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व्यक्ति विशेष

वास्को डी गामा की अरबों से टकराव और समुद्र में भारतीयों से मुलाकात | वास्को डी गामा- Part-3

Vasco da Gama Part-3

केप ऑफ गुड होप से जैसे ही वास्को डी गामा का बेड़ा आगे बढ़ा..वैसे ही इतिहास में एक नया अध्याय जुड़ गया। क्योंकि यह पहला मौका था जब कोई यूरोपीय जहाज अफ्रीका के दक्षिणी छोर से आगे की ओर बढ़ा था। आगे के बारे किसी को कुछ भी पता नहीं था इसलिए आगे बढ़ने के साथ ही दुस्वारियां भी बढ़ती गई। अफ्रीका के तटों पर इस्लाम को मानने वाले राजाओं का राज था। वास्को डी गामा के लिए सबसे बड़ी चुनौती यह थी कि भारत पहुंचने के लिए मदद कैसे ली जाए और किससे ली जाए। कहीं लड़ाई, कहीं कूटनीति और कहीं झूठे वादों का सहारा लेकर वह आगे की ओर बढ़ रहा था। इसी रास्ते में आगे अरब और मूर व्यापारियों से उसका टकराव भी हुआ और पहली बार भारतीय व्यापारी भी उसे मिले।

वास्को डी गामा और केप ऑफ गुड होप: आशाओं का अंत लेकिन नई उम्मीदों की शुरुआत | Part-2

Vasco da Gama Part-2

पुर्तगालियों के भारत आने का मुख्य उद्देश्य तो समुद्री व्यापार पर कब्जा जमाना था लेकिन इसके साथ ही उनके और भी कई उद्देश्य थे जो वो इसके जरिए पूरा करना चाहते थे। इनमें से एक उद्देश्य धर्मयुद्ध भी था। जो उन दिनों यूरोप से शुरू होकर अरब सागर तक फैला हुआ था। दरअसल पुर्तगाली अरबी मुसलमानों को भारत से होने वाले व्यापार में से भागा देना चाहते थे ताकि भारत से जो सोना और मसाले अरब के व्यापारी अपने साथ ले जाते थे उसे पुर्तगाली अपने साथ यूरोप ले जा सकें। और यह काम एक नाविक के बस की नहीं थी। इसके लिए एक शातिर, दृढ़ योद्धा, कूटनीतिज्ञ और जुझारू जहाजी की जरूरत थी और वास्को डी गामा इसके लिए हर तरह से फिट था।

वास्को डी गामा और काली मिर्च: पहला यूरोपीय जिसने भारत के लिए समुद्री मार्ग ढूंढा। Part-1

वास्को डी गामा की भारत यात्रा

वास्तव में वास्को डी गामा की यह यात्रा जितनी ऐतिहासिक थी उतनी ही रोमांच और चुनौतियों से भरपूर भी। दरअसल वास्को डी गामा से पहले जितने भी यूरोपीयन भारत आए थे वे सब के सब जमीन के रास्ते यानी थलमार्ग से आए थे। वास्को डी गामा पहला यूरोपीय था जो समुद्री मार्ग से भारत आया। इस तरह वास्को डी गामा दुनिया का पहला व्यक्ति बन गया, जिसने यूरोप और भारत के बीच समुद्री मार्ग ढूंढने में सफलता पाई। वास्को डी गामा की इस सफलता के दूरगामी परिणाम निकले। उसकी इस खोज ने यूरोप के अनगिनत यात्रियों, व्यापारियों और साम्राज्यवादियों को भारत आने के लिए नया रास्ता दिखा दिया। जिसने भारत समेत दक्षिण और दक्षिण पूर्व एशिया में यूरोप के वर्चस्व का एक नया अध्याय शुरू कर दिया...।

