भारत-चीन सीमा विवाद: क्या है अतीत से वर्तमान तक की कहानी? भाग-1
भारत दुनिया के कुल सात देशों के साथ सीमा साझा करता है। इन देशों में चीन, पाकिस्तान, भूटान, अफगानिस्तान, म्यांमार, बांग्लादेश और नेपाल शामिल हैं। इनमें बांग्लादेश के साथ भारत सबसे लंबी सीमा रेखा साझा करता है। यह करीब 4 हजार 96 किलोमीटर लंबी है जो दुनिया की पांचवी सबसे लंबी भूमि सीमा है। वहीं चीन भारत के साथ सीमा साझा करने वाला सबसे बड़ा देश है जिसके साथ भारत अपनी 3,488 किलोमीटर की सीमा को साझा करता है। हालांकि भारत-चीन के बीच यह सीमा रेखा चिन्हित नहीं है और इसे वास्तविक नियंत्रण रेखा यानी Line of Actual Control कहा जाता है। लेकिन चीन की विस्तारवादी और आक्रामक नीतियों की वजह से भारत और चीन के बीच अक्सर इस सीमा रेखा को लेकर विवाद होते रहते हैं। इस सीमा विवाद को लेकर 1962 में दोनों देशों के बीच युद्ध भी हो चुका है। दरअसल, भारत-चीन सीमा से सटे दो बड़े इलाके - अक्साई चिन और मैकमोहन रेखा- के अलावा अनेक छोटे-छोटे इलाके भी हैं जिन्हें लेकर दोनों देशों के बीच अक्सर तनाव की स्थिति बनी रहती है। चीन की अड़ियल रवैये की वजह से अभी तक भारत-चीन सीमा रेखा विवाद का समाधान नहीं निकल पाया है।
दरअसल, भारत-चीन संबंधों पर नज़र डालें तो इन दोनों देशों के संबंधों में दो मूल प्रश्न रहे हैं... पहला सीमा विवाद और दूसरा, तिब्बत का प्रश्न...। अनेक स्तर पर हुई वार्ताएं और प्रयास के बावजूद भी अब तक इस समस्या का निपटारा नहीं हो पाया है।
तिब्बत के बारे में हम विस्तार से चर्चा अगले आलेख में करेंगे... आज हम चर्चा करेंगे भारत-चीन सीमा विवाद के बारे में... जानेंगे कि आखिर क्या है इस विवाद की इतिहास और क्यों नहीं सुलझती है यह समस्या.... साथ ही ये भी जानेंगे कि इस पूरे मामले में तिब्बत की क्या भूमिका है... इसके अलावा इस पर भी चर्चा करेंगे कि ब्रिटिश भारत में और उसके बाद आजाद भारत में भारत-चीन सीमा विवाद की स्थिति क्या रही और सीमा विवाद की इस समस्या का हल नहीं होने में चीन की विस्तारवादी नीति और हठी भूमिका... कितना बड़ा कारण है?
