वान पर सैकड़ों क्रांतिकारी उनसे जुड़ गए। इनमें फतेहपुर के डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खां भी शामिल थे। जिन्होंने जोधा सिंह का खूब साथ निभाया। लड़ाई के दौरान सबसे पहले इन वीरों ने फतेहपुर के कोषागार और कचहरी पर कब्जा कर लिया। कचहरी पर कब्जे की खबर सुनकर नाना साहेब धोंधू पंत काफी खुश हुए और उन्होंने डिप्टी कलेक्टर हिकमत उल्ला खां को फतेहपुर का प्रशासक बना दिया। लेकिन 12 जुलाई 1857 को अंग्रेज मेजर रेनार्ड और हैवलॉक ने हमला कर हिकमत उल्ला को गिरफ्तार कर लिया और उनका सर कलम कर फतेहपुर कोतवाली के गेट पर टांग दिया ताकि अंग्रेजों के खिलाफ कोई आवाज बुलंद करने की साहस ना कर सके।

तात्या टोपे और जोधा सिंह ने मिलकर अंग्रेजों के छक्के छुड़ाए

अंग्रेजों के इस जुल्म से बिना घबराए ठाकुर जोधा ने ब्रिटिश सरकार के खिलाफ छापामार युद्ध जारी रखा... और नवंबर 1857 में स्वतंत्रता संग्राम के सेनानायक तात्या टोपे के साथ मिलकर जनरल विंढम के नेतृत्व में लड़ रही अंग्रेजी फौज को मैदान छोड़कर भागने पर मजबूर कर दिया...और कानपुर पर कब्जा जमा लिया।

बुंदेलखंड के क्रांतिकारियों के साथ मिलकर अंग्रेजों को हराया

आजादी के मतवाले जोधा सिंह के मन की ज्वाला इतने पर भी शांत नहीं हुई। उन्होंने 27 अक्टूबर 1857 को महमूदपुर गांव में एक दारोगा और सिपाही को घेर कर मार दिया। जोधा सिंह ने 7 दिसंबर 1857 को गंगापार रानीपुर पुलिस चौकी पर हमला कर अंग्रेजों के एजेंट को मार दिया। इसके बाद जोधा सिंह ने अवध और बुंदेलखंड के क्रांतिकारियों को संगठित कर फतेहपुर पर भी कब्जा कर लिया।

दिसंबर 1857 में ही जोधा सिंह ने जहानाबाद के तहसीलदार को बंधक बना लिया। इतना ही नहीं जोधा सिंह, तहसीलदार का अपहरण कर अपने साथ ले गए और फिरौती के तौर पर अंग्रेजों से पूरी तहसील के किसानों की लगान माफ करवाई।

ठाकुर जोधा सिंह की क्रांतिकारी गतिविधियों से घबराकर<, अंग्रेजों ने उन्हें दुर्दांत डकैत तक कहना शुरू कर दिया था।

उन दिनों खजुहा गोरिल्ला कार्यवाही प्रमुख केंद्र बन चुका था। दरअसल, चारों ओर से आने-जाने की सुविधा होने की वजह से ज्यादातर क्रांतिकारी यहीं मिलते थे और आगे की रणनीति तय करते थे। इस बात की भनक अंग्रेजों को लग गई और लेफ्टिनेंट कर्नल पावेल ने नेतृत्व में गोरी फौज ने जोधा सिंह और उनके साथियों पर हमला कर दिया। दोनों तरफ से भीषण युद्ध हुआ। इस लड़ाई में कर्नल पावेल मारा गया।

कर्नल पावेल के मारे जाने के बाद अंग्रेज बुरी तरह बौखला गए। उन्होंने कैप्टन नील के नेतृत्व में एक बड़ी फौज भेजी। जोधा सिंह भी अपने साथियों के साथ अंग्रेजों से गुरिल्ला तरीके से युद्ध करते रहे। हालांकि, इस लड़ाई में उन्हें और उनके साथियों को भारी नुकसान उठाना पड़ा। लेकिन उनके हौंसले और जज्बे में कोई कमी नहीं आई। छापामार तरीके से वे अंग्रेजों को लगातार आघात पहुंचाते रहे।