अनूठी शैली और विराट व्यक्तित्व के धनी थे अटल बिहारी वाजपेयी

Atal Bihari Vajpayee

इतिहास के एक लंबे कालखंड को खुद में समेटे अटल बिहारी वाजपेयी का सफर कई मायने में ऐतिहासिक रहा। ये सफर शुरू हुआ 25 दिसंबर 1924 को, जब वे ग्वालियर में पैदा हुए। इसके बाद तो ग्वालियर की गलियों से जनसंघ के संस्थापक तक का सफ़र...। दिल्ली दरबार से संयुक्त राष्ट्र संघ तक का सफर... और बीजेपी के संस्थापक अध्यक्ष से लेकर प्रधानमंत्री तक का सफर। हर सफर अपने आप में बेजोड़ और एक अनोखी दास्तां लिखते हुए गुज़रा। हां, एक बात ये भी रही कि इस पूरे सफर के दौरान हिन्दी प्रेम और राष्ट्रवाद की चमक भी उनके चेहरे पर हमेशा बनी रही।

मुज़फ़्फ़रपुर बम कांड का नायक: जिसने 18 साल की उम्र में आजादी के लिए फांसी के फंदे को चूम लिया

Khudi ram bose
जुलाई 1905 में जब ब्रिटिश सरकार ने बंगाल विभाजन की घोषणा की पूरे बंगाल में इसका बेहद तीव्र विरोध हुआ। खुदीराम बोस इससे भला कहां अलग रहने वाले थे। उन्होंने पढ़ाई छोड़ी दी और स्वदेशी आंदोलन में कूद पड़े। साथ ही आजन्म स्वदेश सेवा का व्रत ले लिया।

बंगाल विभाजन के विरोध के दौरान फरवरी 1906 में मिदनापुर में लगे एक कृषि उद्योग मेले में  क्रांतिकारी पर्चा ‘वंदे मातरम’ बांटते समय एक सिपाही ने उन्हें पकड़ लिया, लेकिन दिलेर खुदीराम ने उसकी नाक पर ऐसा घूंसा मारा कि सिपाही गिरकर बेहोश हो गया और वो भाग निकले। हालांकि वो दो महीने बाद पकड़े गए, लेकिन सबूतों के अभाव में मई 1906 में रिहा भी हो गए।

सरफ़रोश क्रांतिकारी: पंडित रामप्रसाद ‘बिस्मिल’

Ram prasad bismil

बिस्मिल भारत तो क्या संभवत: दुनिया के पहले ऐसे क्रांतिकारी थे, जिन्होंने क्रांतिकारी के तौर पर अपने लिए जरूरी हथियार अपनी लिखी पुस्तकों की बिक्री से मिले रुपयों से खरीदे थे। आजादी के गुमनाम नायक में आज बात इसी सरफरोश क्रांतिकारी के बारे में... जिसके बहुआयामी व्यक्तित्व में देश प्रेम के साथ ही एक संवेदनशील कवि, शायर, साहित्यकार और इतिहासकार के साथ-साथ एक बहुभाषी अनुवादक भी निवास करता था।