भारत और चीन एशिया महाद्वीप की दो बड़ी शक्तियां हैं। दोनों देश अपने ऊपर लगे विकासशील शब्द का चोला उतारकर विकसित देश बनने के लिए लगातार प्रयासरत हैं। लेकिन विकसित होने के इस प्रयास में भारत जहां वसुधैव कुटुंबकम और शांति की नीति अपनाकर आगे बढ़ रहा है, वहीं चीन विस्तारवादी और साम्राज्यवादी नीति को अपने विकास के मूल में लेकर चल रहा है। चीन की इसी विस्तारवादी और हठी नीति की वजह से भारत समेत उसके ज्यादातर पड़ोसी देशों के साथ सीमा विवाद सबसे गंभीर समस्या बनती चली गई। भारत के साथ तो चीन का सीमा विवाद भारत के आजाद होने और तिब्बत पर चीन के बलात कब्जा करने से पहले ही शुरू हो गया था लेकिन चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने के बाद यह विवाद काफी बढ़ गया... जो चीन की नीतियों की वजह से अब तक नहीं सुलझ पाया है, और आए दिन भारत-चीन सीमा पर दोनों देशों के सैनिकों के बीच इसे लेकर टकराव देखने को मिलते रहते हैं। यहां तक कि इसे लेकर दोनों देशों के आंतरिक राजनीति में भी आरोप-प्रत्यारोप चलते रहते हैं।
अफगानिस्तान से म्यांमार तक फैला है भारत-चीन सीमा विवाद
चीन के साथ भारत का यह सीमा विवाद हिमालय की ऊंची और दुर्गम चोटियों के सहारे अफगानिस्तान की सीमा से शुरू होकर म्यांमार की सीमा के नजदीक पिछलू दर्रे के पास तक जाती है जिसकी कुल लंबाई 4056 किलोमीटर है। इन्हीं रास्तों में अक्साई चिन, गलवान घाटी, डोकलाम, नाथूला से होते हुए अरुणाचल प्रदेश के तवांग घाटी आदि सभी क्षेत्र आते हैं।
इस सीमा से सटे भारतीय प्रदेशों की बात करें तो इनमें लद्दाख, हिमाचल प्रदेश, उत्तराखंड, सिक्किम और अरुणाचल प्रदेश शामिल हैं। इनमें लद्दाख में 1954 किलोमीटर का हिस्सा चीन की सीमा से जुड़ा है। जबकि अरुणाचल प्रदेश के 1080 किलोमीटर के हिस्से में दोनों देश सीमा साझा करते हैं। वहीं उत्तराखंड में 463 किमी और हिमाचल प्रदेश में 345 किमी का इलाका चीन की सीमा से लगा हुआ है। सिक्किम से चीन का सिर्फ 220 किलोमीटर का बॉर्डर ही जुड़ता है।
पश्चिमी सेक्टर, मध्य सेक्टर और पूर्वी सेक्टर में सीमा विवाद
भारत और चीन के बीच इस सीमा रेखा को आमतौर पर तीन भागों में बांटा जा सकता है। पश्चिमी सेक्टर, जिसमें लद्दाख के साथ सीमा विवाद है। मध्य सेक्टर, जिसमें उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के साथ सीमा लगती है और पूर्वी सेक्टर, जिसमें अरुणाचल प्रदेश और सिक्किम शामिल हैं।
पश्चिमी सेक्टर में भारत की करीब 2152 किलोमीटर लंबी सीमा चीन के साथ लगती है। यह चीन के तिब्बत और झिंजियांग प्रदेश से लद्दाख को अलग करती है। अक्साई चिन का विवादित इलाका इसी क्षेत्र में पड़ता है। जिसे भारत अपना हिस्सा बताता है जबकि चीन उसे अपना कहता है।
वहीं, पूर्वी सेक्टर में चीन के साथ भारत की 1140 किलोमीटर लंबी सीमा है जो पूर्वी भूटान से लेकर तिब्बत, भारत और म्यांमार की सीमा पर स्थित तालु दर्रे के पास तक फैली है। इसी सीमा रेखा को मैकमोहन लाइन का नाम दिया गया है। चीन मैकमोहन लाइन को नहीं मानता है और पूरे अरुणाचल प्रदेश पर अपना दावा करता है। चीन अरुणाचल प्रदेश को दक्षिणी तिब्बत कहता है जबकि भारत अरुणाचल प्रदेश को अपना अभिन्न अंग मानता है। अक्साई चिन और मैकमोहन लाइन विवाद को लेकर ही 1962 में दोनों देशों के बीच युद्ध हुआ था।