अंग्रेजों ने धोखे से जोधा सिंह को 51 साथियों के साथ गिरफ्तार किया

इस युद्ध के बाद अंग्रेजों से बचने और क्रांतिकारी गतिविधियों को जारी रखने के लिए जोधा सिंह छिप-छिप कर और भेष बदलकर काम करने लगे। छापामार युद्ध के महारथी ठाकुर जोधा सिंह 28 अप्रैल 1858 को अर्गल के राजा गणपत सिंह से मिलकर लौट रहे थे, उसी दौरान किसी मुखबिर की सूचना पर कर्नल क्रिस्टाईल के नेतृत्व में अंग्रेजों की घुड़सवार सेना ने उनके 51 साथियों के साथ घोरहा गांव के पास उन्हें गिरफ्तार कर लिया।

ठाकुर जोधा सिंह और उनके क्रांतिकारी दल से घबराई ब्रिटिश हुकूमत ने बिना कोई देरी किए 28 अप्रैल 1858 को ही खजुहा के करीब स्थित इमली के एक पेड़ पर सभी 52 देशभक्तों को फांसी पर लटका दिया... और ऐलान कर दिया कि जो भी इन शवों को पेड़ से उतारेगा, उसे भी फांसी दे दी जाएगी। यही वह इमली का पेड़ है जिसे अब ‘बावनी इमली’ कहा जाता है।

बावनी इमली की घटना दूसरा जलियाँवाला बाग

यह एक तरह से जलियाँवाला बाग जैसी ही घटना थी, जहां फांसी के नाम पर अंग्रेजों द्वारा सामूहिक नरसंहार किया गया। बर्बरता की चरम सीमा यह थी कि सभी 52 शवों का अंतिम संस्कार तो दूर, उन्हें पेड़ से उतारा तक नहीं गया। एक महीने से ज्यादा समय तक ये शव इसी पेड़ पर झूलते रहे। 3 और 4 जून 1858 के दरम्यानी रात को जोधा सिंह के निकट सहयोगी ठाकुर महाराज सिंह ने अपने नौ सौ क्रांतिकारी साथियों के साथ सभी 52 शवों के अस्थि पंजरों को पेड़ से उतारकर, कानपुर स्थित शिवराजपुर घाट पर अंतिम संस्कार किया।

बिंदकी और खजुहा के बीच स्थित वह इमली का पेड़ जिसे बावनी इमली कहते हैं... आज शहीद स्मारक के रूप में याद किया जाता है। इस पेड़ के नीचे 52 छोटे स्तंभ हैं, जो बताते हैं कि यहीं ठाकुर जोधा सिंह अटैया और उनके साथियों ने भारत माता की आजादी के लिए कुर्बानी दी थी।

इस‘बावनी इमली शहीद स्मारक’ के चबूतरे पर लगे एक पत्थर पर ठीक ही लिखा है “शहीदों की चिताओं पर लगेंगे हर बरस मेले, वतन पर मरनेवालों का यही बाक़ी निशाँ होगा।“

त्याग और बलिदान का प्रतीक है‘बावनी इमली’

52 क्रांतिकारियों की शहादत का गवाह ‘बावनी इमली शहीद स्थल’ समय के थपेड़ों से जूझते हुए आज भी अतीत के गौरव की कहानी कह रहा है। देश के इन 52 वीर सपूतों की कुर्बानी ‘बावनी इमली शहीद स्मृति स्थल’ आने वाली पीढ़ियों को देश के लिए तन और मन से अपने आपको अर्पण करने के लिए प्रेरित करता रहेगा। हालांकि, तमाम कोशिशों के बावजूद इन वीर शहीदों के बलिदान के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि तभी पूरी होगी, जब ठाकुर जोधा सिंह के साथ ही उन 51 अमर शहीदों को भी इतिहास में उचित स्थान मिलेगा।

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