‘बावनी इमली’: 52 स्वतंत्रता सेनानियों की फाँसी का गवाह एक इमली का पेड़

bawani imli shahid smarak

देश को आजादी दिलाने के लिए हजारों राष्ट्रभक्तों ने अपनी जान की कुर्बानी दे दी। अनगिनत लोगों ने ब्रिटिश हुकूमत की यातना और पीड़ा को झेला। स्वाधीनता के आंदोलन में जो जिंदा बच गए, उन्होंने तो अपनी आपबीती सुनाई, लेकिन उस लड़ाई के गवाह सिर्फ क्रांतिकारी, राष्ट्रीय नेता, आम जनता या लिखी गई दस्तावेज ही नहीं हैं, बल्कि अनेक ऐसे बेजुबान पेड़-पौधे, नदी-झील, पर्वत-पहाड़ और ऐतिहासिक इमारत भी हैं, जिन्होंने आजादी की लड़ाई के दौरान हमारे क्रांतिकारियों और राष्ट्रभक्तों को अपने तले पनाह दी। उन्हें हिम्मत दी और थेक-हारे देशभक्तों के अंदर एक उम्मीद की किरण जगाई। इन बेजुबानों ने अंग्रेजों के जुल्मों-सितम को देखा, उनकी बर्बरता देखी, अपने शूरवीरों का बलिदान देखा और देश की आजादी के साक्षी भी बने। अफसोस कि वे कुछ बोल नहीं सकते, लेकिन वे आज भी खड़े हैं, इतिहास को खुद में समेटे... और हर आने जाने वालों को गवाही देते हैं कि मैं उस दौर का साक्षी हूँ, जब हमारे शूरवीरों ने देश की आजादी के लिए हंसते-हंसते अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। इन्हीं साक्ष्यों में से एक है, उत्तर प्रदेश के फतेहपुर जिले के खजुहा कस्बे के पास स्थित ‘बावनी इमली’ का पेड़। इसी इमली के पेड़ पर 28 अप्रैल 1858 को अंग्रेजों ने 52 क्रांतिवीरों को एक साथ फांसी पर लटका दिया था। इमली का वह बूढा दरख्त आज भी अपने अतीत के गौरव की कहानी सुना रहा है।

दृढ़ निश्चय और उदात्त विचारों के संगम का नाम है ‘लाल बहादुर शास्त्री’

Lal Bhadur Shahstri ji

अपनी ईमानदारी, सादगी और उच्च नैतिक आदर्शों के लिए पहचाने जाने वाले लाल बहादुर शास्त्री ने सत्ता को कभी भी सुख और वैभव भोगने का साधन नहीं माना। प्रधानमंत्री के रूप में ही नहीं बल्कि अन्य पदों पर रहते हुए भी उन्होंने उच्च आदर्श और नैतिकता का उदाहरण पेश किया। 1956 में जब वो रेल मंत्री थे तब एक रेल दुर्घटना हुई जिसमें कई लोग मारे गए थे। खुद को जिम्मेदार मानते हुए उन्होंने रेल मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया था। हालांकि उनका इस्तीफा स्वीकार नहीं किया गया। तब भी शास्त्री जी ने अपने आचरण से राजनीति में नैतिकता की एक अलग मिसाल कायम की।

अशफाक उल्लाह खां: महान क्रांतिकारी और बेहतरीन शायर

Ashfaq ullah Khan

“जिन्दगी वादे-फना तुझको मिलेगी 'हसरत', तेरा जीना तेरे मरने की बदौलत होगा।“ भारत के स्वाधीनता आंदोलन में काकोरी कांड की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है। काकोरी कांड ही वह घटना थी जिसके बाद देश में क्रांतिकारियों के प्रति लोगों का नजरिया बदलने लगा था और वे पहले से ज्यादा लोकप्रिय होने लगे थे। दरअसल फरवरी 1922 में चौरी-चौरा कांड के बाद जब गांधी जी ने असहयोग आंदोलन को वापस ले लिया तब भारत के युवाओं में जो निराशा पैदा हुई थी उसे काकोरी कांड ने ही दूर किया था... और इस काकोरी कांड में बेहद ही महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी अमर शहीद अशफाक उल्लाह खां ने......

सम्पूर्ण क्रांति के जनक जयप्रकाश नारायण को संन्यास लेने के बाद वापस राजनीति में क्यों आना पड़ा?

Loknayak Jai Prakash Narayan

अपने जीवन में संतों जैसा सम्मान केवल दो नेताओं ने प्राप्त किया। एक महात्मा गांधी थे तो दूसरे जयप्रकाश नारायण। इसलिए जब सक्रिय राजनीति से दूर रहने के बाद जेपी ने 1974 में ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’ के नारे के साथ मैदान में उतरे तो सारा देश उनके पीछे चल पड़ा, जैसे किसी संत महात्मा के पीछे चल रहा हो।