सीमा विवाद का तीसरा हिस्सा है मध्य सेक्टर... जो पूर्वी और पश्चिमी सेक्टर के बीच में पड़ता है.... जहां उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश में भारत-चीन की सीमा लगती है। इस सीमा रेखा की कुल लंबाई 625 किलोमीटर है। इसमें शिपकी दर्रा से लिपुलेख दर्रा तक के इलाके आते हैं। इस क्षेत्र में शिपकी ला, कोरिक इलाके, पुलाम, थाग ला, बाराहोती, कुंगरी-बुंगरी ला, लापथाल और सांघा के आसपास के इलाके विवादित हैं।
ब्रिटिश भारत में ही शुरू हो गया था सीमा विवाद
अब इस भारत-चीन सीमा विवाद को गहराई से जानने के लिए इसके ऐतिहासिक पहलुओं को जानना जरूरी है। क्योंकि भारत-चीन सीमा विवाद की जड़ें भारत की आजादी और चीन द्वारा तिब्बत पर कब्जा करने से पहले... भारत के औपनिवेशिक काल तक जाता है। जब अंग्रेजों ने अपने साम्राज्य के विस्तार के साथ ही ब्रिटिश भारत की सीमा निर्धारण की पहल शुरू की थी। इसके तहत भारत की आजादी से पहले ब्रिटिश भारत सरकार और तिब्बत के बीच अंग्रेजों द्वारा सीमा निर्धारित करने की कई कोशिशें की गईं।
इन सब के बीच एक दिलचस्प बात यह है कि तिब्बत पर कब्जा करने से पहले चीन की सीमा सीधे तौर पर भारत से नहीं लगती थी। चीन ने जब 1951 में तिब्बत पर जबरदस्ती कब्जा कर लिया, तब चीन की स्थलीय सीमा भारत से सट गई और यहीं से भारत-चीन के बीच सीमा विवाद का जन्म हो गया। आजाद भारत और चीन के बीच सीमा विवाद की बात करेंगे इसी कार्यक्रम में आगे... पहले अंग्रेजों द्वारा ब्रिटिश भारत और तिब्बत की सीमाओं के निर्धारण के बारे में जान लेते हैं। जो भारत-चीन सीमा विवाद के मूल में है।
अक्साई चीन के महत्व को देखते हुए ब्रिटिश भारत में सीमा निर्धारण की कोशिश
भारत पर कब्जा जमाने के बाद ब्रिटिश भारत में अंग्रेजों द्वारा सीमा निर्धारण का सबसे पहला प्रयास पश्चिम सेक्टर में लद्दाख और तिब्बत के बीच किया गया। इसी पश्चिमी सेक्टर में अक्साई चिन का वह इलाका भी आता है जिस पर चीन कब्जा जमाए हुए है और जिसे लेकर भारत-चीन के बीच लंबे समय से विवाद है।
दरअसल, अक्साई चिन समुद्र तल से 5 हजार मीटर की ऊंचाई पर स्थित एक नमक का मरुस्थल है जो एक तरह से वीरान और काफी हद तक निर्जन इलाका है। हालांकि सामरिक रूप से इसका काफी महत्व है। ऐतिहासिक रूप से भी अक्साई चीन भारत को सिल्क रूट से जोड़ने का जरिया था। साथ ही यह हजारों साल से भारत और मध्य एशिया के पूर्वी इलाकों के बीच संस्कृति, भाषा और व्यापार का रास्ता भी रहा है जो पश्चिमी तिब्बत से होते हुए इन इलाकों तक पहुंचता है। इसी इलाके में गलवान घाटी, दौलत बेग ओल्डी, देपसांग मैदान, पैंगोंग लेक, हॉट स्प्रिंग्स और कोंग्का दर्रा भी है, जिन्हें लेकर भारत-चीन में अक्सर विवाद होते रहते हैं। जून 2020 में गलवान घाटी में बकायदा दोनों देशों के सैनिकों के बीच खूनी झड़प हुई थी।
ये भी पढ़ें :
चीन का बेबुनियादी दावा और तिब्बत का इनकार
चूकि तिब्बत पर कब्जा करने से पहले चीन की सीमा सीधे तौर पर भारत से नहीं लगती थी। इसलिए ये समझौते अंग्रेजों ने तिब्बत के साथ किए। दरअसल तिब्बत का इतिहास भी बेहद उथल-पुथल भरा रहा है। कभी वह एक आजाद इलाके के तौर पर रहा तो कभी मंगोलिया और कभी चीन के अधीन रहा। हालांकि चीन हमेशा से बिना किसी ठोस सबूत के यह दावा करता रहा है कि तिब्बत से उसके ऐतिहासिक संबंध रहे हैं और तिब्बत सदियों तक चीन का हिस्सा रहा है। लेकिन चीन के इस दावे को तिब्बत और तिब्बती लोग सिरे से नकारते रहे हैं और उनका कहना है कि तिब्बत सदियों तक एक स्वतंत्र राज्य रहा है। बहरहाल, जब भी लद्दाख और तिब्बत के बीच अंग्रेजों ने सीमा का निर्धारण किया .... चीन ने कभी भी उसका समर्थन नहीं किया और ऐतिहासिक सिल्क रूट पर कब्जा जमाने की मंशा से हमेशा इसका विरोध किया।
अमृतसर की संधि
दरअसल, यह वह दौर था जब इन क्षेत्रों में राजनीतिक रूप से कोई स्थायी सीमा निर्धारित नहीं थी और हर देश सैन्य शक्ति के बल पर अपनी भौगोलिक सीमाओं के विस्तार में लगा हुआ था। भारत ब्रिटेन के अधीन था और अंग्रेज भी भारत में ज्यादा से ज्यादा इलाके जीत कर अपनी सीमाओं का विस्तार करने में जुटे हुए थे। अंग्रेजों ने जब 1845-46 में प्रथम आंग्ल-सिख युद्ध में सिखों को हरा दिया... उसके बाद पूरा पंजाब और जम्मू-कश्मीर जो सिख साम्राज्य का हिस्सा था, अंग्रेजों के अधीन आ गया। चूकि 1842 में सिख साम्राज्य के अधीन राजा गुलाब सिंह की सेना ने लद्दाख पर कब्जा कर लिया था लिहाजा 1846 में सिखों के हारने के बाद लद्दाख समेत पूरा जम्मू-कश्मीर क्षेत्र अंग्रेजों के अधीन आ गया। हालांकि 1846 में हुई अमृतसर की संधि के तहत जम्मू-कश्मीर के तत्कालीन राजा गुलाब सिंह डोगरा ने अंग्रेजों को 75 लाख रुपये देकर कश्मीर घाटी और लद्दाख विजारत जिसमें बाल्टिस्तान, कारगिल और लेह शामिल थे, उन्हें ले लिया। इसके बाद गुलाब सिंह ने इन इलाकों को जम्मू रियासत में मिला लिया जिस पर पहले से ही उनका शासन था।
भौगोलिक और सामरिक दृष्टि से लद्दाख बेहद महत्वपूर्ण
चूंकि सामरिक और भौगोलिक दोनों रूप से लद्दाख हमेशा से काफी महत्वपूर्ण रहा है। यह उत्तर में काराकोरम पर्वत और दक्षिण में हिमालय पर्वत के बीच में स्थित है। लद्दाख के पश्चिम में जम्मू-कश्मीर, उत्तर में गिलगित, बाल्टिस्तान है, तो दूसरी तरफ पूर्वी तुर्किस्तान है जिस पर चीन ने 1878 में कब्जा कर लिया और उसके बाद से इसे झिंजियांग रीजन के तौर पर जाना जाता है। जबकि लद्दाख के पूरब में तिब्बत है जहां चीन ने कब्जा जमा रखा है।
व्यापारिक दृष्टिकोण से भी देखें तो लद्दाख और तिब्बत का महत्व सदियों से रहा है। क्योंकि ये दोनों सिल्क रूट के बिलकुल बीचोबीच में हैं। चीन से जो सिल्क रूट निकलता था वो तिब्बत और लद्दाख होते हुए ही मध्य एशिया, मिडिल ईस्ट के देशों- ईरान, इराक और सीरिया होते हुए रोम तक को जोड़ता है। सदियों से यह रूट व्यापारिक मार्ग के रूप में जाना जाता रहा है। इस मार्ग पर केवल रेशम का व्यापार ही नहीं होता था बल्कि इससे जुड़े सभी लोग अपने-अपने उत्पादों का व्यापार भी करते थे। इसके महत्व को देखते हुए ही आज भी चीन अपनी विस्तारवादी नीति और बिना किसी अड़चन के सीधे यूरोप तक अपनी पहुंच बनाने के लिए इस रूट पर अपना एकाधिकार कायम करना चाहता है।
हालांकि, तिब्बत और लद्दाख के बीच का इलाका ऊंचे पहाड़ों की वजह से इतना दुर्गम है कि इनके बीच बॉर्डर को तय करना बेहद मुश्किल था। इनकी संस्कृति भी इस कदर मिलती-जुलती थी कि अंग्रेज ये अंदाजा ही नहीं लगा पाते थे कि कहां लद्दाख खत्म होता है और कहां से तिब्बत शुरू होता है।
ब्रिटिश भारत में लद्दाख और तिब्बत के बीच सीमा निर्धारण की शुरुआत
दरअसल अमृतसर की संधि के बाद जम्मू-कश्मीर रियासत British Paramountcy के अधीन आ गया था। जबकि लद्दाख पहले से ही जम्मू-कश्मीर रियासत का हिस्सा था। इस वजह से लद्दाख की सीमा तिब्बत से मिल गई। भले ही यह क्षेत्र विरान था लेकिन इसकी सामरिक और व्यापारिक महत्व को देखते हुए ही चीन पहले भी इस क्षेत्र पर अपना कब्जा जमाने के लिए समय-समय पर आक्रमण करता रहा था। वहीं, 19वीं सदी में रूस भी तिब्बत में अपनी इच्छा जाहिर कर चुका था। तिब्बत के इस उत्तर-पश्चिम इलाके के महत्व को देखते हुए ही अंग्रेजों ने भारत के आजाद होने से पहले पश्चिमी क्षेत्र में तिब्बत और लद्दाख की सीमाओं को निर्धारित करने के लिए तीन बार पहल की। इसके तहत 1865 में जॉनसन लाइन, 1897 में अर्दाघ-जॉनसन लाइन और 1899 में मैकार्टनी-मैकडोनाल्ड लाइन खींची गई।
भारत का मानचित्र तैयार करने के लिए Great Trigonometric Survey
इधर भारत के अलग-अलग क्षेत्रों को जीत कर अंग्रेज ब्रिटिश भारत में मिला रहे थे और भारतीय उपमहाद्वीप में उनका इलाका बढ़ता जा रहा था। अपने इस बढ़ते साम्राज्य की सीमा निर्धारित करने के लिए अंग्रेजों ने 1855 में Great Trigonometric Survey शुरू किया। जिसका उद्देश्य पूरे भारतीय उपमहाद्वीप का वैज्ञानिक सर्वेक्षण करना था। इसके तहत ब्रिटिश भारत में मानचित्र बनाना और हिमालय क्षेत्रों की ऊंचाइयां नापनी भी थी। साथ ही तिब्बत और सिकियांग की ओर तत्कालीन जम्मू-कश्मीर रियासत की बाहरी सीमाओं का निर्धारण भी करना था। इसके लिए तत्कालीन जम्मू-कश्मीर रियासत के महाराजा गुलाब सिंह डोगरा ने भी आर्थिक मदद की थी।
Great Trigonometric Survey के तहत अंग्रेजों ने पश्चिमी सेक्टर में चीन और भारत के बीच सीमा निर्धारण की तीन बार कोशिश की... लेकिन चीन के रवैये की वजह से हर बार यह कोशिश नाकाम रही। सीमा निर्धारण की इन सभी प्रयासों के बारे में विस्तार से बात करेंगे इस आलेख के दूसरे भाग में यानी भारत-चीन सीमा विवाद पार्ट-2 में...। अंग्रेजों की कोशिशों से लेकर वर्तमान तक भारत-चीन सीमा विवाद की पूरी कहानी बताएंगे और यह भी चर्चा करेंगे कि कैसे इस सीमा विवाद की वजह से भारत-चीन के बीच युद्ध हुआ और सीमा विवाद की वजह से कितना उतार-चढ़ाव रहा है भारत-चीन संबंध में....और आखिर क्या है इस सीमा विवाद का समाधान...।